।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअनित्य वस्तुशरीर आदिको लेकर जो शोक होता है, उसकी निवृत्तिके लिये कहते हैं

सूक्ष्म विषय१४-१५ श्‍लोकविषय-पदार्थोंकी अनित्यता और उनसे व्यथित न होनेकी महिमा ।

       मात्रास्पर्शास्तु  कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।

       आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥

अर्थ‒हे कुन्तीनन्दन ! इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख दुःख देनेवाले तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं । हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! उनको तुम सहन करो ।

कौन्तेय = हे कुन्तीनन्दन  !

अनित्याः = अनित्य हैं ।

मात्रास्पर्शाः = इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ)

भारत = हे भरतवशोद्भव अर्जुन !

तु = तो

तान् = उनको (तुम)

शीतोष्णसुखदुःखदाः = शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं (तथा)

तितिक्षस्व = सहन करो ।

आगमापायिनः = आने-जानेवाले (और)

 

व्याख्या‒[ यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवें-पंद्रहवें श्‍लोकोंसे पहले (ग्यारहवेंसे तेरहवें श्‍लोकतक) और आगे (सोलहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक) देही और देहइन दोनोंका ही प्रकरण है । फिर बीचमें मात्रास्पर्शके ये दो श्‍लोक (प्रकरणसे अलग ) कैसे आये ? इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने सम्पूर्ण जीवोंके नित्य-स्वरूपको बतानेके लिये किसी कालमें मैं नहीं था, ऐसी बात नहीं है’‒ऐसा कहकर अपनेको उन्हींकी पंक्तिमें रख दिया, ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थोंको अनित्य, विनाशी, परिवर्तनशील बतानेके लिये भगवान्‌ने यहाँ मात्रास्पर्शकी बात कही है । ]

तुनित्य-तत्त्वसे देहादि अनित्य वस्तुओंको अलग बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है ।

मात्रास्पर्शाःजिनसे माप-तौल होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान होता है, उन (ज्ञानके साधन) इन्द्रियों और अन्तःकरणका नाम मात्रा है । मात्रासे अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका संयोग होता है, उनका नाम स्पर्श है । अतः इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका ज्ञान होता है, ऐसे सृष्‍टिके मात्र पदार्थ मात्रास्पर्शाः हैं ।

यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे केवल पदार्थ ही क्यों लिये जायँ, पदार्थोंका सम्बन्ध क्यों न लिया जाय ? अगर हम यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे केवल पदार्थोंका सम्बन्ध ही लें, तो उस सम्बन्धको आगमापायिनः (आने-जानेवाला) नहीं कह सकते; क्योंकि सम्बन्धकी स्वीकृति केवल अन्तःकरणमें न होकर स्वयंमें (अहम्‌में) होती है । स्वयं नित्य है, इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है, वह भी नित्य-जैसी ही हो जाती है । स्वयं जबतक उस स्वीकृतिको नहीं छोड़ता, तबतक वह स्वीकृति ज्यों-की-त्यों बनी रहती है अर्थात् पदार्थोंका वियोग हो जानेपर भी, पदार्थोंके न रहनेपर भी, उन पदार्थोंका सम्बन्ध बना रहता है ।

यह माना हुआ सम्बन्ध केवल अस्वीकृतिसे अर्थात् अपनेमें न माननेसे ही मिटता है । अपने सत्त्वरूपमें सम्बन्ध है नहीं, हुआ नहीं और हो सकता भी नहीं; परन्तु माने हुए सम्बन्धकी अस्वीकृतिके बिना कितना ही त्याग किया जाय, कितना ही कष्‍ट भोगा जाय, शरीरमें कितना ही परिवर्तन हो जाय, कितनी ही तपस्या की जाय, तो भी माना हुआ सम्बन्ध मिटता नहीं, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों ही बना रहता है ।

 जैसे, कोई स्‍त्री विधवा हो गयी है अर्थात् उसका पतिसे सदाके लिये वियोग हो गया है, पर पचास वर्षके बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुककी स्‍त्री है, तो उसके कान खड़े हो जाते हैं ! इससे सिद्ध हुआ कि सम्बन्धी (पति)-के न रहनेपर भी उसके साथ माना हुआ सम्बन्ध सदा बना रहता है । इस दृष्‍टिसे उस सम्बन्धको आने-जानेवाला कहना बनता नहीं; अतः यहाँ मात्रास्पर्शाः पदसे पदार्थोंका सम्बन्ध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं ।

शीतोष्णसुखदुःखदाःयहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं । अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय (त्वचा)-के विषय हो जायँगे, जो कि एकदेशीय हैं । अतः शीतका अर्थ अनुकूलता और उष्णका अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है ।

मात्र पदार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले हैं अर्थात् जिसको हम चाहते हैं, ऐसी अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, देश, काल आदिके मिलनेसे सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते, ऐसी प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके मिलनेसे दुःख होता है । यहाँ अनुकूलता-प्रतिकूलता कारण हैं और सुख-दुःख कार्य हैं । वास्तवमें देखा जाय तो इन पदार्थोंमें सुख-दुःख देनेकी सामर्थ्य नहीं है । मनुष्य इनके साथ सम्बन्ध जोड़कर इनमें अनुकूलता-प्रतिकूलताकी भावना कर लेता है, जिससे ये पदार्थ सुख-दुःख देनेवाले दीखते हैं । अतः भगवान्‌ने यहाँ सुखदुःखदाः कहा है ।

आगमापायिनःमात्र पदार्थ आदि-अन्तवाले, उत्पत्ति-विनाशशील और आने-जानेवाले हैं । वे ठहरनेवाले नहीं हैं; क्योंकि वे उत्पत्तिसे पहले नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे । इसलिये वे आगमापायी हैं ।

अनित्याःअगर कोई कहे कि वे उत्पत्तिसे पहले और विनाशके बाद भले ही न हों, पर मध्यमें तो रहते ही होंगे ? तो भगवान् कहते हैं कि अनित्य होनेसे वे मध्यमें भी नहीं रहते । वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । इतनी तेजीसे बदलते हैं कि उनको उसी रूपमें दुबारा कोई देख ही नहीं सकता; क्योंकि पहले क्षण वे जैसे थे, दूसरे क्षण वे वैसे रहते ही नहीं । इसलिये भगवान्‌ने उनको अनित्याः कहा है ।

केवल वे पदार्थ ही अनित्य, परिवर्तनशील नहीं हैं, प्रत्युत जिनसे उन पदार्थोंका ज्ञान होता है, वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी परिवर्तनशील हैं । उनके परिवर्तनको कैसे समझें ? जैसे दिनमें काम करते-करते शामतक इन्द्रियों आदिमें थकावट आ जाती है, और सबेरे तृप्‍तिपूर्वक नींद लेनेपर उनमें जो ताजगी आयी थी, वह शामतक नहीं रहती । इसलिये पुनः नींद लेनी पड़ती है, जिससे इन्द्रियोंकी थकावट मिटती है और ताजगीका अनुभव होता है । जैसे जाग्रत्-अवस्थामें प्रतिक्षण थकावट आती रहती है, ऐसे ही नींदमें प्रतिक्षण ताजगी आती रहती है । इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों आदिमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है ।

[ यहाँ मात्र पदार्थोंको स्थूलरूपसे आगमापायिनः और सूक्ष्मरूपसे अनित्याः कहा गया है । इनको अनित्यसे भी सूक्ष्म बतानेके लिये आगे सोलहवें श्‍लोकमें इनको असत् कहेंगे और पहले जिस नित्य-तत्त्वका वर्णन हुआ है, उसको सत् कहेंगे । ]

तांस्तितिक्षस्वये जितने मात्रास्पर्श अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं, उनके सामने आनेपर यह अनुकूल है और यह प्रतिकूल है’‒ऐसा ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उनको लेकर अन्तःकरणमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार पैदा होना ही दोषी है । अतः अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होनेपर भी राग-द्वेषादि विकारोंको पैदा न होने देना अर्थात् मात्रास्पर्शोंमें निर्विकार रहना ही उनको सहना है । इस सहनेको ही भगवान्‌ने तितिक्षस्व कहा है ।

दूसरा भाव यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिकी क्रियाओंका, अवस्थाओंका आरम्भ और अन्त होता है तथा उनका भाव और अभाव होता है । वे क्रियाएँ, अवस्थाएँ तुम्हारेमें नहीं हैं; क्योंकि तुम उनको जाननेवाले हो, उनसे अलग हो । तुम स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हो । अतः उन क्रियाओंमें, अवस्थाओंमें तुम निर्विकार रहो । इनमें निर्विकार रहना ही तितिक्षा है ।

परिशिष्‍ट भावजैसे शरीर कभी एकरूप नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है, ऐसे ही इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जिनका ज्ञान होता है, वे सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थ (मात्र प्रकृति और प्रकृतिका कार्य) भी कभी एकरूप नहीं रहते, उनका संयोग और वियोग होता रहता है । जिन पदार्थोंको हम चाहते हैं, उनके संयोगसे सुख होता है और वियोगसे दुःख होता है । जिन पदार्थोंको हम नहीं चाहते, उनके वियोगसे सुख होता है और संयोगसे दुःख होता है । पदार्थ भी आने-जानेवाले तथा अनित्य हैं । ऐसे ही जिनसे पदार्थोंका ज्ञान होता है, वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी आने-जानेवाले तथा अनित्य हैं और पदार्थोंसे होनेवाला सुख-दुःख भी आने-जानेवाला तथा अनित्य है । परन्तु स्वयं सदा ज्यों-का-त्यों रहनेवाला, निर्विकार तथा नित्य है । अतः उनको सह लेना चाहिये । अर्थात् उनके संयोग-वियोगको लेकर सुखी-दुःखी नहीं होना चाहिये, प्रत्युत निर्विकार रहना चाहिये । सुख और दुःख दोनों अलग-अलग होते हैं, पर उनको देखनेवाला एक ही होता है और उन दोनोंसे अलग (निर्विकार) होता है । परिवर्तनशीलको देखनेसे स्वयं (स्वरूप)-की अपरिवर्तनशीलता (निर्विकारता)-का अनुभव स्वतः होता है ।

यहाँ शीतशब्द अनुकूलताका और उष्णशब्द प्रतिकूलताका वाचक है । तात्पर्य है कि ज्यादा सर्दी (ठण्ड) पड़नेसे भी वृक्ष सूख जाता है और ज्यादा गर्मी पड़नेसे भी वृक्ष सूख जाता है; अतः परिणाममें सर्दी और गर्मीदोनों एक ही हैं । इसी तरह अनुकूलता और प्रतिकूलता भी एक ही हैं । इसलिये भगवान् इन दोनोंको ही सहनेकी अर्थात् इनसे ऊँचा उठनेकी आज्ञा देते हैं ।

सुख-दुःख, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि आने-जानेवाले, बदलनेवाले हैं, पर स्वयं (स्वरूप) ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है । साधकसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह बदलनेवाली दशाको देखता है, पर स्वयंको नहीं देखता ।

दशाको स्वीकार करता है, पर स्वयंको स्वीकार नहीं करता । दशा पहले भी नहीं थी और पीछे भी नहीं रहेगी; अतः बीचमें दीखनेपर भी वह है नहीं । परन्तु स्वयंमें आदि, अन्त और मध्य है ही नहीं । दशा कभी एकरूप रहती ही नहीं और स्वयं कभी अनेकरूप होता ही नहीं । जो दीखता है, वह भी दशा है और जो देखनेवाली (बुद्धि) है, वह भी दशा है । जाननेमें आनेवाली भी दशा है, और जाननेवाली भी दशा है । स्वयंमें न दीखनेवाला है, न देखनेवाला है; न जाननेमें आनेवाला है, न जाननेवाला है । ये दीखनेवाला-देखनेवाला आदि सब दशाके अन्तर्गत हैं । दीखनेवाला-देखनेवाला तो नहीं रहेंगे, पर स्वयं रहेगा; क्योंकि दशा तो मिट जायगी, पर स्वयं रह जायगा । तात्पर्य है कि दीखनेवाले (दृश्य) के साथ सम्बन्ध होनेसे ही स्वयं देखनेवाला (द्रष्‍टा) कहलाता है । अगर दीखनेवालेके साथ सम्बन्ध न रहे तो स्वयं रहेगा, पर उसका नाम देखनेवालानहीं रहेगा । इसी तरह शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे ही स्वयं (चिन्मय सत्ता) शरीरीकहलाता है । अगर शरीरके साथ सम्बन्ध न रहे तो स्वयं रहेगा, पर उसका नाम शरीरीनहीं रहेगा (गीतातेरहवें अध्यायका पहला श्‍लोक) । अतः भगवान्‌ने केवल मनुष्योंको समझानेके लिये ही शरीरीनाम कहा है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒संसारकी समस्त परिस्थितियाँ आने-जानेवाली, मिलने-बिछुड़नेवाली हैं । मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थिति बनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये । परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दुःखदायी परिस्थिति आती ही है‒यह प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभुका मंगलमय विधान है । अतः साधकको प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्‍नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिये ।

निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओंमें स्थिरता देखना भूल है । इस भूलसे ही ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है । देखनेमें वस्तु मुख्य दीखती है, क्रिया गौण । पर वास्तवमें क्रिया-ही-क्रिया है, वस्तु है ही नहीं !

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