।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं. २०७६ बुधवार
                 शरणागति



भगवान्‌ने भगवद्गीतामें सबसे श्रेष्ठ भक्तियोगको कहा है जो कि शरणागति है । उपदेश भी आरम्भ हुआ है अर्जुनके शरण होनेसे और अन्तिम उपदेश यही दिया है कि

सर्वधर्मान्परित्यज्य        मामेकं   शरणं  व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                 (गीता १८/६६)

इससे पहले भगवान्‌ने ‘गुह्य’ कहा, ‘गुह्यतर’ कहा, ‘गुह्यतम’ कहा और यहाँ ‘सर्वगुह्यतम’ (१८/६४) कहा । तो सबसे अन्यन्त गोपनीय बात कहते हैं ‘मामेकं शरण व्रज’ एक मेरी शरण हो जा । अर्जुनने पूछा कि ‘धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि’ धर्मके निर्णय करनेमें मेरी बुद्धि काम नहीं करती, इसलिये आपसे पूछता हूँ ।

भगवान्‌ कहते हैं कि जिसका निर्णय तू नहीं कर सकता, वह मेरेपर छोड़ डे । अर्जुन धर्मका निर्णय नहीं कर सकता था कि युद्ध करूँ या न करूँ । तो भगवान् कहते हैं कि यदि तुझे पता नहीं है तो इस दुविधा में मत पड़ । इन सबको छोड़कर एक मेरे शरण हो जा । मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा । तू चिन्ता मत कर । तो इसमें सब तरहके आश्रयका त्याग कर देना है । किसीका आश्रय नहीं रखना है । मनमें किसी अन्यका भरोसा और आश्रय सब छोड़ दे । अनन्यभावसे भगवान्‌के शरण हो जाय । साधन और साध्य इसीको मानो । यह शरणागतिकी सबसे गोपनीय और सबसे बढ़िया बात भगवान्‌ने कही ।


इसमें एक बहुत विशेष रहस्यकी बात है‒‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर । यह बहुत विलक्षण बात कही । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि तू शरण हो जायगा तो तेरा पाप मैं नष्ट करूँगा । अर्जुनको लोभ दिया गया हो, ऐसी बात नहीं है । तू अनन्यभावसे शरण हो जा, धर्मकी परवाह मत कर, धर्मके त्यागसे होनेवाले पापका ठेका मेरेपर आ गया । गीतामें कहा है‒‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते’ (२/४०) । निष्कामभावसे जो कर्म करता है उसका उलटा फल नहीं होता । अधर्म होता ही नहीं । तू केवल मेरी शरण हो जा । इसके बाद कोई चिन्ता मत कर । शरण होनेके बाद मनमें कोई चिन्ता भी हो जाय, किसी तरहकी विपरीत भावना भी पैदा हो जाय, मन भी परमात्मामें न लगे, संसारके पदार्थोंमें राग-द्वेष भी हो जाय, तत्परता और निष्ठा न दिखायी दे‒इस तरहकी कमियाँ मालूम देवें तो उन कमियोंके लिये तू चिन्ता मत कर । भगवान्‌की शरण होनेपर उसको किसी तरहकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । निश्चिन्त हो जाना चाहिये । निर्भय और निःशोक होना चाहिये । निशंक हो चाहिये । लोकमें क्या दशा होगी, परलोकमें क्या होगा, यहाँ यश होगा कि अपयश होगा, निन्दा होगी कि स्तुति होगी, ठीक होगा कि बेठीक होगा, लाभ होगा कि हानि होगी, लोग आदर करेंगे या निरादर करेंगे‒इन बातोंकी तरफ खयाल ही मत कर । केवल अनन्य शरण हो जा और सब आश्रय छोड़ दे । तू भय मत कर । शोक भी मत कर और शंका भी मत कर । जो वस्तु चली गयी उसका शोक होता है और विचारमें बात आती है तो शंका होती है । शोकका भी त्याग कर दे । ‘मा शुचः’ का तात्पर्य है कि तू किस तरहका किंचिन्मात्र भी सोच मत कर ।