Listen ज्ञानयोगी और कर्मयोगीके भीतर अपने कल्याणकी इच्छा रहती है और
उसी उद्देश्यसे वे साधनमें लगते है । भक्तियोगी भी आरम्भमें चाहता तो कल्याण ही है,
पर जब भगवान्में श्रद्धा-भक्ति बढ़ती है,
तब उसकी दृष्टि अपने कल्याणकी ओर नहीं रहती, प्रत्युत भगवान्की ओर ही रहती है । अतः उसके कल्याणकी जिम्मेवारी
भगवान्पर ही होती है (१० । ८‒११;
१२ । ६-७; १८ । ६६) । गीताके भक्तियोगमें ज्ञानयोग और कर्मयोगकी बात भी आ जाती है;
जैसे‒‘जो अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरा सेवन करता है,
वह गुणोंसे अतीत होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है’
(१४ । २६) अर्थात् मनुष्य जैसे
ज्ञानयोगसे गुणातीत होता है, ऐसे ही भक्तियोगसे भी गुणातीत हो जाता है । ‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनके स्वरूपमें रहनेवाला मैं उनके
अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानस्वरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ’
(१० । ११) अर्थात् भक्तियोगसे भी तत्त्वका बोध (स्वरूपज्ञान) हो जाता है । भगवान्ने
तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया है,
वहाँ अपनी अव्यभिचारिणी भक्तिको भी तत्त्वज्ञान होनेमें कारण
बताया है (१३ । १०) । ‘जो सम्पूर्ण कर्मोंको परमात्माके अर्पण करके करता है,
वह जलमें कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता’
(५ । १०);
क्योंकि कमलका पत्ता जलमें रहता हुआ भी निर्लिप्त रहता है और
निर्लिप्त रहता हुआ ही जलमें रहता है । यह कर्मयोगकी बात है,
जो भगवान्ने कर्मयोगीके लिये भी कही है कि वह कर्म करते हुए
भी निर्लिप्त रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है (४ । १८) । ऐसे ही ‘सर्वकर्मफलत्यागम्’ (१२ । ११)’ ‘सङ्गवर्जितः’
(११ । ५५) और ‘स्वकर्मणा’
(१८ । ४६) रूपसे कर्मयोगकी बात
भक्तियोगमें आ गयी । गीतामें ज्ञानयोगसे पराभक्ति (प्रेम)-की प्राप्ति
(१८ । ५४) और कर्मयोगसे ज्ञानकी प्राप्ति (४ । ३८) बतायी गयी है; परन्तु
भक्तिसे भगवान्के दर्शन, भगवतत्त्वका ज्ञान और भगवत्तत्त्वमें प्रवेश‒ये तीनों हो
जाते हैं (११ । ५४) । यह विशेषता भक्तियोगमें ही है,
दूसरे योगमें नहीं ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |
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