लोग प्रायः कहा करते हैं कि यदि हम किसी प्रकारकी कामना न करें तो धनादि कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती ।
अतः कामना किये बिना हमारा जीवननिर्वाह कैसे होगा ? यह बात भी बिलकुल निराधार है । वास्तवमें
किसी अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति ‘कामना’ के कारण नहीं, अपितु प्राप्त वस्तुके
सदुपयोग अर्थात् कर्तव्य-कर्मके कारण होती है । पहलेके सदुपयोगके कारण
वर्तमानमें एवं वर्तमानके सदुपयोगके कारण भविष्यमें अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति
अवलम्बित है । सदुपयोगका तात्पर्य है‒वर्तमानमें प्राप्त
सामग्रीके द्वारा कर्तव्य-कर्मोंका आचरण । यदि वह सदुपयोग निष्कामभावसे किया जाय
तो परमात्माकी प्राप्ति एवं सकामभावसे किया जाय तो सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति हो
सकती है । धनादि समस्त सांसारिक वस्तुएँ कर्म करनेसे प्राप्त होती हैं
। जो वस्तु कर्मके अधीन है, वह कामना करनेसे कैसे प्राप्त हो सकती है ? अतः उसके
लिये कामना करना व्यर्थ ही है । इसके अतिरिक्त कामना पूरी हो जानेपर हम उसी
अवस्थामें आ जाते हैं, जिससे कामना उत्पन्न होनेसे पूर्व थे । कामना सदा पूरी नहीं
होती और कामनाके अनुरूप वस्तु भी सदा रहनेवाली नहीं होती । अतएव कामना करनेसे पराधीनताके सिवा कुछ नहीं मिलता । वास्तवमें सांसारिक पदार्थोंकी कामनाके बाद जब वे पदार्थ
हमें मिलते हैं तो उनकी प्राप्तिमें हमें सुख प्रतीत होता है । वह सुख उन
पदार्थोंकी प्राप्तिसे नहीं हुआ है । यदि पदार्थोंकी प्राप्तिसे सुख होता तो उनके
रहते हुए कभी कोई दुःख नहीं होना चाहिये था । कम-से-कम जो पदार्थ कामनाके बाद मिला
है, उस पदार्थको लेकर तो दुःख होना ही नहीं चाहिये, किन्तु फिर भी दुःख होता है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि पदार्थ-प्राप्तिके बाद
होनेवाला सुख पदार्थ प्राप्तिका सुख नहीं है, अपितु कामना-निवृत्तिका सुख है । जैसे, हम धनकी कामना करते हैं तो धनका हमारे मनके साथ
घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है अर्थात् धन हमारे मनके द्वारा पकड़ा जाता है । जब बाहरसे धन मिलता है, तब मनसे पकड़ा हुआ धन निकल जाता है और सुखकी प्रतीति होती है ।
वास्तवमें वह सुख बाहरसे धन मिलनेसे नहीं हुआ है, प्रत्युत मनसे पकड़े हुए धनके
निकलनेसे अर्थात् धनकी कामनाका त्याग होनेसे हुआ है । परन्तु मनुष्य भूलसे इस सुखको पदार्थोंकी प्राप्तिसे मिलनेवाला मानकर
पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है । इसी कारण वह कामना निवृत्ति अर्थात्
निष्कामताको सुरक्षित नहीं रख पाता । अतएव कहा है‒ न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव
भूय एवाभिवर्धते ॥ (श्रीमद्भा॰ ९/१९/१४; मनु॰ २/९४) ‘विषयोंके उपभोगसे कामना कभी शान्त नहीं
होती, अपितु घीसे अग्निके समान बार-बार अधिक ही बढ़ती जाती है ।’ यदि मनुष्य यह विचार करे कि वास्तवमें सुख तो
कामना-निवृत्तिका ही होता है तो फिर उसके जीवनमें कामनाओंका कोई स्थान ही नहीं
रहता । कामना-निवृत्ति (निष्कामता)-में तो मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है, क्योंकि
इसमें किसी अन्यकी सहायताकी अपेक्षा नहीं है । सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओंकी पूर्ति करनेकी सामर्थ्य
किसीमें भी नहीं है, पर कामनाओंका त्याग करनेकी सामर्थ्य सभीमें है । अतः मनुष्य
कामनाओंका सर्वथा त्याग कर सकता है[*] । कामनाओंका सर्वथा त्याग होते
ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्माकी
प्राप्ति स्वतः हो जाती है, जो कि नित्य प्राप्त है । कामनायुक्त प्रत्येक प्रवृत्ति या कर्म बाँधनेवाला होता है
। कामनाका नाश हुए बिना शान्तिकी प्राप्ति सर्वथा असम्भव
है[†] । कामना करनेसे लाभ तो कुछ नहीं होता, पर हानि
किसी प्रकारकी शेष नहीं रहती । मिली हुई वस्तु (शरीरादि)-को अपना माननेसे (ममतासे) कामना उत्पन्न होती है ।
वास्तवमें कामनाका मनुष्यजीवनमें कोई स्थान नहीं है । कामना-रहित होकर दूसरोंके लिये कर्म करनेमें ही मनुष्य-जीवनकी सफलता
है । अतएव गीतामें भगवान् मनुष्यमात्रको निष्कामभाव-पूर्वक परहितार्थ कर्म
करनेकी आज्ञा देते हैं‒ योगस्थः कुरु
कर्माणि संगम त्यक्त्वा
धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (२/४८) ‘हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि
और असिद्धिमें समान-बुद्धि होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्य कर्मोंको कर । समत्व ही
योग कहलाता है ।’ नारायण ! नारायण !! नारायण !!! |