।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

सत्यकी खोज



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जब साधकके भीतर कामना-पूर्तिका महत्त्व नहीं रहता, तब उसके द्वारा सभी कर्म स्वतः निष्कामभावसे होने लगते हैं और वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है । सुखकी कामना न रहनेसे उसके सभी दोष नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण दोष सुखकी कामनासे ही पैदा होते हैं । साधकका जीवन निर्दोष होना चाहिये । सदोष जीवनवाला साधक नहीं हो सकता ।

अब यह विचार करें कि दोष किसमें रहते हैं ? संसारमें दो ही वस्तुएँ हैंसत्‌ और असत्‌ । दोष न तो सत्‌ (अविनाशी)-में रहते हैं और न असत्‌ (विनाशी)-में ही रहते हैं । सत्‌में दोष नहीं रहते; क्योंकि सत्‌का कभी अभाव नहीं होतानाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) कामना अभावसे पैदा होती है । जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कोई कामना हो ही नहीं सकती और जिसमें कामना नहीं होती, उसमें कोई दोष आ ही नहीं सकता । असत्‌में भी दोष नहीं रहता, क्योंकि असत्‌की सत्ता ही नहीं हैनासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसमें (बिना आधारके) दोष कहाँ रहेगा ? असत्‌की सत्ता न होना ही सबसे बड़ा दोष है, जिसमें दूसरा दोष आनेकी सम्भावना ही नहीं है । सत्‌ और असत्‌के सम्बन्धमें भी दोष नहीं मान सकते; क्योंकि जैसे प्रकाश और अन्धकारका सम्बन्ध असम्भव है, ऐसे ही सत्‌ और असत्‌का सम्बन्ध भी असम्भव है । तो फिर दोष किसमें हैं ? दोष उसमें हैं, जिसमें कामना है । कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही पैदा होते हैंकाम एष....... (गीता ३ । ३७) जब मनुष्य वस्तुके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब लोभ पैदा होता है । जब वह व्यक्तिके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब मोह पैदा होता है । जब वह अवस्थाके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब परिच्छिन्‍नता पैदा होती है । जैसे एक बीजमें मीलोंतकका जंगल विद्यमान है, ऐसे ही एक दोषमें सम्पूर्ण दोष विद्यमान हैं । ऐसा कोई दोष नहीं है,जिसमें सब दोष न हों । इसलिये जबतक एक भी दोष है, तबतक साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये । आंशिक दोष और आंशिक निर्दोषता (गुण) तो प्रत्येक मनुष्यमें रहते हैं । कोई भी मनुष्य सब प्रकारसे, सब समय और सबके लिये दोषी हो सकता ही नहीं; क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है[*]अगर साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग करना होगा ।

अब यह विचार करें कि कामना किसमें है ? कई लोग ऐसा मानते है कि कामना मनमें रहती है । परन्तु वास्तवमें कामना मनमें रहती नहीं है, प्रत्युत मनमें आती है‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’ (गीता २ । ५५) । मन एक करण (अन्तःकरण) है । करणमें कोई कामना नहीं होती । क्या कलममें लिखनेकी कामना होती है ? मोटरमें चलनेकी कामना होती है ? नहीं होती । अगर ऐसा मानें कि कामना मनमें होती है तो फिर कामना-अपूर्तिका दुःख भी मनको ही होना चाहिये । परन्तु कामना-अपूर्तिका दुःख कर्ता (स्वयं)-को होता है । अतः वास्तवमें कामना करण (मन-बुद्धि)-में नहीं होती, प्रत्युत कर्तामें होती है । करण कर्ताके अधीन होता है । परन्तु कामनाकी पूर्ति और अपूर्तिसे होनेवाले सुख-दुःखरूप द्वन्द्वमें उलझे रहनेके कारण मनुष्यका विवेक काम नहीं करता और वह परवश होकर कामनाको मनमें होनेवाली मान लेता है ।

अब यह विचार करें कि कर्ता कौन है ? अगर मन कर्ता होता तो वह बुद्धिके अधीन होकर कार्य नहीं करता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि बुद्धि जिस कामको न करनेका निश्‍चय करती है, मन उसको करनेकी कामना छोड़ देता है और बुद्धि जिसको करनेका निश्‍चय करती है, मन उसको करनेकी कामना करने लगता है । परन्तु बुद्धि भी स्वतन्त्र कर्ता नहीं है; क्योंकि बुद्धि भी एक करण (अन्तःकरण) है । जब मनुष्य किसी कामनाकी पूर्तिका सुख लेता है, तभी बुद्धि उस कामको करनेका निर्णय लेती है । परन्तु सुखभोगका परिणाम दुःख होता हैऐसा समझनेवाला मनुष्य कामना-पूर्तिके सुखका त्याग कर देता है तो बुद्धि सुखभोगमें प्रवृत्तिका निर्णय नहीं लेती, प्रत्युत उसका त्याग कर देती है । करण कर्ताके अधीन होता है और क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त उपकारक होता है‘साधकतमं करणम्’ (पाणि.१ । ४ । ४२) । परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है‘स्वतन्त्रः कर्त्ता (पाणि १ । ४ । ५४) । स्वरूप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि अगर स्वरूपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता नहीं । इसलिये गीतामें भगवान् ने स्वरूपमें कर्तापनका  निषेध किया है‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दुःखी) होता है, वही कर्ता होता है ।



[*] ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।

  चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

(मानस, उत्तर ११७ । १)