Listen अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विषयस्तु दृढायते
। स्पष्टरूपेण सा शैली गीतायां दृश्यते प्रभोः ॥ जिन बातोंको काममें लानेसे
कार्य सिद्ध होता है,
वे बातें ‘अन्वय’ कहलाती हैं और जिन बातोंको काममें न लानेसे
कार्य सिद्ध नहीं होता,
प्रत्युत बाधा लगती है, वे बातें ‘व्यतिरेक’ कहलाती हैं । ऐसी अन्वय और व्यतिरेककी
बातोंसे विषय स्पष्ट होता है । अतः गीतामें विषयको स्पष्ट करनेके लिये भगवान्ने अनेक
अन्वय और व्यतिरेक वाक्य कहे हैं; जैसे– (१) दूसरे अध्यायके चौबीसवें-पचीसवें
श्लोकोंमें भगवान्ने कहा शरीरी (आत्मा)-को नित्य, सर्वगत आदि समझनेसे शोक नहीं हो
सकता; और छब्बीसवें-सत्ताईसवें श्लोकोमें कहा
कि अगर तू शरीरीको नित्य जन्मने-मरनेवाला
मान ले, तो भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि जन्मनेवालेकी निश्चित मृत्यु
होगी और मरनेवालेका निश्चित जन्म होगा । ‒इसका तात्पर्य है कि किसी
भी दृष्टिसे मनुष्यके लिये शोक करना उचित नहीं है । (२) दूसरे अध्यायके इकतीसवें
श्लोकमें भगवान्ने कहा कि अपने धर्मको देखकर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे
बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है; और तैतीसवें श्लोकमें कहा कि अगर तू इस
धर्ममय युद्धको नहीं करेगा तो तेरेको पाप लगेगा । ‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको
किसी भी दृष्टिसे, किसी भी अवस्था, परिस्थितिमें, किसी भी संकटमें अपने कर्तव्य-कर्मका
त्याग नहीं करना चाहिये,
प्रत्युत अपने कल्याणके लिये
निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना चाहिये । (३) दूसरे अध्यायके बासठवें-तिरसठवें
श्लोकोंमें भगवान्ने बताया कि रागपूर्वक विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता
है और चौसठवें-पैंसठवें श्लोकोंमें बताया कि रागरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे स्थितप्रज्ञताकी
अर्थात् परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । ‒इसका तात्पर्य है कि साधकको
राग-द्वेष मिटाने चाहिये;
क्योंकि ये दोनों ही साधकके
शत्रु हैं (३ । ३४) । (४) दूसरे अध्यायके बासठवें-तिरसठवें
श्लोकोंमें भगवान्ने कहा कि जो विषयोंका चिन्तन करता है, उसका पतन हो जाता है; और छठे अध्यायके चालीसवें श्लोकमें कहा
कि कल्याणकारी काम करनेवालेका पतन नहीं होता । ‒इसका तात्पर्य है कि जो संसारके
सम्मुख हो जाता है,
उसका पतन हो जाता है; और जो किसी भी तरहसे भगवान्के सम्मुख
हो जाता है, पारमार्थिक मार्गमें लग जाता
है, उसका पतन नहीं होता । (५) दूसरे अध्यायके चौंसठवें-पैंसठवें
श्लोकोंमें भगवान्ने कहा कि जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है; और छाछठवें-सड़सठवें श्लोकोंमें कहा कि
जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें नहीं होतीं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती । असंयमी
होनेके कारण उसका मन उसकी बुद्धिको हर लेता है ।
‒इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगीके
लिये मन और इन्द्रियोंको वशमें रखना बहुत आवश्यक है । |
Nov
27