हम सदा रहना (जीना) चाहते हैं तो यह इच्छा न तो उसमें होती
है, जो सदा नहीं रहता और न उसमें ही होती है,
जो सदा रहता है । यह इच्छा उसमें होती है, जो सदा रहता है, पर उसमें
मृत्युका भय आ गया । मृत्युका भय जड़ताके संगसे आता है;
क्योंकि जड़ता नाशवान् है, चिन्मय सत्ता अविनाशी है । तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता
(‘है’) में ‘मैं’ मिलानेसे ही जीनेकी इच्छा होती है । अतः जीनेकी इच्छा न ‘मैं’
में है और न ‘हूँ’ में है, प्रत्युत ‘मैं हूँ’‒इस तादात्मयमें है । इस तादात्मयके कारण ही मनुष्यमें भोगेच्छा और जिज्ञासा
(मुमुक्षा) दोनों रहती हैं । ‘मैं हूँ’‒इन दोनोंमें हम ‘मैं’ को प्रधानता देंगे तो संसार
(भोग और संग्रह)-की इच्छा हो जायगी और ‘हूँ’ को प्रधानता देंगे तो परमात्मा
(मोक्ष)-की इच्छा हो जायगी । जब ‘मैं’ से माना हुआ सम्बन्ध अर्थात् तादात्मय मिट
जायगा, तब संसारकी इच्छा मिट जायगी और परमात्माकी इच्छा पूरी हो जायगी । कारण कि
संसार अपूर्ण है, इसलिये उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती और परमात्मा पूर्ण हैं,
इसलिये उनकी इच्छा कभी अपूर्ण नहीं होती अर्थात् पूरी ही होती है । भोगेच्छा हो अथवा मुमुक्षा हो, इच्छामात्र जड़के सम्बन्ध
(तादात्म्य)-से ही होती है । तादात्मय मिटते ही हम जीवन्मुक्त हो जाते हैं
। वास्तवमें हम जीवन्मुक्त तो पहलेसे ही हैं, पर ‘मैं’
के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेसे जीवन्मुक्तिका अनुभव नहीं होता । इसलिये
जो नित्यप्राप्त है, उसीकी प्राप्ति होती है हमारा अनुभव प्रश्न‒‘मैं’
अलग है और ‘हूँ’ अलग है‒इसका अनुभव कैसे करें ? उत्तर‒यह तो हम सबके अनुभवकी बात है । जाग्रत् और स्वप्नमें तो हमारा व्यवहार होता
है, पर सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-में कोई व्यवहार नहीं होता । कारण कि
सुषुप्ति-अवस्थामें मैंपन लीन होनेपर भी हमारी सत्ता रहती है । इसीलिये सुषुप्तिसे
जगनेपर हम कहते हैं कि ‘मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था’ तो ‘कुछ भी पता नहीं था’‒इसका पता तो था ही ! नहीं तो कैसे
कहते कि कुछ भी पता नहीं था ? इससे सिद्ध हुआ कि जाग्रत् और स्वप्नमें मैंपन
जाग्रत् रहनेपर भी हमारी सत्ता है तथा सुषुप्तिमें मैंपन जाग्रत् न रहनेपर भी
हमारी सत्ता है । अतः हम मैंपनसे अलग न होते, अहंकाररूप ही होते तो सुषुप्तिमें
मैंपनके लीन होनेपर हम भी नहीं रहते[*] । अतः मैंपनके बिना भी हमारा
होनापन सिद्ध होता है । हम अहम् (‘मैं’)-के भाव और अभाव‒दोनोंको जानते हैं, पर अपने अभावको कभी कोई नहीं जानता; क्योंकि हमारी सत्ताका
अभाव कभी होता ही नहीं‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६)
। असत् वस्तु अहम्के भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाली हमारी सत्ता
निरन्तर रहती है ।
[*]
सुषुप्तिमें मैंपन मिटता नहीं है, प्रत्युत लीन होता है और
निद्राके मिटनेपर (जाग्रत्-अवस्थामें आनेपर) वह पुनः प्रकट हो जाता है । परन्तु
तत्त्वज्ञान होनेपर मैंपन मिट जाता है । |