करना तो दूसरोंके लिये है और जानना
खुदको है । खुदको जान जाओ तो जानना बाकी नहीं रहेगा ।
खुदको नहीं जानोगे तो कितनी ही विद्याएँ पढ़ लो, कितनी ही लिपियाँ पढ़ लो, कितनी ही
भाषओंका ज्ञान प्राप्त कर लो, कितने ही शास्त्रोंका ज्ञान कर लो, पर जानना बाकी ही
रहेगा । स्वयंको साक्षात् कर लिया, स्वरूपका बोध हो गया, तो फिर जानना बाकी नहीं
रहेगा । ऐसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो गयी, तो फिर कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं
रहेगा । दूसरोंके लिये करना, स्वरूपको जानना और
परमात्माको पाना–इन तीनोंके सिवा आप कुछ नहीं कर सकते, कुछ नहीं जान सकते और कुछ
नहीं पा सकते । कारण कि इन तीनोंके सिवा आप कुछ भी करोगे, कुछ भी जानोगे और कुछ भी
पाओगे, तो वह सदा आपके साथ नहीं रहेगा और न आप उसके साथ रहोगे । जो सदा साथ न रहे,
उसको करना, जानना और पाना केवल वहम ही है । भागवत्में तीन योग[*] बताये हैं–कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें ‘करना’ है,
ज्ञानयोगमें ‘जानना’ है और भक्तियोगमें ‘पाना’ है । इन तीनोंमेंसे कोई एक
कर लो तो बाकी दो साथमें हो ही जायँगे । भगवान्की प्राप्ति हो गयी तो जानना और
करना बाकी नहीं रहेगा । स्वरूपको ठीक जान जाओगे तो भगवान् भी मिल जायँगे और करना
भी समाप्त हो जायगा । करना पूरा कर लिया तो जानना भी हो जायगा और पाना भी हो जायगा
। श्रोता–खुदको जानना क्या है ? स्वामीजी–खुदको जानना
यह है कि जैसे कपड़े पहने हुए हैं, तो क्या कपड़े आप हो ? नहीं । चमड़ा आप हो ? नहीं
। मांस आप हो ? नहीं । खून आप हो ? नहीं । नाड़ियाँ आप हो ? नहीं । पेटमें मल-मूत्र
भरा है, वह आप हो ? नहीं । आँतें आप हो ? नहीं । ये मैं नहीं हूँ । अतः जो मैं नहीं हूँ, उसको ‘मैं हूँ’ मत मानो तो खुदको जान
जाओगे । कितनी सुगम बात है ! एक बार मान लिया कि यह मैं नहीं हूँ, तो फिर
उसे ‘मैं हूँ’ मत मानो, थूककर मत चाटो । अपने-आपको
जानना, अपने लिये कुछ न करना और परमात्माको पाना–तीनों ही बहुत सुगम हैं । चाहे
जिस तरफ चलो, आपकी मरजी । देखो, एक बात कहता हूँ । बात तो अभिमानकी
है, पर मैं अभिमानपूर्वक नहीं कहता हूँ । मैंने खोज की
है और खोज कर रहा हूँ, किस बातकी ? कि सुगमतासे कल्याण हो जाय और चट हो जाय ।
शास्त्रकी प्रक्रियाके अनुसार तो श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, सविकल्प और
निर्विकल्प समाधि, फिर सबीज और निर्बीज समाधि हो जाय, तब कल्याण होता है । यह
शास्त्रकी प्रक्रिया मेरी सीखी हुई है । इसमें मैंने थोड़ी मथ्थापच्ची भी की है । श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान थोड़ा-बहुत मैंने किया
है । पर बात इतनी ही है कि ‘यह मैं नहीं हूँ’ । अब
इतनी बातके लिये पहाड़ क्या खोदना ! [*] योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया । ज्ञानं
कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योस्ति कुत्रचित् ॥ (श्रीमद्भा॰ ११/२०/६) |