Listen मनुष्यको भगवत्प्राप्ति बहुत सुगमतासे तथा जल्दी हो सकती है
। परन्तु संसारकी आसक्तिके कारण वह बहुत कठिन तथा देरीसे होनेवाली प्रतीत होती है ।
वास्तवमें भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत
संसारकी आसक्तिको छोड़ना कठिन है । इसमें भी गहराईसे विचार करें तो आसक्तिको छोड़ना भी
कठिन नहीं है । कारण कि कोई भी आसक्ति निरन्तर नहीं रहती । आसक्ति मुख्यरूपसे दो ही चीजोंकी होती है‒भोगकी और संग्रहकी
। परन्तु इनकी आसक्ति एक दिन भी टिकती नहीं । उसमें निरन्तर रहनेकी ताकत ही नहीं है
। आसक्ति उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें होती है ।
यह नियम है कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे मनुष्यकी तृप्ति कभी हो ही नहीं सकती । नाशवान्के द्वारा अविनाशीकी तृप्ति
कैसे होगी ? नाशवान्की आसक्ति अविनाशी कैसे होगी ? हो ही नहीं सकती । आसक्ति आगन्तुक दोष है । इसको मिटानेका उपाय है‒‘मेरा भगवान्में
ही प्रेम हो जाय’ इस एक इच्छाको बढ़ायें । रात-दिन एक ही लगन लग जाय कि मेरा
प्रभुमें प्रेम कैसे हो ? एक प्रेमके सिवाय और कोई इच्छा न रहे, दर्शनकी इच्छा भी
नहीं ! इस भगवत्प्रेमकी इच्छामें बड़ी विलक्षण शक्ति है । इस इच्छाको बढ़ायें
तो बहुत जल्दी सिद्धि हो जायगी । इस इच्छाको इतना बढ़ायें कि अन्य सब इच्छाएँ गल जायँ । केवल
एक ही लालसा रह जाय कि ‘मेरा भगवान्में प्रेम हो जाय’ तो इसकी सिद्धि होनेमें आठ
पहर भी नहीं लगेंगे ! मेरेको भगवान् मीठे लगें, मेरा उनके चरणोंमें
प्रेम हो जाय‒यह वास्तवमें हमारी आवश्यकता है । एक आवश्यकता होती है और एक इच्छा (कामना) होती है ।
संसारकी इच्छाको कामना, वासना, तृष्णा, आशा आदि नामोंसे कहते हैं । परमात्माकी
इच्छाको आवश्यकता, जरूरत, माँग, भूख आदि नामोंसे कहते हैं । तात्पर्य है कि नाशवान्की तरफ खिंचाव होना इच्छा है और अविनाशीकी तरफ खिंचाव
होना आवश्यकता है । इच्छा मनुष्यको भोग तथा संग्रहमें लगाती है और आवश्यकता
सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें लगाती है । इच्छाएँ कभी पूरी
होती ही नहीं और आवश्यकता पूरी होती ही है‒यह नियम
है । हमने जड़ताके साथ जितना
सम्बन्ध मान रखा है, उतनी ही कमी है । उस कमीकी पूर्तिके लिये ही आवश्यकता है । जड़ता (नाशवान्)-का सम्बन्ध सर्वथा
छूटते ही इच्छाएँ नष्ट हो जायँगी और आवश्यकता पूरी हो जायगी । सम्पूर्ण इच्छाएँ आजतक
किसीकी भी पूरी नहीं हुईं । कितना ही
धन मिल जाय, कितनी ही सम्पत्ति मिल जाय, कितना ही वैभव मिल जाय, कितने ही भोग मिल
जायँ, यहाँतक कि अनन्त ब्रह्माण्ड मिल जायँ तो भी इच्छा कभी पूरी नहीं होगी, बाकी
रहेगी ही । परन्तु आवश्यकता पूरी ही होती है, कभी मिटती नहीं । किसी भी वस्तुकी कोई इच्छा या आसक्ति नहीं रहेगी तो आवश्यकता
निःसन्देह पूरी हो जायगी । हमारी आवश्यकता परमात्मतत्त्वकी है । इस आवश्यकताको
हम कभी भूलें नहीं, इसको हरदम जाग्रत् रखें । नींद आ जाय तो आने दें, पर
अपनी तरफसे आवश्यकताकी भूली मत होने दें । भगवान्की प्राप्ति हो जाय, उनमें
प्रेम हो जाय‒इस प्रकार आठ पहर इसको जाग्रत् रखें तो काम पूरा हो जायगा ! बीचमें दूसरी इच्छाएँ होती रहेंगी तो ज्यादा समय लग जायगा ।
दूसरी इच्छा पैदा हो तो जबान हिला दें, सिर हिला दें कि नहीं-नहीं, मेरी कोई इच्छा
नहीं ! अगर दूसरी इच्छा न रहे तो आठ पहर भी नहीं लगेंगे ।
परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है; क्योंकि परमात्मा कहाँ
नहीं हैं ? कब नहीं हैं ? किसमें नहीं है ? ऐसी कोई वस्तु नहीं बता सकते, कोई काल
नहीं बता सकते, कोई देश नहीं बता सकते, कोई स्थान नहीं बता सकते, कोई व्यक्ति नहीं
बता सकते, कोई अवस्था नहीं बता सकते, कोई परिस्थिति नहीं बता सकते, जिसमें
परमात्मा न हों । केवल उनकी इच्छाकी कमी है, और कुछ कमी नहीं है । केवल एक इच्छा
हो जाय कि परमात्मा कैसे मिलें ? वे कैसे हैं‒यह देखनेकी
जरूरत नहीं है । केवल उनकी आवश्यकताकी कभी विस्मृति न हो । उनकी एक इच्छा, एक
लालसा करनेमें तो समय लगेगा, पर परमात्माकी प्राप्ति होनेमें समय नहीं लगेगा ।
लोग पागल कहें, कुछ भी कहें, परवाह न करें । केवल एक ही लालसा हो जायगी तो अन्य
सभी इच्छाएँ मिट जायँगी । अन्य इच्छाएँ मिटते ही वह एक लालसा पूरी हो जायगी । |