Listen एक सत्तामात्रके सिवाय और कुछ नहीं है । उस सत्तामें न ‘मैं’ है, न
‘तू’ है, न ‘यह’ है और न ‘वह’ है । संसारकी सत्ता हमारी मानी हुई है, वास्तवमें
है नहीं । सत्तामात्र ‘है’
है और संसार ‘नहीं’
है । ‘नहीं’
नहीं ही है और ‘है’
है ही है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । ‘नहीं’
का अभाव स्वतः-स्वाभाविक है और ‘है’
का भाव स्वतः-स्वाभाविक है । वह ‘है’ ही हमारा साध्य है । जो ‘नहीं’
है, वह हमारा साध्य कैसे हो सकता है ? उस ‘है’ का अनुभव करना नहीं है, वह तो अनुभवरूप ही है । तात्त्विक दृष्टिसे देखें तो साधक वह है, जो साध्यके बिना नहीं रह सकता और साध्य वह है, जो साधकके बिना नहीं रह सकता । साधक साध्यसे अलग नहीं हो सकता और साध्य साधकसे
अलग नहीं हो सकता । कारण कि साधक और साध्यकी सत्ता एक ही है । ‘है’ से अलग कोई हो सकता ही नहीं । इसलिये अगर हम साधक हैं तो साध्यकी प्राप्ति तत्काल होनी चाहिये । साधक वही है, जो साध्यके बिना अन्यकी सत्ता ही स्वीकार न करे ।
वह साध्यके सिवाय किसीका आश्रय न ले, न पदार्थका, न क्रियाका । जो साध्यके बिना रहे,
वह साधक कैसा और जो साधकके बिना रहे,
वह साध्य कैसा ? जो माँके बिना रह सके,
वह बच्चा कैसा और जो बच्चेके बिना रह सके,
वह माँ कैसी ? हमारा साध्य हमारे बिना नहीं रह सकता,
रहनेकी ताकत ही नहीं;
क्योंकि मूलमें सत्ता एक ही है । जैसे समुद्र और लहरमें एक ही जलतत्त्वकी सत्ता है,
ऐसे ही साधक और साध्यमें एक ही सत्ता है । लहररूपसे केवल मान्यता है । जबतक लहररूप शरीर (जड़ता)-से सम्बन्ध है,
तबतक साधक है । जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधक नहीं रहता, केवल साध्य रहता है । अगर साधक साध्यके बिना रहता है तो समझना चाहिये कि
वह साध्यके सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह)-का भी साधक है । उसने अपने मनमें दूसरेको भी सत्ता दी है । अगर साध्य साधकके बिना रहता है तो समझना चाहिये कि साध्यके सिवाय साधकका अन्य भी कोई साध्य है अर्थात् भोग तथा संग्रह भी साध्य है । मनमें नाशवान्का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनमें कमी है । साधकपनमें जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्यसे दूरी रहती है । पूर्ण साधक होनेपर साध्यकी प्राप्ति हो जाती है । शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये माननेसे
ही साधकको साध्यकी अप्राप्ति दीखती है । साध्यके सिवाय अन्यकी
सत्ता स्वीकार न करना ही उसकी प्राप्तिका बढ़िया उपाय है । इसलिये साधककी दृष्टि
केवल इस तरफ रहनी चाहिये कि संसार नहीं है । संसारका पहले भी अभाव था, बादमें भी अभाव हो जायगा और बीचमें भी वह प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है । संसारकी
स्थिति है ही नहीं । उत्पत्ति-प्रलयकी धारा ही स्थितिरूपसे
दीखती है । साधकके लिये साध्यमें विश्वास और प्रेम होना बहुत
जरूरी है । विश्वास और प्रेम उसी साध्यमें होना चाहिये, जो
विवेक-विरोधी न हो । मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तुमें विश्वास और प्रेम करना विवेक-विरोधी
है । विश्वास और प्रेम‒दोनोंमें
कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे । विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप
हो जायगा । अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वासमें कमी है अर्थात् साध्य
(परमात्मा)-के विश्वासके साथ संसारका विश्वास भी है । पूर्ण
विश्वास होनेपर एक सत्ताके सिवाय अन्य (संसार)-की सत्ता ही नहीं रहेगी । साध्यमें
विश्वासकी कमी होगी तो साधनमें भी विश्वासकी कमी होगी अर्थात् साध्यके सिवाय अन्य
इच्छाएँ भी होंगी । जितनी दूसरी इच्छा है, उतनी
ही साधनमें कमी है ।
सम्पूर्ण इच्छाओंके मूलमें एक परमात्माकी ही इच्छा
है । उसीपर सम्पूर्ण इच्छाएँ टिकी
हुई हैं । हमसे भूल यह होती है कि अपनी इस स्वाभाविक (परमात्माकी)
इच्छाको हम शरीरकी सहायतासे पूरी करना चाहते हैं । वास्तवमें परमात्माकी प्राप्तिमें शरीर अथवा संसारकी किंचिन्मात्र
भी जरूरत नहीं है । परमात्मा अपनेमें हैं;
अतः कुछ न करनेसे ही उनका अनुभव होगा । कुछ करनेके लिये तो शरीरकी
आवश्यकता है, पर कुछ न करनेके लिये शरीरकी क्या आवश्यकता है ? कुछ देखनेके लिये नेत्रोंकी आवश्यकता है,
पर कुछ न देखनेके लिये नेत्रोंकी क्या आवश्यकता है ? हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि
इनको करनेसे कुछ न करनेकी सामर्थ्य आती है । |