भगवान् एक पल भी दूर नहीं हटते । परमात्मा सर्वत्र हैं, सब कालमें हैं‒
बहिरन्तश्र्च
भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्षत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
(गीता १३/१५)
सब जगह, बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे परमात्मा-ही-परमात्मा हैं ।
उनको नमस्कार करो, पुकारो‒ ‘हे नाथ ! हे नाथ ! दीख जाओ ।’ जैसे गोपिकाओंने कहा‒ ‘प्यारे दीख जाओ ! दीख जाओ !’ ‘आ जाओ’, नहीं कहा ।
हम सब-की-सब आपकी हैं‒सब दिशाओंमें आपको देख रही हैं, दीख जाओ महाराज !
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्ममथमन्मथः ॥
कामदेवको भी लज्जि़त कर देनेवाले अति सुन्दर रूपसे
साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण उनके बीच वहीं प्रकट हो गये । भगवान् वे ही हैं । वे
अब दूर नहीं चले गये हैं । हमारे पास ही विराजमान हैं; हम देखते ही नहीं । हम नाशवान्
वस्तुओंकी तरफ देखते हैं, केवल नाशवान्की ओर दृष्टि है ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
(गीता ४/११)
भगवान्का यह स्वभाव है कि ‘तुम नाशवान्को
देखते हो तो नाशवान्रुपसे मैं आ जाऊँगा । उस रूपमें ही तुम्हारेको दीखूँगा ।’ प्यास लग जाय तो जलरूपसे आ जायँगे । भूख लग जाय तो अन्नरूपसे
आ जायँगे । जैसी इच्छा करोगे, उसी रूपमें आ जायँगे । आयेंगे
तो भगवान् ही, दूसरा आवे कहाँसे ? भगवान्के रूपसे उनको चाहोगे तो भगवान्
कहतें है‒ ‘मैं आ जाऊँगा ।’ संसारके रूपसे चाहोगे तो संसार-रूपसे आ जाऊँगा ।
भगवतरूपसे चाहनेवालोंका भगवान् बहुत जल्दी कल्याण करते हैं
। भगवान्के भूख लगी हैं कि किसी तरह मेरा अंश मेरे पास
आ जायँ । भगवान्की भूख मिटाओ, भगवान्पर दया करो, सब लोग उनपर महेरबानी करो ।
केवल एक भगवान्को ही चाहो और कुछ मत चाहो । अन्य सब इच्छाओंको मिटानेके लिये केवल
भगवान्की इच्छा करो । सब इच्छाएँ मिट जायँगी तो भगवान्के मिलनेकी इच्छा पूरी हो जायगी । संसारकी
आशा, तृष्णा, इच्छा‒ये ही बाधक हैं । अपने पास जो वस्तुएँ हैं, सब संसारकी हैं ।
उन्हें संसारकी सेवामें लगा दो; निहाल हो जाओगे । एकदम सच्ची बात है
।
चाह गयी चिन्ता मिटी
मनवा बेपरवाह ।
जिसके कुछ नहीं चाहिये सो शाहनपतिशाह ॥
है श्रेष्ठसे भी श्रेष्ट पर ‘तूँ’ चाह करके भ्रष्ट है ।
भगवान्की प्राप्ति होनेपर, चाहना मिटनेपर; महान् सुख, महान् आनन्द होगा ।
सज्जनो ! बिना कौड़ी-पैसेके आनन्द आता है, इतना विलक्षण आनन्द भीतरसे उमड़ता है । अभी तो बाहरसे सुख लेते हैं, पर सुख आता नहीं । जो आता है सो
भाता नहीं और जो भाता है वह रहता नहीं ।
कंचन खान खुली घट माहीं । रामदास के टोटो नाहीं ॥
भीतरसे रोम-रोममें आनन्द प्रकट होता है । इतना आनन्द रहता
है कि उसको देखकर दूसरे आदमी मस्त हो जायँ ।
बस एक ही बात है कि संसारकी दासता मिट जाय ।
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