।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, बुधवार

साधकोपयोगी अमूल्य बातें



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जिस साधकको कर्मयोगके मार्गपर चलना हो, उसको पहले यह मान लेना चाहिये कि ‘मैं योगी हूँ’ । जिसको ज्ञानयोगके मार्गपर चलना हो, उसको पहले यह धारणा कर लेनी चाहिये कि ‘मैं जिज्ञासु हूँ’ । जिसको भक्तियोगके मार्गपर चलना हो, उसको पहले यह मान लेना चाहिये कि ‘मैं भक्त हूँ’ । तात्पर्य है कि साधकको योगी होकर या जिज्ञासु होकर अथवा भक्त होकर साधन करना चाहिये ।

जो योगी होकर साधन करता है, उसको जबतक योग (समता)-की प्राप्‍ति न हो, तबतक सन्तोष नहीं करना चाहिये । ‘योग’ नाम समताका है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व योगी बननेमें बाधक हैं । अतः साधकका उद्देश्य राग-द्वेष मिटानेका होना चाहिये । कर्म दो उद्देश्यसे किये जाते हैं‒फलप्राप्‍तिके लिये और फलत्यागके लिये । जो फलप्राप्‍तिके उद्देश्यसे कर्म करता है, वह ‘कर्मी’ होता है और जो फलत्यागके उद्देश्यसे कर्म करता है, वह ‘कर्मयोगी’ होता है । इसलिये कर्मयोगके साधकको पहले ही यह धारणा कर लेनी चाहिये कि मैं योगी हूँ; अतः फल-प्राप्‍तिके लिये कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है । इस प्रकार फलासक्तिका त्याग करके उसको अपना कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये[*] उसके सामने अनुकूल या प्रतिकूल जो भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करना चाहिये, भोग नहीं करना चाहिये । सुखी-दुःखी, राजी-नाराज होना परिस्थितिका भोग है । अनुकूल परिस्थितिमें दूसरोंकी सेवा करना और प्रतिकूल परिस्थितिमें सुखेच्छाका त्याग करना उसका सदुपयोग है । सदुपयोग करनेसे अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियाँ राग-द्वेष मिटानेमें हेतु हो जाती हैं ।

कर्ममात्रका सम्बन्ध ‘पर’ के साथ है, ‘स्व’ के साथ नहीं है । कारण कि ‘स्व’ अर्थात् स्वयंमें कभी अभाव नहीं होता । अभाव न होनेके कारण स्वयंको कुछ नहीं चाहिये । जब कुछ नहीं चाहिये तो फिर अपने लिये कोई कर्म करना बनता ही नहीं । दूसरी बात, जिन करणोंसे कर्म किये जाते हैं, वे प्रकृतिके हैं । प्रकृतिके साथ स्वयंका कोई सम्बन्ध न होनेसे स्वयंपर अपने लिये कुछ भी करना लागू होता ही नहीं । इसलिये जो मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, वह कर्मोंसे बँध जाता है‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ (गीता ३ । ९) । परन्तु जो अपने लिये कुछ न करके दूसरोंके लिये ही सब कर्म करता है, वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है‒‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (गीता ४ । २३) । निष्कामभावपूर्वक दूसरेके लिये कर्म करनेका नाम ‘यज्ञार्थ कर्म’ है । यज्ञार्थ कर्म करनेवालेको परिणाममें यज्ञशेषके रूपमें ‘योग’ की प्राप्‍ति हो जाती है‒

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।

(गीता ३ । १३)

यज्ञशिष्टामृतभुजो   यान्ति  ब्रह्म  सनातनम् ।

(गीता ४ । ३१)

मैं योगी हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ, मैं साधक हूँ‒यह साधकका स्थूलशरीर नहीं है, प्रत्युत भावशरीर है । स्थूलशरीर योगी, जिज्ञासु अथवा भक्त नहीं होता । अगर साधकमें पहले ही यह भाव हो जाय कि ‘मैं संसारी नहीं हूँ, मैं तो साधक हूँ’ तो उसका साधन बड़ा तेज चलेगा । जैसे, विवाहके समय जब लड़का ‘दूल्हा’ बन जाता है, तब उसकी चाल बदल जाती है । कारण कि उसकी अहंतामें यह बात आ जाती है कि ‘मैं तो दूल्हा हूँ’ । इसी तरह साधककी अहंतामें भी ‘मैं साधक हूँ’‒यह बात आनी चाहिये । अगर अहंतामें ‘मैं संसारी हूँ’‒यह बात बैठी रहेगी तो संसारका काम बढ़िया होगा[†], साधन बढ़िया नहीं होगा । जो बात अहंतामें आ जाती है, उसको करना बड़ा सुगम हो जाता है । इसलिये साधकके लिये अपनी अहंताको बदलना बहुत आवश्यक है । जो सेवक, जिज्ञासु या भक्त बनकर साधन नहीं करता, उसका किया हुआ साधन निरर्थक तो नहीं जाता, पर उसकी सिद्धि वर्तमानमें नहीं होती । अतः मैं साधक हूँ, मैं कर्मयोगी हूँ, मैं ज्ञानयोगी हूँ अथवा मैं भक्तियोगी हूँ‒ऐसा मानकर साधन करना चाहिये ।

कर्मयोगका एक नाम ‘सेवा’ है । इसलिये कर्मयोगके साधकको ‘मैं सेवक हूँ’ यह बात अहंतामें लानी चाहिये । ‘मैं सेवक हूँ’‒इस अहंतासे यह बात पैदा होगी कि मेरा काम सेवा करना है, कुछ चाहना मेरा काम नहीं है । साधकमात्रके लिये यह खास बात है कि मेरेको संसारसे कुछ लेना नहीं है, मेरेको स्वार्थी, भोगी नहीं बनना है । संसारका सुख लेनेके लिये मैं नहीं हूँ । जो सुख चाहता है, वह सेवक नहीं होता[‡] कोई-सा भी साधक हो, उसको पहलेसे ही सुखको तिलांजलि देनी पड़ेगी । साधकका काम साधन करना है, सुख भोगना नहीं । जो भोगी होता है, वह साधक नहीं होता । भोगी रोगी होता है, योगी नहीं होता । भोगीको दुःख पाना ही पड़ता है । वह दुःखसे कभी बच सकता ही नहीं ।



[*] तस्मादसक्तः सततं   कार्यं कर्म समाचर ।

   असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्‍नोति पूरुषः ॥ (गीता ३ । १९)


[†] संसारका बढ़िया काम भी परिणाममें घटिया ही होता है ।


[‡] सेवक  सुख   चह  मान  भिखारी ।

   ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥

   लोभी   जसु   चह  चार  गुमानी ।

   नभ  दुहि  दूध  चहत  ए  प्रानी ॥

                (मानस, अरण्यकाण्ड १७ । ८)