भगवत्प्रेम यज्ञ,
तप, दान, व्रत, तीर्थ आदिसे नहीं होता, प्रत्युत भगवान्में दृढ़ अपनेपनसे प्राप्त
होता है ।
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तपस्यासे प्रेम नहीं मिलता, प्रत्युत शक्ति मिलती है ।
प्रेम भगवान्में अपनापन होनेसे मिलता है ।
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भगवत्प्रेममें जो विलक्षण रस है, वह
ज्ञानमें नहीं है । ज्ञानमें तो अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है ।
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भेद मतमें होता है, प्रेममें नहीं । प्रेम सम्पूर्ण
मतवादोंको खा जाता है ।
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भगवान्की तरफ खिंचाव होनेका नाम
भक्ति है । भक्ति कभी पूर्ण नहीं होती, प्रत्युत उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है ।
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भगवान्के प्रेमके लिये उनमें दृढ़ अपनापनकी जरूरत है और
उनके दर्शनके लिये उत्कट अभिलाषाकी जरूरत है ।
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संसारको जानोगे तो उससे वैराग्य हो जायगा और
परमात्माको जानोगे तो उनमें प्रेम हो जायगा ।
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जिसका मिलना अवश्यम्भावी है, उस परमात्मासे
प्रेम करो और जिसका बिछुड़ना अवश्यम्भावी है, उस संसारकी सेवा करो ।
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प्रेम वहीं होता है, जहाँ अपने सुख अपने सुख और स्वार्थकी
गन्ध भी नहीं होती ।
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‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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