Jun
01
।। श्रीहरिः ।।

                                                        


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७८ मंगलवार

    सत्यकी स्वीकृतिसे कल्याण


अगर संसारका असर पड़ जाय तो परवाह मत करो, उसको स्वीकार मत करो, फिर वह मिट जायगा । असरको महत्त्व देकर आप बड़े भारी लाभसे वंचित हो रहे हो । इसलिये असर पड़ता है तो पड़ने दो, पर मनमें समझो कि यह सच्ची बात नहीं है । झूठी चीजका असर भी झूठा ही होगा, सच्चा कैसे होगा ? आपसे कोई पैसा ठगता है तो आपको उसकी बात ठीक दीखती है, आप उससे मोहित हो जाते हो, तभी तो ठगाईमें आते हो । ऐसे ही संसारका असर पड़ना बिलकुल ठगाई है, मूर्खता है ।

एक मार्मिक बात है कि असर शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिपर पड़ता है, आपपर नहीं । जिस जातिकी वस्तु है, उसी जातिपर उसका असर पड़ता है, आपपर नहीं पड़ता, क्योंकि आपकी जाति अलग है । शरीर-संसार जड़ हैं, आप चेतन हो । जड़का असर चेतनपर कैसे पड़ेगा ? जड़का असर तो जड़ (शरीर) पर ही पड़ेगा । यह सच्ची बात है । इसको अभी मान लो तो अभी काम हो गया ! आँखोंके कारण देखनेका असर पड़ता है । कानोंके कारण सुननेका असर पड़ता है । तात्पर्य है कि असर सजातीय वस्तुपर पड़ता है । अतः कितना ही असर पड़े, उसको आप सच्चा मत मानो । आपके स्वरूपपर असर नहीं पड़ता । स्वरूप बिलकुल निर्लेप है–‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक ४।३।१५) । मन-बुद्धि़पर असर पड़ता है तो पड़ता रहे । मन-बुद्धि हमारे नहीं हैं । ये उसी धातुके हैं, जिस धातुकी वस्तुका असर पड़ता है ।

प्रश्न–फिर सुखी दुःखी स्वयं क्यों होता है ?

उत्तर–मन-बुद्धिको अपना माननेसे ही स्वयं सुखी-दुःखी होता है । मन-बुद्धि अपने नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृतिके अंश हैं । आप परमात्माके अंश हो । मन-बुद्धिपर असर पड़नेसे आप सुखी-दुःखी हो जाते हो तो यह गलतीकी बात है । वास्तवमें आप सुखी-दुःखी नहीं होते, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हो । विचार करें, अगर आपके ऊपर सुख-दुःखका असर पड़ जाय तो आप अपरिवर्तनशील और एकरस नहीं रहेंगे । आपपर असर पड़ता नहीं है, प्रत्युत आप अपनेपर असर मान लेते हैं । कारण कि आपने मन-बुद्धिको अपने मान रखा है, जो आपके कभी नहीं हैं, कभी नहीं हैं । मन-बुद्धि प्रकृतिके हैं और प्रकृतिका असर प्रकृतिपर ही पड़ेगा ।

प्रश्न–असर पड़नेपर वैसा कर्म हो जाय तो ?

उत्तर–कर्म भी हो जाय तो भी आपमें क्या फर्क पड़ा ? आप विचार करके देखो तो आपपर असर नहीं पड़ा । परन्तु मुश्किल यह है कि आप उसके साथ मिल जाते हो । आप मन-बुद्धिको अपना स्वरूप मानकर ही कहते हो कि हमारेपर असर पड़ा । मन-बुद्धि आपके नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृतिके हैं–‘मनःषष्ठानीनिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५।७) और आप मन-बुद्धिके नहीं हो, प्रत्युत परमात्माके हो–‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७) । इसलिये असर मन-बुद्धिपर पड़ता है, आपपर नहीं । आप तो वैसे-के-वैसे ही रहते हो–‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४।२४) । प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही सुख-दुःखका भोक्ता बनता है–‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३।२१) । मन-बुद्धि़पर असर पड़ता है तो पड़ता रहे, अपनेको क्या मतलब है ! असरको महत्त्व मत दो । इसको अपनेमें स्वीकार मत करो । आप ‘स्व’ में स्थित हैं–‘स्वस्थः ।’ असर ‘स्व’ में पहुँचता ही नहीं । असत् वस्तु सत्‌में कैसे पहुँचेगी ? और सत् वस्तु असत्‌में कैसे पहुँचेगी ? सत् तो निर्लेप रहता है ।