Listen इस नित्ययोगका अनुभव होनेमें असत्का संग ही बाधक
है । कारण कि असत्के संगसे ही
राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, अच्छा-मन्दा आदि द्वन्द्व पैदा होते हैं । असत्से असङ्ग होते ही, असत्का सम्बन्ध-विच्छेद होते ही योगकी प्राप्ति हो जाती है
। योगकी प्राप्तिके लिये भगवान्ने मुख्यरूपसे दो निष्ठाएँ बतायी
हैं‒कर्मयोग और सांख्ययोग (३ । ३) । असत्से सम्बन्ध-विच्छेद करना कर्मयोग है और सत्के
साथ योग होना सांख्ययोग है; परन्तु ये दोनों ही निष्ठाएँ साधकोंकी अपनी हैं । भक्तियोग साधककी
अपनी निष्ठा नहीं है, प्रत्युत भगवन्निष्ठा है[*] । भक्त केवल भगवान्के सम्मुख हो जाता है तो उसपर सांसारिक
सिद्धि-असिद्धिका कोई असर नहीं पड़ता । उसमें समता स्वतः आ जाती है । तीनों योगोंसे कर्मों (पापों)-का नाश कर्मज्ञानभक्तियोगाः[†] सर्वेऽपि
कर्मनाशका:
। तस्मात् केनापि युक्त: स्यान्निष्कर्मा मनुजो भवेत्
॥ गीतामें भगवान्ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनो ही योगोंसे सर्वथा कर्मों (पापों)-का
नाश होनेकी बात कही है; जैसे‒ (१) कर्मयोग‒जो साधक केवल यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-की परम्परा सुरिक्षत रखनेके
लिये,
लोक-संग्रहके लिये, सृष्टि-चक्रकी परम्परा चलानेके लिये ही कर्तव्य-कर्मका
पालन करता है अर्थात् कर्मोंको केवल दूसरोंके लिये ही करता है, अपने लिये नहीं,
वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है (३ । १३) । (२) ज्ञानयोग‒देखने, सुनने और समझनेमें जो कुछ दृश्य आता है, वह सब अदृश्यतामें परिवर्तित हो
रहा है । इन्द्रियों और अन्तःकरणके जितने विषय हैं, वे सब-के-सब पहले नहीं थे और फिर
आगे नहीं रहेंगे तथा अभी वर्तमानमें भी प्रतिक्षण ‘नहीं’ में भरती हो रहे है । परन्तु विषय तथा उसके अभावको जाननेवाला
तत्त्व सदा ज्यों-का-त्यों ही रहता है । उस तत्त्वका कभी अभाव हुआ नहीं, होता नहीं,
होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । उसी तत्त्वसे मैं-मेरा, तू-तेरा,
यह-इसका और वह-उसका‒ये चारों प्रकाशित होते हैं । वह तत्त्व (प्रकाश) इन सबमें ज्यों-का-त्यों
परिपूर्ण है । जैसे प्रज्वलित अग्नि काठको भस्म कर देती है,
ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मोंको, पापोंको भस्म कर देती
है (४ । ३७) । तात्पर्य है कि उस ज्ञानरूपी अग्निमें मैं-मेरा, तू-तेरा, यह-इसका और
वह-उसका‒ये सभी लीन हो जाते हैं । (३) भक्तियोग‒जो संसारसे विमुख होकर केवल भगवान्की ही शरण हो जाता है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं । भगवान् अर्जुनसे
कहते हैं कि तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर एक मेरी शरण हो जा,
मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा,
तू चिन्ता मत कर (१८ । ६६) ।
[*] गीतामें जहाँ कर्मयोग और सांख्ययोग‒ये दो ही निष्ठाएँ मानी गयी
हैं,
वहाँ भक्तियोगको स्वतन्त्र न मानकर उपर्युक्त दोनों निष्ठाओंके
अन्तर्गत ही माना गया है । अतः वहाँ सांख्ययोगके दो भेद हो जाते हैं‒विचारप्रधान सांख्ययोग
(१३ । १९‒३४) और भक्तिमिश्रित सांख्ययोग (१३
। १‒१८) । इसी तरह कर्मयोगके भी तीन भेद हो जाते हैं‒कर्मप्रधान कर्मयोग (१८ । ४‒१२),
भक्तिमिश्रित कर्मयोग (१८ । ४१‒४८) और भक्तिप्रधान कर्मयोग (१८ । ५६‒६६) । परन्तु जहाँ
भक्तियोगको दो निष्ठाओंके अन्तर्गत न मानकर स्वतन्त्र माना जाता है,
वहाँ सांख्ययोग ओर कर्मयोग‒ये दोनों निष्ठाएँ साधकोंकी अपनी
हैं और भक्तियोग भगवन्निष्ठा है । फिर तीनों योग स्वतन्त्र माने जाते हैं,
उनमें किसीका मिश्रण नहीं रहता । [†] यहाँ (इस श्लोकमें) ‘र-विपुला’
का प्रयोग हुआ है । ऐसे ही प्रत्येक लेखके आरम्भमें दिये हुए अन्य श्लोकोंमें कहीं-कहीं ‘र-विपुला’
का प्रयोग हुआ है । इस प्रकारके प्रयोगको
‘पिङ्गलच्छन्दःसूत्रम्’ ग्रन्थके अनुसार ‘पथ्यावक्त्र’ नामक छन्दके अन्तर्गत ही माना गया है । |
Sep
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