निषिद्ध
कर्मोंको करते हुए कोई व्यक्ति साधक नहीं बन सकता । ❇❇❇ ❇❇❇ साधक चाहे तो असत्से विमुख हो जाय, चाहे सत्के
सम्मुख हो जाय । दोनोंमें कोई एक काम तो करना ही पड़ेगा, तभी आफत मिटेगी । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकके लिये ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही
करनी है’‒इस निश्चयकी तथा इसपर दृढ़ अटल रहनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको चाहिये कि वह अपनेको कभी भोगी या
संसारी व्यक्ति न समझें । उसमें सदा यह जागृति रहनी चाहिये कि ‘मैं साधक हूँ’ । ❇❇❇ ❇❇❇ जड़तासे जितना सम्बन्ध-विच्छेद होता जाता है,
उतनी ही साधकमें विलक्षणता आती जाती है । ❇❇❇ ❇❇❇ साधक उसीको कहते हैं,
जो निरन्तर सावधान रहता है । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको अपनी स्थिति स्वाभाविक रूपसे
परमात्मामें ही माननी चाहिये, जो वास्तवमें है । संसारमें अपनी स्थिति माननेवाला
साधक साधनासे गिर जाता है । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको विचार करना चाहिये कि अगर मेरे द्वारा
किसीको लाभ नहीं हुआ, किसीका हित नहीं हुआ, किसीकी सेवा नहीं हुई तो मैं साधक क्या
हुआ ? ❇❇❇ ❇❇❇ साधकमें साधन और सिद्धिके विषयमें चिन्ता तो
नहीं होनी चाहिये, पर भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुलता अवश्य होनी चाहिये । कारण कि चिन्ता भगवान्से दूर करनेवाली है और
व्याकुलता भगवान्की प्राप्ति करानेवाली है । ❇❇❇ ❇❇❇ जबतक अपने व्यक्तित्वका भान हो, तबतक साधकको
सन्तोष नहीं करना चाहिये । ❇❇❇ ❇❇❇ आपसमें मतभेद होना और अपने मतके अनुसार साधन
करके जीवन बनाना दोष नहीं है, प्रत्युत दूसरोंका मत बुरा लगना, उनके मतका खण्डन
करना, उनसे घृणा करना ही दोष है । ❇❇❇ ❇❇❇ जबतक साधकको अपनी स्थितिपर असन्तोष नहीं
होता, तबतक उसकी उन्नति नहीं होती । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको केवल इतनी
सावधानी रखनी है कि उसको जो चीज नाशवान् दीखे, उसके मोहमें न फँसे, उसको महत्त्व
न दे । नाशवान् चीजको काममें ले, पर उसकी दासता स्वीकार न करे । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको मतवादी न बनकर तत्त्ववादी बनना चाहिये
।
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