आद्या
गुणमयी दैवी तथान्या दिव्यचिन्मयी । योगमायेति च प्रोक्ता गीतायां पञ्च शक्तयः ॥ गीतामें भगवान्की पाँच शक्तियोंका वर्णन हुआ है;
जैसे‒ (१) मूलप्रकृति‒महाप्रलयके समय सम्पूर्ण प्राणी इसी मूल प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् इसी
मूल प्रकृतिको लीन होते हैं‒‘सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये......’
(९ ।
७) । महासर्गके समय भगवान् इसी
मूलप्रकृतिको वशमें करके अपने-अपने स्वभावके वशमें हुए प्राणियोंकी रचना करते हैं‒‘प्रकृतिं
स्वामवष्टभ्य......’ (९ । ८); और यही प्रकृति भगवान्की अध्यक्षतामें सम्पूर्ण संसारकी रचना करती है (९ । १०)
। इसी मूल प्रकृतिको भगवान्ने ‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् (१४ ।
३) और ‘तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता’ (१४ ।
४)‒इन पदोंसे सम्पूर्ण प्राणियोंका
उत्पत्ति-स्थान और अपनेको बीज प्रदान करनेवाला पिता बताया है । (२) दिव्य चिन्मय शक्ति‒भगवान् स्वयं जब कभी अवतार लेते हैं,
तब इसी दिव्य चिन्मय-शक्तिका आश्रय लेकर लेते हैं । इसी शक्तिसे
भगवान् भक्तोंको आनन्द देनेवाली प्रेमकी लीला करते हैं । यह शक्ति दिव्य चिन्मय गुणोंवाली
होती है । अतः भगवान्का अवतारी शरीर भी दिव्य चिन्मय होता है । इसी दिव्य चिन्मय शक्तिको
भगवान्ने ‘प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवामि’ (४ ।
६) पदोंसे कहा है । (३) योगमाया-शक्ति‒इसी शक्तिसे मोहित हुए सामान्य प्राणी भगवान्को मनुष्य मानकर
उनकी अवहेलना करते हैं । इस शक्तिसे ब्रह्माजी भी मोहित हो जाते हैं । इसी योगमाया-शक्तिको
भगवान्ने ‘आत्ममायया’ (४ । ६) और ‘योगमायासमावृतः’ (७ ।
२५) पदोंसे कहा है । (४) दैवी प्रकृति‒‘देव’ नाम भगवान्का है । भगवान्की प्रकृति (स्वभाव) होनेसे यह ‘दैवी प्रकृति’ कहलाती है । इसमें दया, क्षमा, अहिंसा आदि दैवी गुण रहते हैं । साधक भक्त इस दैवी प्रकृतिका
आश्रय लेकर भगवान्की ओर चलते हैं‒‘महात्मानस्तु मां पार्थ...... भूतादिमव्ययम्’ (९ ।
१३) । इसीको ‘दैवी
सम्पद्’ नामसे कहा गया है (१६ । ३, ५) । साक्षात् भगवान्का अंश होनेसे
जीवमें इस दैवी सम्पत्तिके गुण स्वतः-स्वाभाविक रहते हैं । परन्तु जबतक यह जीव भगवान्से
विमुख रहता है, तबतक ये गुण उसमें प्रकट नहीं होते, विकसित नहीं होते, प्रत्युत दबे रहते हैं । जब वह भगवान्के सम्मुख हो जाता है,
तब उसमें ये गुण स्वतः-स्वाभाविक प्रकट होने लगते हैं,
विकसित होने लगते हैं । (५) गुणमयी माया‒यह माया लौकिक सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंवाली है । इस मायाके साथ जीव जितना ही
घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ता है, अपनेको उसका अधिपति मानता है और उससे सुख लेना चाहता है,
उतना ही वह उसमें मोहित हो जाता है,
उसके अधीन हो जाता है और उसमें फँस जाता है । इसी गुणमयी मायाको
भगवान्ने प्रकृति (३ । २७, २९; १३ । १९‒२१, २३, २९, ३४; १४ । ५), अपरा प्रकृति (७ । ४-५), दैवी गुणमयी माया (७ । १४-१५), माया (१८ । ६१) और
अव्यक्त (१३ । ५) नामसे कहा है । इस गुणमयी मायामें अत्यधिक तादात्म्य,
ममता, आसक्ति होनेसे यह माया ही आसुरी,
राक्षसी और मोहिनी-रूप धारण कर लेती है (९ । १२) ।
वास्तवमें भगवान्की शक्ति एक ही है,
जो भगवत्स्वरूपा है । उसी शक्तिको लेकर भगवान् सृष्टि रचना
आदि भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं, अनेक प्रकारकी लीलाएँ करते हैं । अतः उस एक ही शक्तिके कार्य
या लीलाके अनुसार उपर्युक्त पाँच भेद हो जाते हैं । |