Listen हमारा अनुभव प्रश्न‒‘मैं’ अलग है और
‘हूँ’ अलग है‒इसका अनुभव कैसे करें ? उत्तर‒यह तो हम सबके अनुभवकी ही बात है । जाग्रत् और स्वप्नमें
तो हमारा व्यवहार होता है, पर सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-में कोई व्यवहार नहीं होता ।
कारण कि सुषुप्ति-अवस्थामें मैंपन जाग्रत् नहीं रहता, प्रत्युत अविद्यामें लीन हो
जाता है । परन्तु मैंपन लीन होनेपर भी हमारी सत्ता रहती
है । इसीलिये सुषुप्तिसे जगनेपर हम कहते हैं कि ‘मैं ऐसे सुखसे सोया कि
मेरेको कुछ भी पता नहीं था’ तो ‘कुछ भी पता नहीं
था’‒इसका पता तो था ही ! नहीं तो कैसे कहते कि कुछ भी पता नहीं था ? इससे
सिद्ध हुआ कि जाग्रत् और स्वप्नमें मैंपन जाग्रत् रहनेपर भी हमारी सत्ता है तथा
सुषुप्तिमें मैंपन जाग्रत् न रहनेपर भी हमारी सत्ता है । अतः हम मैंपनके भाव और
अभाव दोनोंके जाननेवाले हैं । अगर हम मैंपनसे अलग न होते, अहंकाररूप ही होते तो सुषुप्तिमें
मैंपनके लीन होनेपर हम भी नहीं रहते[*] । अतः मैंपनके बिना भी हमारा
होनापन सिद्ध होता है । हम अहम् (‘मैं’)-के भाव और अभाव‒दोनोंको जानते हैं, पर अपने अभावको कभी कोई नहीं जानता; क्योंकि हमारी सत्ताका
अभाव कभी होता ही नहीं‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६)
। असत् वस्तु अहम्के भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाली हमारी सत्ता
निरन्तर रहती है । जैसे, कल हम जाग्रत्में थे, रात्रिमें स्वप्न अथवा गाढ़ निद्रा
आ गयी और आज पुनः जाग्रत्में हैं तो जाग्रत् और स्वप्नमें अहम्के भावका अनुभव
होता है, पर गाढ़ निद्रामें अहम्के अभावका अनुभव होता है । जाग्रत् आदि अवस्थाएँ
निरन्तर नहीं रहतीं‒यह भी हमारा अनुभव है । अतः हमारा
स्वरूप अहम् तथा अवस्थाओंके भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाला अलुप्त प्रकाश है ।
इसीलिये हम कहते हैं कि कल जो मैं जागता था, वही आज जागता हूँ और वही स्वप्न तथा सुषुप्तिमें
था । तात्पर्य है कि तीनों अवस्थाओंमें हमें अखण्डरूपसे अपनी सत्ताका अनुभव होता
है । इसी तरह हम किसी भी योनिमें जायँ, हमारी अहंता तो बदलती है, पर हम नहीं बदलते
। जैसे पहले हम कहते थे कि ‘मैं बालक हूँ’, फिर हम कहने लगे कि ‘मैं जवान हूँ’ और
अब हम कहते हैं कि ‘मैं वृद्ध हूँ’ तो बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था तो अलग-अलग
हुए, पर उनमें हमारी सत्ता एक ही रही अर्थात् अवस्थाओंके
बदलनेपर भी हमारी सत्ता नहीं बदली । ऐसे ही जीव मनुष्यशरीरमें आनेपर ‘मैं
मनुष्य हूँ’ ऐसा मानता है, देवता बननेपर ‘मैं देवता हूँ’ ऐसा मानता है, पशु बननेपर
‘मैं पशु हूँ’ ऐसा मानता है, भूत-प्रेत बननेपर ‘मैं भूत-प्रेत हूँ’ ऐसा मानता है,
आदि-आदि । इससे यह सिद्ध होता है कि देहान्तरकी प्राप्ति
होनेपर अहंता तो बदल जाती है, पर हमारी सत्ता नहीं बदलती । इस प्रकार सुषुप्तिमें अहंकारके अभावका और अवस्थाओं तथा
देहान्तरकी प्राप्तिमें अहंकारके परिवर्तनका अनुभव तो सबको होता है, पर अपनी
सत्ताके अभाव और परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको हुआ नहीं, हो सकता नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि
अहंकार (मैंपन) हमारा स्वरूप नहीं है । हमारेसे गलती यह होती है कि हम अपने
इस अनुभवका आदर नहीं करते, इसको महत्त्व नहीं देते । अगर
हम इस अनुभवको महत्त्व दें तो अनादिकालसे अहंकारके साथ अपनेपनके जो संस्कार भीतर
पड़े हैं, वे संस्कार अपने-आप कम होते-होते मिट जायँगे । हमारा स्वरूप हमारा स्वरूप सत्तामात्र है । उस सत्तामें
मैं-तू-यह-वहका भेद नहीं है । मैं, तू, यह और वह‒ये चारों प्राकृत हैं और
स्वरूप प्रकृतिसे अतीत है । ये चार हैं और सत्ता एक है । ये चारों अनित्य
हैं और सत्ता नित्य है । ये चारों सापेक्ष हैं और सत्ता निरपेक्ष है । ये चारों
प्रकाश्य हैं और सत्ता प्रकाशक है । ये चारों आधेय हैं और सत्ता आधार है । ये
चारों जाननेमें आनेवाले हैं और सत्ता जाननेवाली है । इन
चारोंका परिवर्तन तथा अभाव होता है और सत्ताका कभी परिवर्तन तथा अभाव नहीं होता ।
इसलिये इन चारोंके बदलनेका, आने-जानेका, भाव-अभावका, उत्पन्न-नष्ट होनेका तो
अनुभव होता है, पर अपने बदलनेका, आने-जानेका, भाव-अभावका, उत्पन्न-नष्ट होनेका
अनुभव कभी किसीको नहीं होता । मैं, तू, यह और वह‒ये चारों तो असत्, जड़ और
दुःखरूप हैं, पर चिन्मय सत्ता सत्, चित् और आनन्दरूप है । इस चिन्मय सत्तामें
सबकी स्वतः निरन्तर स्थिति है । सांसारिक स्थूल व्यवहार करते हुए भी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । उसमें कभी
किंचिन्मात्र भी कोई विकार, हलचल, अशान्ति, उद्वेग नहीं होता । कारण कि सत्तामें न
अहंता (मैंपन) है, न ममता (मेरापन) है । वह सत्ता ज्ञप्तिमात्र, ज्ञानमात्र है ।
इस ज्ञानका ज्ञाता कोई नहीं है अर्थात् ज्ञान है, पर ज्ञानी नहीं है । जबतक ज्ञानी है, तबतक एकदेशीयता, व्यक्तित्व है । एकदेशीयता
मिटनेपर एकमात्र निर्विकार, निरहंकार, सर्वदेशीय सत्ता शेष रहती है, जो सबको स्वतः
प्राप्त है[†] ।
[*]
सुषुप्तिमें मैंपन मिटता नहीं है, प्रत्युत अविद्यामें लीन
होता है और निद्राके मिटनेपर (जाग्रत्-अवस्थामें आनेपर) वह पुनः प्रकट हो जाता है
। परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर मैंपन मिट जाता है । [†]
वास्तवमें सत्ताका वर्णन शब्दोंसे
नहीं कर सकते । उसको असत्की अपेक्षासे सत्, विकारकी अपेक्षासे निर्विकार,
अहंकारकी अपेक्षासे निरहंकार, एकदेशीयकी अपेक्षासे सर्वदेशीय कह देते हैं, पर
वास्तवमें उस सत्तामें सत्, निर्विकार आदि शब्द लागु होते ही नहीं । कारण कि सभी शब्दोंका
प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, जबकि सत्ता निरपेक्ष और
प्रकृतिसे अतीत है । इसलिये गीतामें आया है कि उस तत्त्वको न सत् कहा जा सकता है
और न असत् ही कहा जा सकता है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३
। १२) । |