।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें आये परस्पर-विरोधी

पदोंका तात्पर्य



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(२९) संसार-वृक्ष ऊपरकी ओर मूलवाला है‒‘ऊर्ध्वमूलम्’ (१५ । १) और संसार-वृक्षके मूल नीचे हैं‒अधश्‍च मूलानि’ (१५ । २) तो एक ही संसार-वृक्षके ऊर्ध्वमूल और अधोमूल कैसे ?

ऊर्ध्वमूल परमात्माका वाचक है, जो कि संसार-वृक्षका आधार है और अधोमूल तादात्म्य, ममता और कामनाके वाचक हैं, जिनसे ऊर्ध्व, मध्य और अधोगतिरूप शाखाएँ निकलती हैं । तात्पर्य है कि मनुष्यको इन तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूलोंका तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्माकी शरण लेना है ।

(३०) वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मार करके भी न मारता है और न बँधता है (१८ । १७) अर्थात् वह क्रिया करके भी क्रिया नहीं करता और उसके फलका भी भागी नहीं होता‒यह कैसे ?

अहंकृतभाव अर्थात् मैं कर्म करता हूँ’‒ऐसा भाव होनेसे ही मनुष्य कर्मोंका कर्ता बनता है और फलकी इच्छासे उसको फलका भागी होना पड़ता है । परन्तु जिसके भीतर अहंकृत भाव नहीं है और फलकी इच्छा भी नहीं है, वह सब कुछ करता हुआ भी वास्तवमें कुछ नहीं करता और किसी भी कर्मके फलका भागी नहीं होता (१३ । ३१) ।

(३१) सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह है और परिणाममें अमृतकी तरह है (१८ । ३७); राजस सुख आरम्भमें अमृतकी तरह है और परिणाममें विषकी तरह है ( १८ । ३८)‒यह कैसे ?

वास्तवमें सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह नहीं है । जब मनुष्य सात्त्विक सुखकी तरफ चलता है, तब उसकी भोग, सुख-आराम, मान-बड़ाई आदि राजस सुखका और निद्रा, आलस्य, प्रमाद, खेल-तमाशा आदि तामस सुखका त्याग करना विषकी तरह मालूम देता है । परन्तु सात्त्विक सुखमें प्रवेश होनेपर परमात्मविषयक बुद्धिसे पैदा हुआ वह सुख अमृतकी तरह दीखता है । अतः सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह है ।

भोगोंको भोगनेमें, विषयोंका सेवन करनेमें पहले एक सुख मालूम देता है, एक रस आता है; अतः राजस सुख पहले अमृतकी तरह दीखता है । परन्तु भोगोंके, विषय-सेवनके परिणाममें शरीरकी, इन्द्रियोंकी शक्‍तिका ह्रास होता है, बल-बुद्धिका ह्रास होता है, शरीरमें रोग होते हैं, थकावट आती है । अतः राजस सुख परिणाममें विषकी तरह है ।

तात्पर्य है कि बुद्धिमान् मनुष्य परिणामकी तरफ देखते हैं और अज्ञानी मनुष्य परिणामकी तरफ नहीं देखते । अतः साधकको चाहिये कि वह परिणामकी तरफ ही ध्यान दे ।

(३२) सब कर्मोंका त्याग करके संयमपूर्वक एकान्तमें रहकर ध्यान करनेसे जिस तत्त्व (पद)-की प्राप्‍ति होती है (१८ । ५१‒५४), उसी तत्त्वकी प्राप्‍ति सब कर्मोंको मशीनकी तरह सदा करते हुए होती है (१८ । ५६)‒यह कैसे ?

पहली बात (१८ । ५१‒५४ में) सांख्ययोगकी है और उसमें अभ्यासकी मुख्यता है; अतः तत्परतापूर्वक अभ्यास करनेसे सांख्ययोगीको तत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है । दूसरी बात (१८ । ५६ में) भक्तियोगकी है और उसमें भगवान्‌के आश्रयकी मुख्यता है; अतः भगवान्‌का आश्रय लेनेसे भक्तको भगवत्कृपासे शाश्‍वत अविनाशी पदकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !