अर्जुनने गीताजीमें भगवान्से प्रश्न किया कि मनुष्य पाप
करना नहीं चाहता, फिर भी पाप क्यों करता है ?
भगवान्ने उत्तर दिया कि कामना ही पाप
करवानेमें हेतु है । धनकी, भोगोंकी कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है । ‘मेरेको धन मिले’‒यह इच्छा
पापोंकी, नरकोंकी, अन्यायकी जड़ है । यह इच्छा ही अन्यायका खास बीज है । इस
कामनामें जब बाधा लगती है तो क्रोध आता है; फिर क्रोधके वशीभूत होकर पाप कर बैठता
है । मूल पापकी जड़ कामना हुई अर्थात् सुखभोगकी इच्छा‒संग्रहकी इच्छा यह पापकी जड़
है । यदि इन इच्छाओंका रूप बदल दो कि सब सुखी कैसे हो
जायँ, सबको आराम कैसे पहुँचे तो अपने संग्रह और भोगकी इच्छा मिट जाय और जीवन
निर्मल हो जाय । इस लोकमें सुखी हो जाओगे और परलोकमें कल्याण हो जायगा ।
इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं । यह पक्की और सच्ची बात है
।
त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् । (गीता १२/१२)
त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है । त्याग
क्या है ? ‒दूसरोंको सुख कैसे हो ? आराम कैसे मिले ?‒यही त्याग है । मैं सुखी होऊँ,
मुझे कुछ मिले‒यही कामना है । नाशवान्की
इच्छा रखते हुए अशान्ति, सन्ताप, दुःख, जलन होगा‒इनसे बच सकते नहीं ।
नाशवान् मिल भी जाय तो वास्तवमें ‘नहीं’ ही तो मिलेगा, जो कभी नहीं होता है । जो
कभी भी ‘नहीं’ होता है, वह सदैव ही ‘नहीं’ ही है । वह ‘नहीं’ मिले तो भी नहीं ही
है । नाशवान्में तो केवल ‘नाश’ ही सार है
। इसलिये इसके द्वारा तो दूसरोंको सुख पहुँचाओ । सुख
पहुँचाते हुए यह मत समझो कि मैंने सुख पहुँचाया है । उसकी ही वस्तु उसके काममें आ
रही है‒ऐसा भाव रखो, क्योंकि हम वस्तुओंको साथ लेकर जन्मे नहीं, साथ ले जा सकते
नहीं । जीवित-कालमें भी पदार्थोंको मन-मुताबिक रख सकते नहीं, बदल सकते
नहीं, फिर भी उनको अपना कहते हैं, मेरा मानते हैं और मेरे लिये मानते है । आप
परमात्माका अंश हो । परमात्माके लिये हो, इतना ऊँचा दर्जा है आपका; जो भगवान्ने
दिया है । जो हमारी वस्तु होती है, वह सदा
हमारे साथ रहती है । इसलिये उत्पन्न और नाश होनेवाली वस्तुएँ‒यहाँतक कि
शरीर भी हमारा नहीं है, पर इन बातोंपर कौन ध्यान देता है ? आप सबका अनुभव है कि
हमारा इन वस्तुओंपर पूरा अधिकार नहीं चलता;
फिर भी हम इनको अपनी मानते है ! कैसी भूल है ! जरा विचारो ।
पदार्थोंको अपना मानते रहोगे तथा ‘और मिले’‒ऐसी
इच्छा रखोगे तो पतन होगा । पाप होगा, जन्म मरण
होगा । इसलिये इनको पानेकी इच्छा मत रखो । केवल दूसरोंको सुख कैसे हो‒यह इच्छा रखो । आप जिस घरमें
जन्मे हो तो वहाँ जितनी संगृहीत वस्तुएँ आपके अधिकारमें
आयी है, वे सब-की-सब सेवा करनेके लिये मिली है । इसलिये जितना बन सके सेवा कर दो ।
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