इन चारों प्रकारोंमेंसे किसी तरहसे भी प्राप्त
हुई भगवदाज्ञाको साक्षात् भगवान्की दी हुई आज्ञा समझकर परम श्रद्धा और प्रेमके
साथ अपना सौभाग्य समझते हुए पालन करना चाहिये
। प्रभुकी कृपा और प्रेमका आभारी होना चाहिये । इसीके लिये प्रभु कहते हैं‒ ‘मद्भक्तो
भव’ (गीता ९/३४) ।
(३) ‘मद्याजी (भव)’‒मेरा ही पूजन कर । यहाँ भगवान्के श्रीविग्रहका तथा सब
जीवोंको भगवान्का स्वरूप समझकर उनकी जो सेवा करनी है, वही भगवान्की पूजा है ।
भगवान् कहते हैं‒
यतः
प्रवृर्त्तिभूतानां येन सर्वमिदं
ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
(गीता १८/४६)
‘जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी
उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने
स्वाभाविक कर्मोद्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त करता है ।’
ऐसी पूजा तथा अपना सब कुछ भगवान्के समर्पण कर देना ही ‘मद्याजी’ का तात्पर्य है । भगवान्ने कहा‒ ‘तू सर्वस्व
मेरे ही समर्पण कर दे । अर्थात् अपने मनसे कल्पना की हुई
ममता उठा ले ।’ संसारकी सभी वस्तुएँ परमात्माकी ही हैं । किसी भी वस्तुको न
तो हम साथमें लाये हैं, न ले जायँगे तथा इन वस्तुओंको रखनेमें भी हम स्वतन्त्र
नहीं है । मनकी इच्छाके अनुसार रख नहीं सकते । फिर
हमारा क्या है, केवल भूलसे ही वस्तुओंपर अपनापन । उसको उठा लेना ही भगवदर्पण करना है । यह तीसरी बात हुई
।
(४) चौथी बात है‒ ‘मां नमस्कुरु ।’ इसका तात्पर्य है आत्मसमर्पण अर्थात् भगवान्के विधानमें संतोष । जब अपराधी जिसका अपराध किया
है, उसके चरणोंमें गिरकर कहता है‒‘सरकार ! जो इच्छा हो करें, तब उस अपराधीका कोई
अधिकार नहीं रह जाता । इसी प्रकार नमस्कार करनेवाला भगवान्के सामने अपना कोई
अधिकार नहीं समझता । उनकी मर्जी हो, वैसे रखें । जैसे हमने एक यन्त्र किसीको दे
दिया । अब वह उसे चाहे जैसे बरत सकता है । उसका उसपर पूर्ण अधिकार है । हमें
आपत्ति क्यों हो । इस प्रकार भगवान्का भक्त भगवान्को अर्पित हो जाता है । उसपर
भगवान् सुख या दुःख‒जो भेज दें, वह सबमें प्रसन्न होता है; क्योंकि वह समझता है
कि भगवान् मुझपर बड़े प्रसन्न हैं, तभी तो सब क्रियाएँ
निस्संकोच करते हैं । हमारी इन्द्रिय-मन-बुद्धिपर ध्यान न देकर अपने मनकी करते हैं
। भगवान् हमारे लिये वही करते हैं, जिसमें हमारा परम हित है । हमें वह भले ही
विपरीत दिखायी दे, पर भगवान्के कामोंमें कहीं भी भूलकी गुंजाइश नहीं है ।
भगवान् हमपर दुःख भेजते हैं, इसमें हमारे कई लाभ हैं । एक तो हम पापोंसे सावधान
होते हैं; क्योंकि भगवान् पापोंके फलरूपमें पापोंके
नाशके लिये दुःख देते हैं । दुःखको पापोंका फल समझकर हम फिर पाप करनेसे
डरेंगे । भगवान्की कितनी दया है ! दूसरा लाभ यह है कि प्रभु
हमें अपनानेके लिये ही परम पवित्र बना रहे हैं । जैसे सुनार जिस सोनेको
अपनाना चाहता है, उसे तपाकर और अधिक शुद्ध करता है अथवा जैसे माता अपने बच्चेके मैलको धोती है, साफ करती है; क्योंकि उसको अपने हृदयसे
लगाना है, गोदमें लेना है । इस प्रकार कृपालु भगवान् भी
अपने भक्तको कष्ट देकर उसे पवित्र करते हैं ।’
यही भगवान्के शरण होना है । भगवान् कहते हैं कि तू इस
प्रकार मेरे शरण होकर मुझे ही प्राप्त कर लेगा । यही शरणागति है और ‘मत्परायण’ कहकर इसीका वर्णन किया गया है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘जीवनका
कर्तव्य’ पुस्तकसे
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