(२) गीतामें भगवान्ने कहा है कि मेरी दो प्रकृतियाँ हैं‒अपरा
और परा । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार‒यह आठ प्रकारके
भेदोंवाली भगवान्की ‘अपरा प्रकृति’ है और जीवरूप
बनी हुई आत्मा ‘परा प्रकृति’ है[*] । अपरा और परा‒ये
दोनों भगवान्की प्रकृतियाँ अर्थात् शक्तियाँ हैं । शक्तिमान्के बिना
शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती । इसलिये
भगवान्की शक्ति होनेसे ये दोनों (अपरा और परा) भगवान्से अभिन्न हैं । जैसे
मनुष्य अपनी शक्ति (ताकत)-को अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकता, ऐसे ही अपरा और
पराको भगवान्से अलग करके नहीं देखा जा सकता । तात्पर्य
यह निकला कि अपरा और परा‒दोनों प्रकृतियाँ भगवान्से अभिन्न होनेके कारण भगवान्का
स्वरूप ही हैं । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तीन लोक, चौदह भुवन, जड़-चेतन,
स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्द्भिज्ज,
सात्त्विक-राजस-तामस, मनुष्य, देवता, पितर, गन्धर्व, पशु, पक्षी, कीट, पतंग,
भूत-प्रेत-पिशाच, ब्रह्मराक्षस आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, पढ़ने, चिन्तन करने तथा
कल्पना करनेमें आता है, उसमें ‘अपरा’ और ‘परा’‒इन दो प्रकृतियोंके सिवाय कुछ भी
नहीं है । जो देखने, सुनने, पढ़ने, चिन्तन करने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम्के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, चिन्तन किया तथा
कल्पना किया जाता है, वह सब-का-सब ‘अपरा’ है । परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता,
चिन्तन करता तथा कल्पना करता है, वह ‘परा’ है । जितने भी शरीर हैं, वे सब-के-सब
‘अपरा’ के अन्तर्गत हैं और जितने भी जीव हैं,
वे सब-के-सब ‘परा’ के अन्तर्गत हैं । अतः अनन्त
ब्रह्माण्डोंके रूपमें आठ अपरा, एक परा और एक भगवान्‒इन दसके सिवाय कुछ नहीं है
अर्थात् एक भगवान्के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है । अपरा प्रकृतिको मैं, मेरा और मेरे लिये माननेसे
ही जीवको अपरा (जगत्), परा (जीव) और परमात्मा‒तीनों अलग-अलग दिखायी देते हैं ।
वास्तवमें परमात्मा ही हैं, प्रकृति है ही नहीं । प्रकृतिकी तरफ दृष्टि होनेसे ही
प्रकृति है । दृष्टि न हो
तो प्रकृति है ही नहीं । दृष्टि भी दृश्यके सम्बन्धसे है । साक्षी भी साक्ष्यके
सम्बन्धसे है । जब हम अपनेको शरीर मानते हैं, तब भगवान्
हमारे लिये संसार बन जाते हैं अर्थात् हमें संसार-रूपसे दीखने लगते हैं ।
जब अपरा और परा‒दोनों प्रकृतियाँ भगवान्की हैं तो फिर उसमें मैं-तूका भेद कैसे हो
सकता है ? अगर हम अपनेको देखें तो अपरा और पराके सिवाय हम कुछ नहीं
हैं । हमारे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम् ‒ये सब अपरा हैं और हम स्वयं
जीवरूपसे परा हैं । परा-अपरा दोनों भगवान्की प्रकृतियाँ
हैं; अतः केवल भगवान् ही रहे ! हमारी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही ! ‘मैं’ नामसे कुछ
नहीं रहा ! [*] भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना
प्रकृतिरष्टधा ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ (गीता ७/४-५) |