अर्जुन हरदम भगवान्के साथ ही रहते थे; भगवान्के साथ ही
खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते थे; परन्तु भगवान्ने उनको गीताका उपदेश तभी
दिया, जब उनके भीतर अपने श्रेयकी, कल्याणकी, उद्धारकी इच्छा जाग्रत् हो गयी‒‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२/७) । ऐसी
इच्छा जाग्रत् होनेके बाद वे अपनेको भगवान्का शिष्य मानते हैं और भगवान्के शरण
होकर शिक्षा देनेके लिये प्रार्थना करते हैं‒‘शिष्यस्तेऽहं
शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (२/७) । इस
प्रकार कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होनेके बाद अर्जुनने अपनेको भगवान्का शिष्य मानकर
शिक्षा देनेके लिये भगवान्से प्रार्थना की है, न कि गुरु-शिष्य-परम्पराकी रीतिसे भगवान्को गुरु माना है ।
भगवान्ने भी शास्त्र-पद्धतिके अनुसार अर्जुनको शिष्य बनानेके बाद, गुरु-मन्त्र
देनेके बाद, सिरपर हाथ रखनेके बाद उपदेश दिया हो‒ऐसी बात नहीं है । इससे
सिद्ध होता है कि पारमार्थिक उन्नतिमें गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक नहीं
है, प्रत्युत तीव्र जिज्ञासा, अपने कल्याणकी तीव्र लालसा होना ही अत्यन्त आवश्यक
है । अपने उद्धारकी जोरदार लगन होनेसे साधकको भगवत्कृपासे, सन्त-महात्माओंके वचनोंसे, शास्त्रोंसे, ग्रन्थोंसे, किसी
घटना-परिस्थितिसे, किसी वायुमण्डलसे अपने-आप पारमार्थिक उन्नतिकी बातें,
साधन-सामग्री मिल जाती है और वह उसे ग्रहण कर लेता है ।
गीता बाह्य विधियोंको, बाह्य परिवर्तनको उतना आदर नहीं देती,
जितना आदर भीतरके भावोंको, विवेकको, बोधको, जिज्ञासाको, त्यागको देती
है । यदि गीता बाह्य विधियोंको, परिवर्तनको, गुरु-शिष्यके सम्बन्धको ही आदर देती तो वह सब सम्प्रदायोंके
लिये उपयोगी तथा आदरणीय नहीं होती अर्थात् गीता जिस सम्प्रदायकी विधियोंका वर्णन करती,
वह उसी सम्प्रदायकी मानी जाती । फिर गीता प्रत्येक सम्प्रदायके लिये
उपयोगी नहीं होती और उसके पठन-पाठन, मनन-चिन्तन आदिमें सब सम्प्रदायवालोंकी रुचि भी नहीं होती । परन्तु गीताका उपदेश
सार्वभौम है । वह किसी विशेष सम्प्रदाय या व्यक्तिके लिये नहीं है, प्रत्युत मानवमात्रके लिये है । |