Listen जब साधकके भीतर कामना-पूर्तिका
महत्त्व नहीं रहता, तब उसके द्वारा सभी कर्म स्वतः
निष्कामभावसे होने लगते हैं और वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है । सुखकी कामना न रहनेसे उसके सभी दोष नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण दोष सुखकी कामनासे ही पैदा
होते हैं । साधकका जीवन निर्दोष होना चाहिये । सदोष
जीवनवाला साधक नहीं हो सकता । अब यह विचार करें कि दोष किसमें
रहते हैं ? संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं‒सत् और असत् । दोष न तो सत्
(अविनाशी)-में रहते हैं और न असत् (विनाशी)-में ही
रहते हैं । सत्में दोष नहीं रहते; क्योंकि सत्का कभी अभाव
नहीं होता‒‘नाभावो
विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । कामना अभावसे पैदा होती है ।
जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कोई कामना हो ही नहीं सकती और जिसमें
कामना नहीं होती, उसमें कोई दोष आ ही नहीं सकता । असत्में
भी दोष नहीं रहता, क्योंकि असत्की सत्ता ही नहीं है‒‘नासतो विद्यते
भावः’ (गीता २ । १६) । जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसमें (बिना
आधारके) दोष कहाँ रहेगा ? असत्की सत्ता न होना ही सबसे बड़ा
दोष है, जिसमें दूसरा दोष आनेकी सम्भावना ही नहीं है । सत्
और असत्के सम्बन्धमें भी दोष नहीं मान सकते; क्योंकि जैसे
प्रकाश और अन्धकारका सम्बन्ध असम्भव है, ऐसे ही सत् और असत्का
सम्बन्ध भी असम्भव है । तो फिर दोष किसमें हैं ? दोष उसमें
हैं, जिसमें कामना है । कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही
पैदा होते हैं‒‘काम एष.......’ (गीता ३ । ३७) । जब मनुष्य वस्तुके द्वारा सुख
पानेकी कामना करता है, तब लोभ पैदा होता है । जब वह व्यक्तिके द्वारा सुख पानेकी
कामना करता है, तब मोह पैदा होता है । जब वह अवस्थाके द्वारा सुख पानेकी कामना
करता है, तब परिच्छिन्नता पैदा होती है । जैसे एक बीजमें मीलोंतकका जंगल विद्यमान
है, ऐसे ही एक दोषमें सम्पूर्ण दोष विद्यमान हैं । ऐसा
कोई दोष नहीं है,जिसमें सब दोष न हों । इसलिये जबतक एक भी दोष है, तबतक साधकको सन्तोष
नहीं करना चाहिये । आंशिक दोष और आंशिक निर्दोषता (गुण) तो प्रत्येक
मनुष्यमें रहते हैं । कोई भी मनुष्य सब प्रकारसे, सब समय और सबके लिये दोषी हो
सकता ही नहीं; क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है[*] । अगर
साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग
करना होगा । अब यह विचार करें कि कामना किसमें है ? कई लोग ऐसा मानते है कि कामना मनमें रहती
है । परन्तु वास्तवमें कामना मनमें रहती नहीं है, प्रत्युत मनमें आती है‒‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’
(गीता २ । ५५) । मन एक करण
(अन्तःकरण) है । करणमें कोई कामना नहीं होती । क्या कलममें लिखनेकी कामना होती है
? मोटरमें चलनेकी कामना होती है ? नहीं होती । अगर ऐसा मानें कि कामना मनमें होती
है तो फिर कामना-अपूर्तिका दुःख भी मनको ही होना चाहिये । परन्तु कामना-अपूर्तिका
दुःख कर्ता (स्वयं)-को होता है । अतः वास्तवमें कामना करण (मन-बुद्धि)-में नहीं
होती, प्रत्युत कर्तामें होती है । करण कर्ताके अधीन होता है । परन्तु कामनाकी
पूर्ति और अपूर्तिसे होनेवाले सुख-दुःखरूप द्वन्द्वमें उलझे रहनेके कारण मनुष्यका
विवेक काम नहीं करता और वह परवश होकर कामनाको मनमें होनेवाली मान लेता है । अब यह विचार करें कि कर्ता कौन है ? अगर मन कर्ता होता तो
वह बुद्धिके अधीन होकर कार्य नहीं करता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि बुद्धि जिस
कामको न करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना छोड़ देता है और बुद्धि
जिसको करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना करने लगता है । परन्तु बुद्धि
भी स्वतन्त्र कर्ता नहीं है; क्योंकि बुद्धि भी एक करण (अन्तःकरण) है । जब मनुष्य
किसी कामनाकी पूर्तिका सुख लेता है, तभी बुद्धि उस कामको करनेका निर्णय लेती है ।
परन्तु सुखभोगका परिणाम दुःख होता है‒ऐसा समझनेवाला मनुष्य कामना-पूर्तिके सुखका त्याग कर देता है तो बुद्धि
सुखभोगमें प्रवृत्तिका निर्णय नहीं लेती, प्रत्युत उसका त्याग कर देती है । करण
कर्ताके अधीन होता है और क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त उपकारक होता है‒‘साधकतमं करणम्’ (पाणि॰ अ॰.१ । ४ । ४२) । परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है‒‘स्वतन्त्रः कर्त्ता (पाणि॰ अ॰ १ । ४ । ५४) । स्वरूप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि अगर स्वरूपमें कर्तापन
होता तो वह कभी मिटता नहीं । इसलिये गीतामें भगवान् ने स्वरूपमें कर्तापनका निषेध किया है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता
१३ । ३१) । वास्तवमें जो
भोक्ता (सुखी-दुःखी) होता है, वही कर्ता होता है ।
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