अब आप बालक हो क्या ? तो बालकपनसे मुक्ति हो गयी न ? मुक्ति
तो आपसे-आप हो रही है; क्योंकि मुक्ति है । बन्धन बेचारा है ही नहीं । बन्धनको तो
आपने पकड़ा हुआ है । आप रखोगे तो रहेगा, आप छोड़ोगे तो छूट जायगा । आप बन्धन नहीं
छोड़ोगे तो वह नहीं छूटेगा । बन्धनको छोड़नेका सुगम उपाय
यह है कि जो अपने दीखते हैं, उनकी सेवा कर दो और उनसे सेवा मत चाहो । दो
बातें मैंने बतायी थीं कि उनकी माँग न्याययुक्त, धर्मयुक्त है और आपकी उसको पूरा
करनेकी शक्ति, सामर्थ्य है, आपके पास वस्तु है, तो उनकी माँग पूरी कर दो । अपनी न्याययुक्त इच्छा
भी मत रखो; जैसे‒बेटा हमारी सेवा करे‒यह न्याययुक्त होनेपर भी इसकी इच्छाको
मत रखो । इस तरह खुद तो सेवा चाहो नहीं और दूसरोंकी सेवा
करते रहो, तो मुक्ति हो जायगी । सेवा चाहते रहोगे तो मुक्ति नहीं होगी । और
दूसरा सेवा करेगा भी नहीं । सेवा चाहनेसे दूसरा सेवा नहीं करेगा और सेवा नहीं चाहोगे तो
वह सेवा करेगा; आपकी सेवामें घाटा नहीं पड़ेगा । आपके पास रुपये हैं, रोटी है, कपड़ा
है, तो आप किस साधुको देना चाहते हैं ? जो लेना नहीं चाहता । जो लेना नहीं चाहता,
उसको दोगे या जो लेना चाहता है, उसको दोगे ? जो चोरी करता है, डाका डालता है,
छीनता है, उसको आप देना चाहते हो क्या ? आप उसीको देना
चाहते हैं, जो लेना नहीं चाहता । संसारसे कुछ नहीं चाहोगे तो संसार ज्यादा सुख
देगा । आपको सुख कम नहीं पड़ेगा, घाटा नहीं लगेगा । जो कुछ नहीं चाहता, उसको सब देना चाहते हैं, तो फिर उसके सुखमें घाटा कैसे पड़ेगा । घाटा
तो सुख चाहनेसे पड़ता है । मान-बड़ाई भी उसको देते हैं जो इसको नहीं चाहता । फिर
चाहना करके दरिद्री क्यों बनें ? श्रोता‒अनादिकालसे पड़े हुए ममताके
संस्कार मिटें कैसे ? स्वामीजी‒अनादिकालका अँधेरा दियासलाई जलाते ही भाग जाता है । किसी गुफामें लाखों
वर्षोंसे अँधेरा हो और वहाँ जाकर प्रकाश करें तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं यहाँ
इतने वर्षोंसे हूँ, इसलिये मैं जल्दी नहीं जाऊँगा । जब प्रकाश हुआ तो वह मिट गया ।
ऐसे ही जो भूल है, गलती है, वह मिटनेवाली होती है । ममताको मिटानेका उपाय है‒देनेकी इच्छा रखो ।
लेनेकी आशा रखो ही मत कि हमें कुछ मिले । वस्तु अपने पासमें है और दूसरा चाहता है,
तो बिना किसी शर्तके उसको
दे दो । देते रहोगे तो स्वभाव देनेका पड़ जायगा । लेनेका स्वाभाव होनेसे
नयी-नयी ममता पैदा होती है । इसलिये भीतरसे ही लेनेकी इच्छा छोड़ दो ।
संसारकी सेवा-ही-सेवा करनी है, लेना कुछ नहीं है‒यह
‘कर्मयोग’ हो गया । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं‒यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया । भगवान्
ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं है‒यह ‘भक्तियोग’ हो गया । मेरा सम्बन्ध संसारके साथ
है, संसार मेरा है और मेरे लिये है‒यह ‘जन्म-मरणयोग’ या ‘बन्धनयोग’ हो गया !
बार-बार जन्मो और मरो ! अब जिसमें आपको फायदा लगे, उसको कर लो । परमात्माके साथ तो
आपका सम्बन्ध स्वतः है और संसारके साथ सम्बन्ध आपका माना हुआ है । संसारसे कितना ही सम्बन्ध जोड़ लो, वह
टिकता ही नहीं । जो टिके नहीं, उसको पहले ही छोड़
दो । |