।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     श्रावण कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीता और वेद




यस्य   निःश्वसिता   वेदा  यस्य  वै   मार्गर्शकाः ।

स कृष्णः स्वस्वरूपाँस्तान् स्वयं खण्डयते कथम् ॥

वेद नाम ज्ञानका है[*] । उस ज्ञानसे ही सबका व्यवहार चलता है, सबका हित होता है अर्थात् साधारण व्यवहारसे लेकर मोक्षतक उसी ज्ञानसे सिद्ध होता है । वही ज्ञान संसारमें ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद‒इन चार संहिताओंके रूपमें प्रसिद्ध है । पुराणों, स्मृतियों, इतिहासों आदिमें तथा अलग-अलग सम्प्रदायोंमें अनेक रूपोंसे जो कुछ ज्ञान मिलता है, वह सब ज्ञान मूलमें वेदका ही है । अतः उस ज्ञानका कोई खण्डन (निरादर) कर ही नहीं सकता । यदि कोई उसका खण्डन करता है तो वह वास्तवमें खुदका ही खण्डन (निरादर) करता है ।

भगवान्‌ने गीतामें वेदोंका बहुत आदर किया है । भगवान्‌ने कहा है कि जिनसे लौकिक और पारमार्थिक सिद्धि होती है, उन सब कर्मोंकी विधिका ज्ञान वेदोंसे ही होता हैं‒‘कर्म ब्रह्मोद्भवम्’ (३ । १५); बहुतसे यज्ञ अर्थात् परमात्मप्राप्तिके साधन वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं‒‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’ (४ । ३२) । भगवान्‌ने अपने लिये भी कहा है कि ऋक्, साम और यजुः मैं ही हूँ‒‘ऋक्साम यजुरेव च’ (९ । १७); वेदोंमें सामवेद मेरा स्वरूप है‒‘वेदानां सामवेदोऽस्मि’ (१० । २२) वेदोंकी माता गायत्री मेरा ही स्वरूप हें‒‘गायत्री छन्दसामहम्’ (१० । ३५); सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ अर्थात् चारों वेदोंमें मेरे ही स्वरूपका प्रतिपादन है तथा वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ‒‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्’ (१५ । १५); शास्त्रोंमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे मैं ही प्रसिद्ध हूँ‒‘अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः’ (१५ । १८)

गीतामें ‘यामिमां पुष्पितां वाचम्’ (२ । ४२) ‘दिखावटी शोभायुक्त वाणी’; ‘वेदवादरताः’ (२ । ४२) ‘वेदोंके वादमें रत रहनेवाले’; ‘क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति’ (२ । ४३) ‘भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली वाणी’; ‘त्रैगुण्यविषया वेदाः’ (२ । ४५) ‘वेद तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारका प्रतिपादन करनेवाले हैं’; ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ (६ । ४४) ‘समताका जिज्ञासु भी वेदमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानोंका अतिक्रमण कर जाता है’; ‘वेदेषु.....यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् । अत्येति तत्सर्वमिदं.....’ (८ । २८) ‘वेदों आदिमें जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, योगी उन सबका अतिक्रमण कर जाता है’; ‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (९ । २१) ‘इस तरह तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते है’ आदि पदोंमें जो वेदोंका निरादर (निन्दा) प्रतीत होता है, वह वास्तवमें वेदोंका नहीं है, प्रत्युत सकामभावका है । कारण कि सकामभाव ही बार-बार जन्म-मरण देनेवाला है, बन्धनमें डालनेवाला है । अतः भगवान्‌ने सकामभावकी निन्दा की है, वेदोंकी नहीं ।

गीतामें वेदोंके पाठ, अध्ययन आदिसे भगवान्‌के विश्वरूप और चतुर्भुजरूपके दर्शनका जो निषेध किया गया है (११ । ४८, ५३) उसका तात्पर्य यह है कि वेदोंके पाठ, अध्ययनमात्रके बलसे भगवान्‌के दर्शन नहीं होते, प्रत्युत भगवान्‌के दर्शन तो अनन्य प्रेमसे ही होते हैं । यदि वेदोंका पाठ, अध्ययन आदि भगवान्‌की आज्ञा समझकर निष्कामभावपूर्वक केवल भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये ही किया जाय तो भगवान्‌की कृपासे उनके दर्शन हो सकते हैं । कारण कि भगवान्‌ भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं ।

वेद श्रुतिमाता है और माता सब बालकोंके लिये समान होती है । अतः वेदमाताने अपने बच्चोंकी भिन्न-भिन्न रुचियोंके अनुसार लौकिक और पारमार्थिक सब तरहकी सिद्धियोंके उपाय (साधन) बताये हैं । अपनी माताका निरादर, निन्दा कौन बालक कर सकता है और क्यों करना चाहेगा ? भगवान्‌ने भी गीतामें वेदोंको अपना स्वरूप बताया है; अतः भगवान्‌ अपने स्वरूपका निरादर कैसे कर सकते हैं ? और भगवान्‌के द्वारा अपने स्वरूपका निरादर हो ही कैसे सकता है ?



[*] ‘वेद’ शब्द 'विद ज्ञाने’ धातुसे बना है ।