सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ; सर्गोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ; सम्पूर्ण प्राणियोंका बीज मैं ही
हूँ;
साधकको जहाँ-कहीं सुन्दरता, महत्ता, अलौकिकता दीखे, वह सब वास्तवमें मेरी ही है‒यह बात बतानेके लिये भगवान् दसवें
अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वैश्वर्य’-रूपसे प्रकट
होते है (१० । ४१-४२) । मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण संसारको व्याप्त करके स्थित
हूँ‒इसे बतानेके लिये भगवान् ग्यारहवें अध्यायमें अर्जुनको दिव्यचक्षु देकर उनके सामने
‘विश्वरूप’-से प्रकट होते हैं (११ । ५‒८) । जो भक्त मेरे परायण होकर, सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके अनन्य भक्तियोगसे मुझ
सगुण-साकार परमेश्वरका ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उनका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप
संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ‒इसे बतानेके लिये भगवान् बारहवें अध्यायमें
अर्जुनके सामने ‘समुद्धर्ता’-रूपसे प्रकट होते हैं
(१२ । ७) । जाननेके लिये जितने विषय हैं, उन सबमें अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मतत्त्व ही है । इस परमात्मतत्त्वके
सिवा दूसरे जितने भी जाननेयोग्य विषय हैं । उन्हें मनुष्य कितना ही जान ले,
पर उससे पूर्णता नहीं होगी । अगर वह परमात्मतत्त्वको जान ले
तो फिर अपूर्णता रहेगी ही नहीं‒यह बात जनानेके लिये भगवान् तेरहवें अध्यायमें अर्जुनके
सामने ‘ज्ञेयतत्त्व’-रूपसे प्रकट होते हैं (१३ । १२‒१८)
। जिस प्रकृतिसे सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों गुण उत्पन्न होते हैं,
उसका अधिष्ठाता (स्वामी) मैं ही हूँ, महासर्गके आदिमें
मैं ही संसारकी रचना करता हूँ; ब्रह्म,
अविनाशी अमृत, सनातनधर्म तथा ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं
ही हूँ‒यह बात बतानेके लिये भगवान् चौदहवें अध्यायमें अर्जुनके
सामने ‘आदिपुरुष’-रूपसे प्रकट होते हैं
(१४ । २७) । इस संसारका मूल मैं ही हूँ; सूर्य, चन्द्र आदिमें मेरा ही तेज है;
मैं ही अपने ओजसे पृथ्वीको धारण करता हूँ; वेदोंको जाननेवाला,
वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य
भी मैं ही हूँ; मैं क्षर (संसार)-से अतीत एवं अक्षर (जीवात्मा)-से श्रेष्ठ हूँ;
वेदोंमें और शास्त्रोंमें मैं ही श्रेष्ठ पुरुषके नामसे प्रसिद्ध
हूँ‒अपनी यह सर्वश्रेष्ठता बतानेके लिये भगवान् पन्द्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने
‘पुरुषोत्तम’-रूपसे प्रकट होते हैं (१५ । १७‒१९) । दम्भ, दर्प, अभिमान आदि जितने भी दुर्गुण हैं,
वे सभी मनुष्योंके अपने बनाये हुए हैं अर्थात् ये मेरे नहीं
हैं;
परन्तु अभय, अहिंसा, सत्य, दया, क्षमा आदि जितने भी उत्तम गुण हैं,
वे सभी मेरे हैं और मेरी प्राप्ति करानेवाले हैं‒यह बात बतानेके
लिये भगवान् सोलहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘दैवी-सम्पत्ति’-रूपसे
प्रकट होते हैं (१६ । १‒३) । अगर कोई परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे यज्ञ,
तप, दान आदि शुभकर्म करे और उनमें कोई कमी (अंग-वैगुण्य) रह जाय
तो जिस भगवान्से यज्ञ आदि रचे गये हैं, उस भगवान्का नाम लेनेसे उस कमीकी पूर्ति हो जाती है‒यह बात
बतानेके लिये भगवान् सत्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ॐ
तत् सत्’-नामोंके रूपसे प्रकट होते हैं (१७ । २३) । सम्पूर्ण गीतोपदेशका सार अर्थात् कर्मयोग,
ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि सभी साधनोंका सार मेरी शरणागति है‒यह बतानेके लिये
भगवान् अठारहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वशरण्य’-रूपसे
प्रकट होते हैं (१८ । ६६) । तात्पर्य है कि साधकका भगवान्के प्रति ज्यों-ज्यों
भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके भावके अनुसार अपनेको प्रकट
करते हैं, जिससे
साधक-भक्तके भाव, श्रद्धा, विश्वास भी बढ़ते रहते हैं । इनके बढ़ते-बढ़ते अन्तमें
भगवत्प्राप्ति हो जाती है । साधकको सावधानी इस बातकी रखनी है कि उसका अनन्यभाव कभी
डिगे नहीं, अनन्यभावसे वह कभी विचलित न हो ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! |