।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                             




           आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल नवमी वि.सं.२०७७, शुक्रवा
‘कल्याण’ गुरु-शिष्यके
सम्बन्ध बिना भी...


अर्जुन हरदम भगवान्‌के साथ ही रहते थे; भगवान्‌के साथ ही खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते थे; परन्तु भगवान्‌ने उनको गीताका उपदेश तभी दिया, जब उनके भीतर अपने श्रेयकी, कल्याणकी, उद्धारकी इच्छा जाग्रत्‌ हो गयी‒‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२/७) । ऐसी इच्छा जाग्रत्‌ होनेके बाद वे अपनेको भगवान्‌का शिष्य मानते हैं और भगवान्‌के शरण होकर शिक्षा देनेके लिये प्रार्थना करते हैं‒‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (२/७) । इस प्रकार कल्याणकी इच्छा जाग्रत्‌ होनेके बाद अर्जुनने अपनेको भगवान्‌का शिष्य मानकर शिक्षा देनेके लिये भगवान्‌से प्रार्थना की है, न कि गुरु-शिष्य-परम्पराकी रीतिसे भगवान्‌को गुरु माना है । भगवान्‌ने भी शास्त्र-पद्धतिके अनुसार अर्जुनको शिष्य बनानेके बाद, गुरु-मन्त्र देनेके बाद, सिरपर हाथ रखनेके बाद उपदेश दिया हो‒ऐसी बात नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि पारमार्थिक उन्नतिमें गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत तीव्र जिज्ञासा, अपने कल्याणकी तीव्र लालसा होना ही अत्यन्त आवश्यक है । अपने उद्धारकी जोरदार लगन होनेसे साधकको भगवत्कृपासे, सन्त-महात्माओंके वचनोंसे, शास्त्रोंसे, ग्रन्थोंसे, किसी घटना-परिस्थितिसे, किसी वायुमण्डलसे अपने-आप पारमार्थिक उन्नतिकी बातें, साधन-सामग्री मिल जाती है और वह उसे ग्रहण कर लेता है ।

गीता बाह्य विधियोंको, बाह्य परिवर्तनको उतना आदर नहीं देती, जितना आदर भीतरके भावोंको, विवेकको, बोधको, जिज्ञासाको, त्यागको देती है । यदि गीता बाह्य विधियोंको, परिवर्तनको, गुरु-शिष्यके सम्बन्धको ही आदर देती तो वह सब सम्प्रदायोंके लिये उपयोगी तथा आदरणीय नहीं होती अर्थात् गीता जिस सम्प्रदायकी विधियोंका वर्णन करती, वह उसी सम्प्रदायकी मानी जाती । फिर गीता प्रत्येक सम्प्रदायके लिये उपयोगी नहीं होती और उसके पठन-पाठन, मनन-चिन्तन आदिमें सब सम्प्रदायवालोंकी रुचि भी नहीं होती । परन्तु गीताका उपदेश सार्वभौम है । वह किसी विशेष सम्प्रदाय या व्यक्तिके लिये नहीं है, प्रत्युत मानवमात्रके लिये है ।