Listen सम्बन्ध‒राग-द्वेषके वशमें होकर क्या करना
चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये‒इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं । सूक्ष्म
विषय‒स्वघर्म और परधर्मका वर्णन । श्रेयान्
स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे
निधनं श्रेयः
परधर्मो
भयावहः ॥ ३५ ॥ अर्थ‒अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके
धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है । अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक
है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है ।
व्याख्या‒‘श्रेयान्१ स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्’ १.अर्जुनके मूल प्रश्नमें आया ‘ज्यायसी’ (३ ।
१) और यहाँ आया ‘श्रेयान्’‒दोनों शब्द एक ही हैं । इससे ऐसा मालूम
होता है कि भगवान्ने अर्जुनके प्रश्नका उत्तर मुख्यरूपसे इसी श्लोकमें दिया है । ‒अन्य वर्ण, आश्रम आदिका धर्म (कर्तव्य) बाहरसे देखनेमें गुणसम्पन्न हो,
उसके पालनमें भी सुगमता हो, पालन करनेमें मन भी लगता हो,
धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी मिलती हो और जीवनभर सुख-आरामसे भी रह सकते हों
तो भी उस परधर्मका पालन अपने लिये विहित न होनेसे परिणाममें भय (दुःख)-को देनेवाला
है । इसके विपरीत अपने वर्ण, आश्रम आदिका धर्म बाहरसे देखनेमें गुणोंकी कमीवाला हो,
उसके पालनमें भी कठिनाई हो, पालन करनेमें मन भी न लगता हो,
धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी न मिलती हो और उसका पालन करनेमें जीवनभर कष्ट
भी सहना पड़ता हो, तो भी उस स्वधर्मका निष्कामभावसे पालन करना परिणाममें कल्याण
करनेवाला है । इसलिये मनुष्यको किसी भी स्थितिमें अपने धर्मका
त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर स्वधर्मका ही पालन
करना चाहिये । मनुष्यके लिये स्वधर्मका पालन स्वाभाविक है,
सहज है । मनुष्यका ‘जन्म’ कर्मोंके अनुसार होता है और जन्मके अनुसार भगवान्ने ‘कर्म’ नियत किये हैं, (गीता‒अठारहवें अध्यायका इकतालीसवाँ श्लोक) । अतः अपने-अपने
नियत कर्मोंका पालन करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण
हो जाता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका पैंतालीसवाँ श्लोक) । अतः दोषयुक्त दीखनेपर भी
नियत कर्म अर्थात् स्वधर्मका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता‒अठारहवें अध्यायका अड़तालीसवाँ
श्लोक) । अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षाका अन्न खाकर जीवननिर्वाह
करनेको श्रेष्ठ समझते हैं (गीता‒दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) । परंतु यहाँ भगवान्
अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि भिक्षाके अन्नसे जीवननिर्वाह करना भिक्षुकके लिये
स्वधर्म होते हुए भी तेरे लिये परधर्म है; क्योंकि तू गृहस्थ क्षत्रिय है,
भिक्षुक नहीं । पहले अध्यायमें भी जब अर्जुनने कहा कि युद्ध
करनेसे पाप ही लगेगा‒पापमेवाश्रयेत्’ (१ ।
३६), तब भी भगवान्ने कहा कि धर्ममय
युद्ध न करनेसे तू स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा (दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ
श्लोक) । फिर भगवान्ने बताया कि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर युद्ध
करनेसे अर्थात् राग-द्वेषसे रहित होकर अपने कर्तव्य (स्वधर्म)-का पालन करनेसे पाप नहीं
लगता । (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक) । आगे अठारहवें अध्यायमें भी भगवान्ने यही
बात कही है कि स्वभावनियत स्वधर्मरूप कर्तव्यको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं
होता (अठारहवें अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक) । तात्पर्य
यह है कि स्वधर्मके पालनमें राग-द्वेष रहनेसे ही पाप लगता है, अन्यथा
नहीं । राग-द्वेषसे रहित होकर स्वधर्मका भलीभाँति आचरण करनेसे ‘समता’
(योग)-का
अनुभव होता है और समताका अनुभव होनेपर दुःखोंका नाश हो जाता है (गीता‒छठे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक) । इसलिये भगवान् बार-बार
अर्जुनको राग-द्वेषसे रहित होकर युद्धरूप स्वधर्मका पालन करनेपर जोर देते हैं । भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि क्षत्रिय-कुलमें जन्म
होनेके कारण क्षात्रधर्मके नाते युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म (कर्तव्य) है;
अतः युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान देखना है;
और युद्धरूप क्रियाका सम्बन्ध अपने साथ नहीं है‒ऐसा समझकर केवल
कर्मोंकी आसक्ति मिटानेके लिये कर्म करना है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं । वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार अपने-अपने कर्तव्यका निःस्वार्थभावसे
पालन करना ही ‘स्वधर्म’
है । आस्तिकजन जिसे ‘धर्म’ कहते हैं, उसीका नाम ‘कर्तव्य’ है । स्वधर्मका पालन करना अथवा अपने कर्तव्यका पालन करना एक
ही बात है । कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको
सुगमतापूर्वक कर सकते हैं, जो अवश्य करनेयोग्य है और जिसको करनेपर प्राप्तव्यकी
प्राप्ति अवश्य होती है । धर्मका पालन करना सुगम होता है; क्योंकि वह कर्तव्य होता है । यह नियम है कि केवल अपने धर्मका
ठीक-ठीक पालन करनेसे मनुष्यको वैराग्य हो जाता है‒‘धर्म तें बिरति....’ (मानस
३ । १६ । १) । केवल कर्तव्यमात्र
समझकर धर्मका पालन करनेसे कर्मोंका प्रवाह प्रकृतिमें चला जाता है और इस तरह अपने साथ
कर्मोंका सम्बन्ध नहीं रहता । वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार सभी मनुष्योंका अपना-अपना कर्तव्य (स्वधर्म)
कल्याणप्रद है । परन्तु दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका कर्तव्य देखनेसे अपना कर्तव्य अपेक्षाकृत कम गुणोंवाला
दीखता है;
जैसे‒ब्राह्मणके कर्तव्य (शम, दम, तप, क्षमा आदि)-की अपेक्षा क्षत्रियके कर्तव्य (युद्ध करना आदि)-में
अहिंसादि गुणोंकी कमी दीखती है । इसीलिये यहाँ
‘विगुणः’
पद देनेका भाव यह है कि दूसरोंके कर्तव्यसे अपने कर्तव्यमें
गुणोंकी कमी दीखनेपर भी अपना कर्तव्य ही कल्याण करनेवाला है । अतः किसी भी अवस्थामें अपने कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये । वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार बाहरसे तो कर्म अलग-अलग (घोर या सौम्य) प्रतीत
होते हैं, पर परमात्मप्राप्तिरूप उद्देश्य एक ही होता है । परमात्मप्राप्तिका
उद्देश्य न रहनेसे तथा अन्तःकरणमें प्राकृत पदार्थोंका महत्त्व रहनेसे ही कर्म घोर
या सौम्य प्रतीत होते हैं । ‘स्वधर्मे
निधनं श्रेयः’‒स्वधर्म-पालनमें
यदि सदा सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि ही मिलते तो वर्तमानमें धर्मात्माओंकी टोलियाँ
देखनेमें आतीं । परन्तु स्वधर्मका पालन सुख अथवा दुःखको देखकर नहीं किया जाता,
प्रत्युत भगवान् अथवा शास्त्रकी आज्ञाको देखकर निष्कामभावसे
किया जाता है । इसलिये स्वधर्म अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन
करते हुए यदि कोई कष्ट आ जाय तो वह कष्ट भी उन्नति करनेवाला होता है । वास्तवमें
वह कष्ट नहीं, अपितु तप होता है । उस कष्टसे तपकी अपेक्षा भी बहुत
जल्दी उन्नति होती है । कारण कि तप अपने लिये किया जाता है और कर्तव्य दूसरोंके लिये
। जानकर किये गये तपसे उतना लाभ नहीं होता, जितना लाभ स्वतः आये हुए कष्टरूप तपसे होता है । जिन्होंने स्वधर्म-पालनमें कष्ट सहन किया और जो स्वधर्मका
पालन करते हुए मर गये वे धर्मात्मा पुरुष अमर हो गये । लौकिक दृष्टिसे भी जो कष्ट
आनेपर भी अपने धर्म (कर्तव्य)-पर डटा रहता है, उसकी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है । जैसे,
देशको स्वतन्त्र बनानेके लिये जिन पुरुषोंने कष्ट सहे,
बार-बार जेल गये और फाँसीपर लटकाये गये,
उनकी आज भी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है । इसके विपरीत बुरे
कर्म करके जेल जानेवालोंकी सब जगह निन्दा होती है । तात्पर्य यह निकला कि निष्कामभावपूर्वक
अपने धर्मका पालन करते हुए कष्ट आ जाय अथवा मृत्युतक भी हो जाय,
तो भी उससे लोकमें प्रशंसा और परलोकमें कल्याण ही होता है । स्वधर्मका पालन करनेवाले मनुष्यकी दृष्टि धर्मपर रहती है ।
धर्मपर दृष्टि रहनेसे उसका धर्मके साथ सम्बन्ध रहता है । अतः धर्म-पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय, तो
उसका उद्धार हो जाता है । शंका‒स्वधर्मका पालन करते हुए मरनेसे कल्याण
ही होता है,
इसे कैसे मानें ? समाधान‒गीता साक्षात् भगवान्की वाणी है;
अतः इसमें शंकाकी सम्भावना ही नहीं है । दूसरे,
यह चर्म-चक्षुओंका प्रत्यक्ष विषय नहीं है,
प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासका विषय है । फिर भी इस विषयमें कुछ
बातें बतायी जाती हैं । १‒जिस विषयका हमें पता नहीं है,
उसका पता शास्त्रसे ही लगता है२
। २.अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्थ दर्शकम् । सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्यन्ध एव सः
॥ ‘जो अनेक संदेहोंको दूर करनेवाला और परोक्ष (अप्रत्यक्ष) विषयको दिखानेवाला है, वह शास्त्र सभीका नेत्र है । अतः जिसे शास्त्रका ज्ञान नहीं, वह अंधा ही है ।’ शास्त्रमें आया है कि जो धर्मकी रक्षा करता है उसकी रक्षा
(कल्याण) धर्म करता है‒‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ (मनुस्मृति
८ । १५) । अतः जो धर्मका
पालन करता है, उसके कल्याणका भार धर्मपर और धर्मके उपदेष्टा भगवान्, वेदों,
शास्त्रों, ऋषियों, मुनियों आदिपर होता है तथा उन्हींकी शक्तिसे उसका कल्याण होता
है । जैसे हमारे शास्त्रोंमें आया है कि पातिव्रत-धर्मका पालन करनेसे स्त्रीका कल्याण
हो जाता है, तो वहाँ पातिव्रत-धर्मकी आज्ञा देनेवाले भगवान्, वेद,
शास्त्र आदिकी शक्तिसे ही कल्याण होता है,
पतिकी शक्तिसे नहीं । ऐसे ही धर्मका पालन करनेके लिये भगवान्,
वेदों,
शास्त्रों, ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओंकी आज्ञा है,
इसलिये धर्म-पालन करते हुए मरनेपर उनकी शक्तिसे कल्याण हो जाता
है,
इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है । २‒पुराणों और इतिहासोंसे भी सिद्ध होता है कि अपने धर्मका पालन
करनेवालेका कल्याण होता है । जैसे, राजा हरिश्चन्द्र अनेक कष्ट,
निन्दा, अपमान आदिके आनेपर भी अपने ‘सत्य’-धर्मसे विचलित नहीं हुए; अतः इसके प्रभावसे वे समस्त प्रजाको साथ लेकर परमधाम गये३ और आज भी उनकी बहुत प्रशंसा और महिमा है । ३.द्रष्टव्य‒मार्कण्डेयपुराण, देवीभागवत आदि । ३‒वर्तमान समयमें पुनर्जन्म-सम्बन्धी अनेक सत्य घटनाएँ देखने,
सुनने और पढ़नेमें आती हैं, जिनसे मृत्युके बाद होनेवाली सद्गति-दुर्गतिका पता लगता है४ । ४.द्रष्टव्य‒‘कल्याण’ मासिक पत्रके तैंतालीसवें वर्ष (१९६८)-का विशेषांक ‘परलोक और पुनर्जन्मांक’
।
४‒निःस्वार्थभावसे अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेपर आस्तिककी
तो बात ही क्या, परलोकको न माननेवाले नास्तिकके भी चित्तमें सात्त्विक प्रसन्नता आ जाती है । यह
प्रसन्नता कल्याणका द्योतक है; क्योंकि कल्याणका वास्तविक स्वरूप ‘परमशान्ति’ है । अतः अपने अनुभवसे भी सिद्ध होता है कि अकर्तव्यका सर्वथा
त्याग करके कर्तव्यका पालन करनेसे कल्याण होता है । രരരരരരരരരര |
Aug
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