अनेक लोगोंका यह स्वभाव होता है कि वे सेवा वहीं
करते हैं, जहाँ मान-बड़ाई मिले । मान-बड़ाई, वाहवाहीके बिना वे काम कर ही नहीं सकते
। कोई अच्छा काम हो जाय तो वे कहते हैं कि इसको हमने किया, पर काम बिगड़ जाय तो
दूसरोंपर दोष लगाते हैं । ऐसी वृत्तिवालोंका कल्याण कैसे होगा ? सब अच्छा काम मैंने लिया‒यह ‘कैकेयीवृत्ति’ है और सब अच्छा
काम दूसरोंने किया‒यह ‘रामवृत्ति’ है । कैकेयी कहती है‒ तात बात मैं सकल संवारी । भै मंथरा
सहाय बिचारी ॥ कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ । भूपति
सुरपति पुर पगु धारेउ ॥ (मानस,
अयोध्याकाण्ड १६०/१) और रामजी कहते हैं‒ गुरु बशिष्ठ कुलपूज्य हमारे । इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ॥ ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे । भए
समर सागर कहाँ बेरे ॥ मम हित लागि जन्म इन्ह हारे । भरतहु
ते मोहि अधिक पियारे ॥ (मानस,
उत्तरकाण्ड ८/३-४) अतः
मान-बड़ाई, सुख-आराम पानेके उद्देश्यसे काम करना साधकके लिये अनुचित है । साधक जिस मार्गको अपना ले, उसीमें दृढ़तासे लगा रहे । फिर
सुख आये या दुःख आये, प्रशंसा हो या निन्दा हो, उसकी परवाह मत करे । जितना कष्ट आता है, विपरीत परिस्थिति आती है, वह केवल हमारी उन्नतिके
लिये ही आती है । इसमें एक रहस्यकी बात है कि जब हमारा साधन ठीक चलता है
और ठीक चलते-चलते हम कुछ सुख भोगने लग जाते हैं और अभिमान करने लगते हैं कि मैं
अच्छा साधक बन गया हूँ, तब भगवान् विपरीत परिस्थिति भेजते हैं । परन्तु हाँ, जब
ज्यादा घबरा जाते हैं तो फिर भगवान् अनुकूलता भेज देते हैं । समय-समयपर
अनुकूलता-प्रतिकूलता भेजकर भगवान् हमें चेताते रहते हैं, हमारी रक्षा करते रहते
हैं । मेरेको कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत देना-ही-देना
है‒ऐसा विचार करनेसे मनुष्य साधक बन जाता है । अगर साधक सेवक होगा तो सेवा करते-करते उसका सेवकपनेका
अभिमान मिट जायगा अर्थात् सेवक न रहकर केवल सेवा रह जायगी और वह सेवारूप होकर
सेव्यके साथ एक हो जायगा अर्थात् उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी । ऐसे ही अगर
साधक जिज्ञासु होगा तो उसमें जिज्ञासुपनेका अभिमान मिटकर केवल जिज्ञासा रह जायगी ।
केवल जिज्ञासा रहते ही जिज्ञासा-पूर्ति हो जायगी अर्थात् तत्त्वज्ञान हो जायगा ।
इसी तरह अगर साधक भक्त होगा तो उसमें भक्तपनेका अभिमान नहीं रहेगा और वह भक्तिरूप
हो जायगा अर्थात् उसके द्वारा प्रत्येक क्रिया भक्ति (भगवान्के लिये) ही रहेगी ।
भक्तिरूप होकर वह भगवान्के साथ अभिन्न हो जायगा । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे |