।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                            




           आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७७, बुधवा

कल्याणका सुगम साधन-कर्मयोग


कर्मयोगकी ऐसी विलक्षणता है कि साधक किसी (ज्ञानयोग अथवा भक्तियोगके) मार्गपर क्यों न चले, कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कुछ नहीं करना) उसको अपनानी ही पड़ेगी; क्योंकि सभीमें क्रियाशक्ति निरन्तर रहती है । इसीलिये भगवान्‌ने ज्ञानयोगीके लिये ‘सर्वभूतहितेरताः’ (गीता ५/२५; १२/४) तथा भक्तियोगीके लिये ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च’ (गीता १२/१३) कहकर दोनोंके लिये दूसरोंके हितार्थ कर्म करना अनिवार्य बतलाया है ।[*]

कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड़ होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते । निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्काम कर्म होते हैं । अतः चाहे कर्मयोग कहो या निष्कामकर्म‒दोनोंका अर्थ एक ही होता है । सकाम कर्मयोग होता ही नहीं । इसलिये कर्ताका भाव नित्य-निरन्तर निष्काम रहना चाहिये[†]

कर्मयोगीको किसीका भी अहित सहन नहीं होता; क्योंकि जैसे शरीरके प्रत्येक अंगका सम्पूर्ण शरीरके साथ अविभाज्य सम्बन्ध है, वैसे ही संसारके प्रत्येक शरीरका सम्पूर्ण शरीरोंसे अविभाज्य सम्बन्ध है । जैसे मनुष्य अपने शरीरके प्रत्येक अंगके सुख-दुःखमें सुखी और दुःखी होता है, वैसे ही कर्मयोगी प्राणिमात्रके सुख और दुःखमें अपना सुख और दुःख देखता है । दाँतोंसे जीभ कट जानेपर अपने दाँतोंको तोड़ देनेका भाव किसीमें भी नहीं आता, इसी प्रकार अपना कहलानेवाले शरीरका अनिष्ट करनेवालेका भी अहित करनेका भाव कर्मयोगीमें कभी नहीं आता ।

मनुष्यके पास (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सामर्थ्य, समय, योग्यता, विद्या, धन, जमीन आदि) जितनी भी सामग्री है, वह सब-की-सब उसे समष्टि-संसारसे ही मिली है, उसकी अपनी व्यक्तिगत नहीं है । प्रत्यक्ष है कि इन मिले हुए पदार्थोंपर हमारा कोई अधिकार नहीं चलता । इन पदार्थोंको हम अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं, न उनमें कोई मनमाना परिवर्तन ही कर सकते हैं । इन्हें न तो हम अपने साथ लाये हैं, न साथ ले जा सकते हैं । वास्तवमें ये पदार्थ हमें सदुपयोग करने (दूसरोंकी सेवामें लगाने)-के लिये ही मिले हैं, अपना अधिकार जमानेके लिये कभी नहीं । मिली हुई वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो उस वस्तुका केवल अपने लिये भोग करता है, उसे भगवान्‌ चोर कहते हैं‒‘तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः’ (गीता ३/१२) । इतना ही नहीं, भगवान्‌ ऐसे पुरुषको पापायु कहते हुए उसके जीनको ही व्यर्थ बताते हैं‒‘अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति’ (गीता ३/१६) ।

संसारसे प्राप्त शरीरसे हमने अभीतक अपने लिये ही कर्म किये हैं, अपने सुख-भोग और संग्रहके लिये ही उस शरीरका उपयोग किया है । इसलिये संसारका हमपर ऋण है । इस ऋणको उतारनेके लिये हमें केवल संसारके हितके लिये कर्म करने हैं । फलकी कामना रखकर कर्म करनेपर पुराना ऋण तो उतरता नहीं, नया ऋण और उत्पन्न हो जाता है । ऋणसे मुक्त होनेके लिये नया जन्म लेना पड़ता है[‡]दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और निष्कामभावसे कर्म करनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता । इस दृष्टीसे (जन्म-मरणसे छूटनेके लिये) कर्मयोगका पालन करना सभीके लिये आवश्यक है ।


[*] ज्ञानयोगीका समस्त प्राणियोंके हितके प्रति प्रीति होनेके कारण एवं भक्तियोगीका सभीके प्रति मैत्री एवं करुणाका भाव होनेके कारण उनसे स्वतः ही केवल परहितार्थ ही कर्म होंगे जो कि कर्मयोगकी मुख्य बात है ।

[†] निष्कामभावसे कर्म करना ही कर्मयोग कहलाता है । कर्मयोग तभी होता है, जब निष्कामभावसे कर्म किये जायँ । अतः ‘निष्कामकर्मयोग’ कहनेसे पुनरुक्ति-दोष आता है । इसके सिवाय ‘निष्काम कर्मयोग’ कहनेसे ‘सकाम कर्मयोग’ की सत्ता भी सिद्ध होती है, जो कदापि सम्भव नहीं ; क्योंकि कर्मयोग सदा निष्काम ही होता है, सकाम नहीं ।

[‡] गतागतं कामकामा लभन्ते (गीता ९/१२)