।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें भगवान्‌का विविध रूपोंमें प्रकट होना



सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ; सर्गोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ; सम्पूर्ण प्राणियोंका बीज मैं ही हूँ; साधकको जहाँ-कहीं सुन्दरता, महत्ता, अलौकिकता दीखे, वह सब वास्तवमें मेरी ही है‒यह बात बतानेके लिये भगवान्‌ दसवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वैश्वर्य’-रूपसे प्रकट होते है (१० । ४१-४२) ।

मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण संसारको व्याप्त करके स्थित हूँ‒इसे बतानेके लिये भगवान्‌ ग्यारहवें अध्यायमें अर्जुनको दिव्यचक्षु देकर उनके सामने ‘विश्वरूप’-से प्रकट होते हैं (११ । ५‒८) ।

जो भक्त मेरे परायण होकर, सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके अनन्य भक्तियोगसे मुझ सगुण-साकार परमेश्वरका ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उनका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ‒इसे बतानेके लिये भगवान्‌ बारहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘समुद्धर्ता’-रूपसे प्रकट होते हैं (१२ । ७) ।

जाननेके लिये जितने विषय हैं, उन सबमें अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मतत्त्व ही है । इस परमात्मतत्त्वके सिवा दूसरे जितने भी जाननेयोग्य विषय हैं । उन्हें मनुष्य कितना ही जान ले, पर उससे पूर्णता नहीं होगी । अगर वह परमात्मतत्त्वको जान ले तो फिर अपूर्णता रहेगी ही नहीं‒यह बात जनानेके लिये भगवान्‌ तेरहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ज्ञेयतत्त्व’-रूपसे प्रकट होते हैं (१३ । १२‒१८) ।

जिस प्रकृतिसे सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों गुण उत्पन्न होते हैं, उसका अधिष्ठाता (स्वामी) मैं ही हूँ, महासर्गके आदिमें मैं ही संसारकी रचना करता हूँ; ब्रह्म, अविनाशी अमृत, सनातनधर्म तथा ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं ही हूँ‒यह बात बतानेके लिये भगवान्‌ चौदहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘आदिपुरुष’-रूपसे प्रकट होते हैं (१४ । २७) ।

इस संसारका मूल मैं ही हूँ; सूर्य, चन्द्र आदिमें मेरा ही तेज है; मैं ही अपने ओजसे पृथ्वीको धारण करता हूँ; वेदोंको जाननेवाला, वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य भी मैं ही हूँ; मैं क्षर (संसार)-से अतीत एवं अक्षर (जीवात्मा)-से श्रेष्ठ हूँ; वेदोंमें और शास्त्रोंमें मैं ही श्रेष्ठ पुरुषके नामसे प्रसिद्ध हूँ‒अपनी यह सर्वश्रेष्ठता बतानेके लिये भगवान्‌ पन्द्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘पुरुषोत्तम’-रूपसे प्रकट होते हैं (१५ । १७‒१९) ।

दम्भ, दर्प, अभिमान आदि जितने भी दुर्गुण हैं, वे सभी मनुष्योंके अपने बनाये हुए हैं अर्थात् ये मेरे नहीं हैं; परन्तु अभय, अहिंसा, सत्य, दया, क्षमा आदि जितने भी उत्तम गुण हैं, वे सभी मेरे हैं और मेरी प्राप्ति करानेवाले हैं‒यह बात बतानेके लिये भगवान्‌ सोलहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘दैवी-सम्पत्ति’-रूपसे प्रकट होते हैं (१६ । १‒३) ।

अगर कोई परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे यज्ञ, तप, दान आदि शुभकर्म करे और उनमें कोई कमी (अंग-वैगुण्य) रह जाय तो जिस भगवान्‌से यज्ञ आदि रचे गये हैं, उस भगवान्‌का नाम लेनेसे उस कमीकी पूर्ति हो जाती है‒यह बात बतानेके लिये भगवान्‌ सत्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ॐ तत् सत्‌’-नामोंके रूपसे प्रकट होते हैं (१७ । २३) ।

सम्पूर्ण गीतोपदेशका सार अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि सभी साधनोंका सार मेरी शरणागति है‒यह बतानेके लिये भगवान्‌ अठारहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वशरण्य’-रूपसे प्रकट होते हैं (१८ । ६६) ।

तात्पर्य है कि साधकका भगवान्‌के प्रति ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों भगवान्‌ उसके भावके अनुसार अपनेको प्रकट करते हैं, जिससे साधक-भक्तके भाव, श्रद्धा, विश्वास भी बढ़ते रहते हैं । इनके बढ़ते-बढ़ते अन्तमें भगवत्प्राप्ति हो जाती है । साधकको सावधानी इस बातकी रखनी है कि उसका अनन्यभाव कभी डिगे नहीं, अनन्यभावसे वह कभी विचलित न हो ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !