।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें देवताओंकी उपासना



प्रकृतिके साथ, गुणोंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले जितने सुख हैं, भोग हैं, ऊँचे-ऊँचे लोक हैं, वे सभी नाशवान् हैं, सीमित हैं और जन्म-मरण देनेवाले हैं । जो प्रकृतिसे सम्बन्ध नहीं रखना चाहते, केवल अपना कल्याण चाहते हैं और पारमार्थिक मार्गमें लगे हुए हैं, ऐसे मनुष्योंको किसी कारणविशेषसे अन्तकालमें साधनसे विचलित होनेपर स्वर्गादि लोकोंमें जाना भी पड़ता है तो भी वे वहाँके भोगोंमें फँसते नहीं; क्योंकि भोग भोगना उनका उद्देश्य नहीं रहा है । वहाँके भोग तो उनके लिये विघ्‍नरूप होते हैं । वहाँ बहुत समयतक रहकर फिर वे शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं और पुनः साधनमें लग जाते हैं (६ । ४१, ४४) ।

देवताओंकी उपासना करनेवालोंका पतन ही होता है, उनको बार-बार जन्म-मरणका दुःख भोगना ही पड़ता है, पर जो किसी भी तरहसे अपने कल्याणके साधनमें लगा हुआ है, उसका कभी पतन नहीं होता (६ । ४०); क्योंकि उसका उद्देश्य कल्याणका होनेसे भगवान्‌ उसको शुद्ध श्रीमानोंके घरमें पुनः साधन करनेका अवसर देते हैं ।

वास्तवमें देखा जाय तो स्वर्ग आदिका सुख कोई ऊँचा नहीं है । वह सुख भी मृत्युलोकके धनी आदमियोंके सुखकी श्रेणीका ही है, यहाँके सुखके तारतम्यका ही है । कारण कि वह सुख भी सम्बन्धजन्य है, इन्द्रियोंके पाँचों विषयोंका है, आदि-अन्तवाला और दुःखोंका ही कारण है (५ । २२) । परन्तु जो पारमार्थिक सुख है, वह निर्विकार है, अक्षय है अर्थात् उसका कभी नाश नहीं होता; क्योंकि वह स्वयंका है, प्रत्येक प्राणीका स्वधर्म है, सम्बन्धजन्य नहीं है (५ । २१) ।

तात्पर्य है कि देवताओंकी उपासना करनेवाले ऊँचे-से-ऊँचे लोकोंमें चले जायँ तो भी कामनाके कारण उनको जन्म-मरणके चक्करमें आना ही पड़ता है, उनका कल्याण नहीं होता (९ । २१) । परन्तु जो किसी भी तरहसे भगवान्‌में लग जाते हैं, उनका उद्धार हो जाता है[*], उनका कभी पतन होता ही नहीं (६ । ४०) । भगवान्‌ने अपने अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)‒इन चार प्रकारके भक्तोंको सुकृती कहा है (७ । १६), उदार कहा है (७ । १८); क्योंकि वे भगवान्‌में लगे हुए हैं । भगवान्‌में लगे होनेसे वे भगवान्‌को ही प्राप्त होते हैं । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह किसी कामना, सुखेच्छाके वशीभूत होकर मनुष्यजन्मके अमूल्य समयको जन्म-मरणके चक्करमें जानेमें न लगाये, प्रत्युत भगवान्‌में ही लगाये ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] भगवान्‌की इतनी महिमा है कि कोई किसी भी भावसे भगवान्‌में लग जाय, उसमें स्वतः ही निष्कामभाव आ जाता है और उसका उद्धार हो जाता है । अतः सकामभावकी बातका तात्पर्य केवल भगवान्‌में लगनेमें ही है, सकामभावमें नहीं