Listen भगवान् कहते हैं‒‘मया ततमिदं सर्वं
जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) ‘यह संसार
मेरे अव्यक्त (निराकार)-स्वरूपसे व्याप्त है ।’ जिसकी आकृति होती है, उसको
‘मूर्ति’ कहते हैं और जिसकी कोई भी आकृति नहीं होती, उसको ‘अव्यक्तमूर्ति’ कहते
हैं । जैसे भगवान् अव्यक्तमूर्ति हैं, ऐसे ही साधक भी अव्यक्तमूर्ति होता है‒‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते’
(गीता २ । २५) । साधक शरीर नहीं होता‒ऐसी बात ग्रन्थोंमें आती नहीं, पर
वास्तवमें बात ऐसी ही है । साधक भावशरीर होता है । वह योगी होता है, भोगी नहीं
होता । भोग और योगका आपसमें विरोध है । भोगी योगी नहीं
होता और योगी भोगी नहीं होता । साधक कोई भी काम
भोगबुद्धि अथवा सुखबुद्धिसे नहीं करता,
प्रत्युत योगबुद्धिसे करता है । समताका
नाम ‘योग’ है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । समता भाव है । अतः साधक भावशरीर होता है । स्थूलशरीर प्रतिक्षण बदलता है । ऐसा कोई क्षण
नहीं है, जिस क्षणमें शरीरका परिवर्तन न होता हो । परमात्माकी दो प्रकृतियाँ हैं । शरीर अपरा प्रकृति है और
जीव परा प्रकृति है । परा प्रकृति अव्यक्त है और अपरा प्रकृति व्यक्त है ।
सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त हैं, बीचमें व्यक्त हैं और अन्तमें अव्यक्त हैं[*] । स्वप्न आता है तो पहले जाग्रत् है, बीचमें स्वप्न है
और अन्तमें जाग्रत् है । जैसे मध्यमें स्वप्न है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी
मध्यमें व्यक्त हैं । यह सिद्धान्त है कि जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह
वर्तमानमें भी नहीं होता‒‘आदावन्ते च यन्नास्ति
वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका २ । ६, ४ । ३१) । प्राणी आदिमें और
अन्तमें अव्यक्त हैं; अतः बीचमें व्यक्त दीखते हुए भी वे वास्तवमें अव्यक्त ही हैं
। व्यक्तमें दो व्यक्ति भी एक (समान) नहीं होते, पर
अव्यक्तमें सब-के-सब एक हो जाते हैं । अतः अव्यक्तमें सबको परमात्माकी
प्राप्ति हो सकती है । जो सबको प्राप्त हो सकता है,
वही परमात्मा होता है । जो किसीको प्राप्त होता है, किसीको प्राप्त नहीं
होता, वह परमात्मा नहीं होता, प्रत्युत संसार होता है । इसलिये परमात्माकी प्राप्ति
अव्यक्तको होती है और अव्यक्तमें होती है । अव्यक्त ही साधक होता है । व्यक्त साधक नहीं होता । व्यक्त
तो एक क्षण भी नहीं ठहरता । ‘प्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावा
ऋते चितिशक्तेः’ ‘चितिशक्ति’ (चेतन शक्ति)-को छोड़कर सभी भाव
प्रतिक्षणपरिणामी हैं अर्थात् एक क्षण भी स्थिर रहनेवाले नहीं हैं । विचार करें,
जब हमने माँसे जन्म लिया था, उस समय हमारे शरीरका क्या रूप था और आज क्या रूप है ?
विचार करनेपर यह मानना ही पड़ेगा कि शरीर-संसार प्रतिक्षण
बदलते हैं । बदलनेका पुंजका नाम ही संसार है । जो बदलता
है, वह साधक कैसे हो सकता है ? साधक वही होता है, जो बदलता नहीं । साधकको
सिद्धि होती है तो शरीर सिद्ध नहीं होता । सिद्ध तो अशरीरी होता है । इसलिये साधकको सबसे पहले यह बात मान लेनी चाहिये कि शरीर मेरा स्वरूप
नहीं है, चाहे समझमें आये या न आये । ज्ञानमार्गमें पहले साधक समझता है, फिर वह मान लेता है ।
भक्तिमार्गमें पहले मानता है, फिर समझ लेता है । तात्पर्य है कि ज्ञानमें विवेक मुख्य है और भक्तिमें श्रद्धा-विश्वास ।
ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गमें यही फर्क है । दोनों मार्गोंमें एक-एक विलक्षणता है ।
ज्ञानमार्गवाला साधक तो आरम्भसे ही ब्रह्म हो जाता है,
ब्रह्मसे नीचे उतरता ही नहीं, पर भक्त सिद्ध हो जानेपर, परमात्माकी प्राप्ति हो
जानेपर भी ब्रह्म नहीं होता, प्रत्युत ब्रह्म ही उसके वशमें हो जाता है !
गोस्वामी महाराजने सब ग्रन्थ लिखनेके बाद अन्तमें विनयपत्रिकाकी रचना की । उसमें
वे छोटे बच्चेकी तरह सीता माँसे कहते हैं‒ कबहुँक अंब, अवसर पाइ । मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा
चलाइ ॥१॥ दीन, सब अँगहीन, छीन, मलिन, अघी अघाइ । नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥२॥ बुझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ । सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ॥३॥ जानकी जगजननि जन की किये बचन सहाइ । तरै
तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन
गाइ ॥४॥ तात्पर्य है कि सिद्ध,
भगवत्प्राप्त होनेपर भी भक्त अपनेको सदा छोटा ही समझते हैं । वास्तविक
दृष्टिसे देखा जाय तो ऐसे भक्त ही वास्तवमें ज्ञानी हैं । गीतामें भी भगवान्ने
गुणातीत महापुरुषको ज्ञानी नहीं कहा, प्रत्युत अपने भक्तको ही ज्ञानी कहा है (गीता
७। १६‒१८) । भगवान्ने ज्ञानमार्गीको ‘सर्ववित्’ (सर्वज्ञ)
भी नहीं कहा, प्रत्युत भक्तको ही ‘सर्ववित्’ कहा है‒‘स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत’ (गीता १५ । १९) ।
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