जो मन-इन्द्रियोंको अनुकूल जान पड़ता है, वह सुख और जो
प्रतिकूल प्रतीत होता है, वह दुःख है । यह है सुख-दुःखकी साधारण जनताद्वारा की हुई
परिभाषा । हम सोचते हैं कि हमें रोटी, कपड़ा, मकान, सवारी, जमीन, खेत,
न्याय, विद्या और औषध आदि वस्तुएँ सस्ती तथा पुष्कलमात्रामें प्राप्त हो जायँ तो
हम सुखी हो जायँगे । किन्तु विचारिये जिसके पास उक्त पदार्थ
प्रचुरमात्रामें हैं, क्या वह वास्तवमें सुखी है ? कदापि नहीं, क्योंकि पदार्थोंके
बढ़नेसे उनकी लालसा बढ़ती है और वस्तुओंकी लालसा ही सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है ।
गीतामें अर्जुनने भगवान्से जब दुःखोंके कारणरूप पापोंका हेतु पूछा, तब भगवान्ने
काम (लालसा)-को ही पापाचारका हेतु बतलाया । दुःखका साक्षात् कारण भी लालसा ही है ।
कैदमें, नरकादिमें या जहाँ-कहीं भी कोई दुःखी देखनेमें आते हैं, उन सबके दुःखोंका कारण पहले कभी लालसासे किये हुए पाप या
वर्तमानमें पदार्थोंकी लालसा ही है । लालसा (चाह) करनेसे पदार्थ मिलते भी
नहीं । संसारी लोग भी चाहनेवालेको नहीं देते, बल्कि जो नहीं लेना चाहता, उसे आग्रह
और प्रसन्नतापूर्वक देना चाहते हैं । किसी व्यक्तिको यदि सम्पूर्ण संसारकी
उपर्युक्त सभी मनचाही वस्तुएँ मिल जायँ तब भी उनसे तृप्ति नहीं हो सकती, प्रत्युत
उसकी लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी ‘जिमि प्रति लाभ लोभ
अधिकाई ।’ इस लालसाके अधिक बढ़नेका अर्थ यही है कि
आपको अपनेमें कमीका अनुभव है और जबतक अपनेमें कमीका अनुभव होगा, तबतक सुख हो ही
कैसे सकता है, प्रत्युत दुःख ही बढ़ेगा । गम्भीरतासे
विचार कीजिये तो आपको मालूम हो जायगा कि पदार्थोंके मिलनेसे सुख नहीं होता, प्रत्युत पदार्थ मिलनेसे दुःखका कारणभूत इच्छा (चाह) और बढ़ती है । कहा भी है‒
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । नालमेकस्य तृप्त्यर्थमिति
मत्वा शमं व्रजेत् ॥ न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव
भूय एवाभिवर्धते ॥ ‘पृथ्वीमें जितने भी धान्य-चावल, जौ, गेहूँ,
सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब मिलकर एक मनुष्यकी तृप्तिके लिये भी
पर्याप्त नहीं हैं, ऐसा मानकर तृष्णाका शमन करे; क्योंकि भोग-पदार्थोंके उपभोगसे कामना
कभी शान्त नहीं होती, बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही
भोगवासना भी भोगोंके भोगनेसे प्रबल होती जाती है ।
सभी मनुष्य चाहते तो सुख ही हैं, परन्तु सुखकी सामग्री इन
संसारकी वस्तुओंको ही समझते हैं, इसलिये इन्हींको प्राप्त करनेका प्रयत्न करते
देखे जाते हैं । आज पृथ्वीपर ढाई अरब मनुष्य माने जाते हैं, उनमेंसे प्रत्येक
व्यक्तिको संसारकी समस्त वस्तुएँ कैसे मिल सकती हैं ? क्योंकि वस्तुओंपर सभीका हक
है, एवं वस्तुएँ सब मिलकर भी सीमित हैं और उनके चाहनेवाले हैं बहुत अधिक । जब एकको
एक भी पूरी नहीं मिल सकती, तब प्रत्येकको सभी वस्तुएँ पूरी कैसे मिलें ? मान
लीजिये, यदि सभीको मिल भी जायँ, तब भी इन वस्तुओंसे सुख होना सम्भव नहीं; क्योंकि चेतन जीवको केवल पूर्ण चिन्मयतासे ही शान्ति मिल सकती है,
अपूर्ण और सीमित जड़ वस्तुओंसे नहीं । यदि इन नश्वर पदार्थोंके संयोगसे मूर्खतावश
जो सुख प्रतीत होता है, उसे ही सुख मान लें , तो भी जड़ वस्तुएँ तो प्रतिक्षण
परिवर्तनशील और नाशवान् हैं तथा जीव नित्य और अविनाशी है । अतः इन दोनोंका नित्य
संयोग कैसे रह सकता है ? |