प्रश्न‒भगवान् सबके हृदयमें निवास करते हैं (१३ । १७;
१५ । १५; १८ । ६१);
परन्तु आजकल डॉक्टर
लोग हृदयका
प्रत्यारोपण कर देते हैं, तो फिर भगवान् कहाँ रहते हैं ? उत्तर‒भगवान् तो सब जगह ही निवास करते हैं, पर हृदय उनका उपलब्धि-स्थान है; क्योंकि हृदय शरीरका प्रधान अंग है और सभी श्रेष्ठ भाव
हृदयमें ही पैदा होते हैं । जैसे गायके सम्पूर्ण शरीरमें दूध व्याप्त होनेपर भी वह
उसके स्तनोंसे ही प्राप्त होता है अथवा पृथ्वीमें सब जगह जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे
ही प्राप्त होता है, ऐसे ही भगवान् सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण
होते हुए भी हृदयमें प्राप्त होते हैं । डॉक्टर लोग जिस हृदयका प्रत्यारोपण
करते हैं, वह हृत्पिण्ड कहलाता है । उस
हृत्पिण्डमें हृदय-शक्ति है, उस शक्तिमें भगवान् निवास करते हैं । प्रत्यारोपण हृत्पिण्डका होता है, उसमें रहनेवाली शक्तिका नहीं । शक्ति तो अपने स्थानपर
ज्यों-की-त्यों ही रहती है । जैसे नेत्र दीखते हैं, पर देखनेकी शक्ति (नेत्रेन्द्रिय) नहीं दीखती; क्योंकि वह सूक्ष्मशरीरमें रहती है, ऐसे ही हृत्पिण्ड दीखता है, पर उसमें रहनेवाली शक्ति नहीं दीखती । प्रश्न‒अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही पुरुष (चेतन) भोक्ता बनता है;
परन्तु तेरहवें
अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने प्रकृतिमें स्थित पुरुषको भोक्ता बताया है;
ऐसा क्यों ? उत्तर‒पुरुष (चेतन)-को प्रकृतिमें स्थित बतानेका
तात्पर्य है कि जैसे विवाह होनेपर स्त्रीके सम्पूर्ण सम्बन्धियोंके साथ पुरुषका सम्बन्ध
हो जाता है, ऐसे ही एक शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे
अर्थात् एक शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे मात्र प्रकृतिके साथ, सम्पूर्ण शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है । प्रश्न‒अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही तो पुरुष कर्ता और भोक्ता बनता है;
परन्तु तेरहवें
अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि यह पुरुष शरीरमें स्थित रहता हुआ
भी कर्ता और भोक्ता नहीं है; यह कैसे ? उत्तर‒यहाँ भगवान् प्राणिमात्रके वास्तविक
स्वरूपको बता रहे हैं कि वास्तवमें अज्ञानी-से-अज्ञानी मनुष्य भी स्वरूपसे कभी कर्ता
और भोक्ता नहीं बनता अर्थात् उसके स्वरूपमें कभी कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं आता । परन्तु
अज्ञानके कारण मनुष्य अपनेको कर्ता और भोक्ता मान लेता है (३ ।२७; ५ ।१५) और वह कर्तृत्व-भोक्तृत्वभावमें बँध जाता है ।
अगर उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्वभाव न हो तो वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता
है और न बँधता ही है (१८ । १७) । प्रश्न‒रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर और रजोगुणकी प्रधानतामें मरनेवाला प्राणी मनुष्यलोकमें
जन्म लेता है (१४ । १५,१८)‒इन दोनों बातोंसे
यही सिद्ध होता है कि इस मनुष्यलोकमें
सभी मनुष्य रजोगुणवाले
ही होते हैं, सत्त्वगुण और तमोगुणवाले नहीं । परन्तु गीतामें जगह-जगह तीनों
गुणोंकी बात भी आयी है (७ । १३; १४ । ६‒१८; १८ । २०‒४० आदि) । इसका क्या तात्पर्य है ? उत्तर‒ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति‒इन तीनोंमें तीनों गुण रहते हैं; परन्तु ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी, मध्यगति (मनुष्यलोक)-में रजोगुणकी और अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता रहती है । तभी तो तीनों गतियोंमें प्राणियोंके सात्त्विक, राजस और तामस स्वभाव होते हैं[*] ।
[*] इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताकी
‘साधक-संजीवनी’ हिंदी-टीकामें चौदहवें अध्यायके अठारहवें
श्लोककी व्याख्या देखनी चाहिये । |
प्रश्न‒नवें अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं और
तेरहवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कहते हैं कि सम्पूर्ण भाव,
प्राणी आदि एक प्रकृतिमें
स्थित हैं, तो वास्तवमें प्राणी भगवान्में स्थित हैं या प्रकृतिमें ? ऊत्तर‒भगवान्के अंश होनेसे सम्पूर्ण प्राणी
तत्त्वतः भगवान्में ही स्थित हैं और वे भगवान्से कभी अलग हो सकते ही नहीं । परन्तु
उन प्राणियोंके जो शरीर हैं, वे प्रकृतिसे उत्पन्न होनेसे, प्रकृतिके अंश होनेसे प्रकृतिमें ही स्थित हैं । प्रश्न‒मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे हूँ; परन्तु जो मेरा भजन करते हैं,
वे मेरेमें और मैं
उनमें हूँ (९ । २९)‒भगवान्का यह पक्षपात क्यों ?
यदि पक्षपात है,
तो ‘मैं सबमें सम
हूँ’‒यह कैसे ? उत्तर‒यह पक्षपात ही तो समता है ! अगर भगवान्
भजन करनेवाले और भजन न करनेवालेके साथ एक समान भाव रखें तो यह समता कैसी हुई ? और भजन करनेका क्या माहात्म्य हुआ ! अतः भजन करनेवाले
और न करनेवालेके साथ यथायोग्य बर्ताव करना ही भगवान्की समता है; और अगर भगवान् ऐसा नहीं करते तो यह भगवान्की विषमता
है । वास्तवमें देखा जाय तो भगवान्में विषमता है ही नहीं । भगवान्में विषमता तो भजन
करनेवालेके भावोंने पैदा की है अर्थात् जो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके केवल भगवान्में
ही लग जाता है, उसके अनन्यभावके कारण भगवान्में ऐसी
विषमता हो जाती है, भगवान् करते नहीं । प्रश्न‒भगवद्दर्शन होनेके बाद मोह नहीं रहता । अर्जुनने भगवान्के विराटरूप,
चतुर्भुजरूप और
द्विभुजरूप‒तीनोंके दर्शन कर लिये थे,
फिर भी उनका मोह
दूर क्यों नहीं हुआ ? उत्तर‒दर्शन देनेके बाद भक्तका मोह दूर करने, तत्त्वज्ञान करानेकी जिम्मेदारी भगवान्पर ही रहती है
। अर्जुनका मोह आगे चलकर नष्ट हो ही गया (१८ । ७३), इससे सिद्ध होता है कि भगवद्दर्शन
होनेके बाद मोह नष्ट होता ही है । अर्जुनने अपना मोह नष्ट होनेमें न तो गीतोपदेशको कारण माना और न दर्शनको, प्रत्युत भगवत्कृपाको ही कारण माना है‒‘त्वत्प्रसादात्’
(१८ । ७३) । प्रश्न‒तेरहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें परमात्माको ज्ञेय कहा है और अठारहवें अध्यायके
अठारहवें श्लोकमें संसारको ज्ञेय कहा है । इसका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर‒ये दोनों विषय अलग-अलग हैं । तेरहवें
अध्यायके बारहवें श्लोकमें बताया गया है कि परमात्माको जरूर जानना चाहिये; क्योंकि परमात्माको यथार्थरूपसे जान लेनेपर कल्याण हो
जाता है; और अठारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें
बताया गया है कि जाननेमें आनेवाला दृश्यमात्र संसार है, जिससे व्यवहारकी सिद्धि होती है । |
प्रश्न‒बहुत जन्मोंके अन्तमें 'सब कुछ वासुदेव ही है'‒ऐसा ज्ञान होता है (७ । १९), तो फिर इसी जन्ममें मनुष्य
भगवत्प्राप्ति कैसे कर सकता है ? उत्तर‒इस श्लोकमें आये ‘बहूनां जन्मनामन्ते’ पदोंका अर्थ ‘बहुत जन्मोंके
अन्तमें’ नहीं है, प्रत्युत ‘बहुत जन्मोंके
अन्तिम जन्म इस मनुष्य शरीरमें’‒ऐसा अर्थ है । कारण कि यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण
जन्मोंका अन्तिम जन्म है । भगवान्ने मनुष्यके कल्याणके लिये अपनी तरफसे अन्तिम जन्म
दिया है अर्थात् मनुष्यको अपना कल्याण करनेका पूरा अधिकार दिया है । अब इसके आगे यह
नये जन्मकी तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले‒इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है । गीतामें भगवान्ने कहा है कि ‘मनुष्य
अन्तकालमें जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है, उस-उस भावको ही वह प्राप्त होता है’ (८ । ६); ‘जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताकी उपासना करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ’ (७ । २१)‒इन भगवद्वचनोंसे मनुष्यजन्मकी स्वतन्त्रता सिद्ध
होती है । मनुष्य सकामभावसे शुभ कर्म करके स्वर्ग आदिमें भी जा सकता है; पाप-कर्म करके पशु-पक्षी, भूत-पिशाच आदि योनियोंमें तथा नरकोंमें भी जा सकता है; और पाप-पुण्योंसे रहित होकर भगवान्को भी प्राप्त कर सकता
है । इस अन्तिम मनुष्यजन्ममें यह जो चाहे, वह कर सकता है । जैसे यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका
अन्तिम जन्म है, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म
भी है; क्योंकि इस मनुष्यजन्ममें किये हुए
कर्मोंका ही फल स्वर्ग, नरक और चौरासी लाख योनियोंमें भोगना पड़ता है । इसी मनुष्यजन्ममें सम्पूर्ण जन्मोंके
बीज बोये जाते हैं । प्रश्न‒भगवान् भूत, वर्तमान और भविष्यके सम्पूर्ण प्राणियोंको जानते हैं (७ । २६);
अतः कौन-सा प्राणी
किस गतिमें जायगा‒यह भी भगवान् जानते ही हैं अर्थात् भगवान् जिसकी जैसी गति जानते
हैं, उसकी वैसी ही गति होगी, तो फिर मनुष्यको अपने उद्धारकी स्वतन्त्रता
कहाँ रही ?
उत्तर‒भगवान्का भूत, वर्तमान और भविष्यके प्राणियोंको जो जानना है, वह उनकी गतियोंको निश्चित करनेमें नहीं है कि अमुक प्राणी
अमुक गतिमें ही जायगा । भगवान् अपने अंश सम्पूर्ण प्राणियोंको स्वतः जानते हैं और
सम्पूर्ण प्राणी भगवान्की जानकारीमें स्वतः हैं‒इसीमें उपर्युक्त कथनका तात्पर्य है
। अगर भगवान्का जानना प्राणियोंकी गति निश्चित करनेमें ही होता तो फिर भगवान् ‘ये
मनुष्य मेरेको प्राप्त न करके मौतके रास्तेमें पड़ गये’ (९ । ३); ‘मेरेको प्राप्त न करके अधोगतिमें चले गये’ (१६ । २०)–ऐसा पश्चात्ताप नहीं करते; क्योंकि अगर उन्होंने ही उनकी गतियोंको निश्चित किया है
तो फिर पश्चात्ताप किस बातका ? दूसरी बात, श्रुति और स्मृति भगवान् की ही आज्ञा
है‒‘श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे’ । श्रुति और स्मृतिमें विधि-निषेध आया है कि शुभ कर्म
करो, निषिद्ध कर्म मत करो; शुभ कर्म करनेसे तुम्हारी सद्गति होगी और निषिद्ध कर्म
करनेसे तुम्हारी दुर्गति होगी । अगर भगवान्ने प्राणियोंकी गतियोंको पहले ही निश्चित
कर रखा होता तो श्रुति और स्मृतिका विधि-निषेध किसपर लागू होता ? तात्पर्य है कि मनुष्य अपना उद्धार करनेमें स्वतन्त्र
है । |