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28
।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒राग-द्वेषके वशमें होकर क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये‒इसका उत्तर भगवान् आगेके श्‍लोकमें देते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒स्वघर्म और परधर्मका वर्णन ।

      श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्‍ठितात् ।

     स्वधर्मे    निधनं   श्रेयः   परधर्मो   भयावहः ॥ ३५ ॥

अर्थ‒अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्‍ठ है । अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है ।

स्वनुष्‍ठितात् = अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए

स्वधर्मे = अपने धर्ममें (तो)

परधर्मात् = दूसरेके धर्मसे

निधनम् = मरना (भी)

विगुणः = गुणोंकी कमीवाला

श्रेयः = कल्याणकारक है (और)

स्वधर्मः = अपना धर्म

परधर्मः = दूसरेका धर्म

श्रेयान् = श्रेष्‍ठ है ।

भयावहः = भयको देनेवाला है ।

व्याख्याश्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्‍ठितात्’

१.अर्जुनके मूल प्रश्‍नमें आया ज्यायसी’ (३ । १) और यहाँ आया श्रेयान्’दोनों शब्द एक ही हैं । इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्‌ने अर्जुनके प्रश्‍नका उत्तर मुख्यरूपसे इसी श्‍लोकमें दिया है ।

अन्य वर्ण, आश्रम आदिका धर्म (कर्तव्य) बाहरसे देखनेमें गुणसम्पन्‍न हो, उसके पालनमें भी सुगमता हो, पालन करनेमें मन भी लगता हो, धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी मिलती हो और जीवनभर सुख-आरामसे भी रह सकते हों तो भी उस परधर्मका पालन अपने लिये विहित न होनेसे परिणाममें भय (दुःख)-को देनेवाला है । इसके विपरीत अपने वर्ण, आश्रम आदिका धर्म बाहरसे देखनेमें गुणोंकी कमीवाला हो, उसके पालनमें भी कठिनाई हो, पालन करनेमें मन भी न लगता हो, धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी न मिलती हो और उसका पालन करनेमें जीवनभर कष्‍ट भी सहना पड़ता हो, तो भी उस स्वधर्मका निष्कामभावसे पालन करना परिणाममें कल्याण करनेवाला है । इसलिये मनुष्यको किसी भी स्थितिमें अपने धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर स्वधर्मका ही पालन करना चाहिये ।

मनुष्यके लिये स्वधर्मका पालन स्वाभाविक है, सहज है । मनुष्यका जन्म’ कर्मोंके अनुसार होता है और जन्मके अनुसार भगवान्‌ने कर्म’ नियत किये हैं, (गीता‒अठारहवें अध्यायका इकतालीसवाँ श्‍लोक) । अतः अपने-अपने नियत कर्मोंका पालन करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका पैंतालीसवाँ श्‍लोक) । अतः दोषयुक्त दीखनेपर भी नियत कर्म अर्थात् स्वधर्मका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता‒अठारहवें अध्यायका अड़तालीसवाँ श्‍लोक) ।

अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षाका अन्‍न खाकर जीवननिर्वाह करनेको श्रेष्‍ठ समझते हैं (गीता‒दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक) । परंतु यहाँ भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि भिक्षाके अन्‍नसे जीवननिर्वाह करना भिक्षुकके लिये स्वधर्म होते हुए भी तेरे लिये परधर्म है; क्योंकि तू गृहस्थ क्षत्रिय है, भिक्षुक नहीं । पहले अध्यायमें भी जब अर्जुनने कहा कि युद्ध करनेसे पाप ही लगेगा‒पापमेवाश्रयेत्’ (१ । ३६), तब भी भगवान्‌ने कहा कि धर्ममय युद्ध न करनेसे तू स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्‍त होगा (दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ श्‍लोक) । फिर भगवान्‌ने बताया कि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर युद्ध करनेसे अर्थात् राग-द्वेषसे रहित होकर अपने कर्तव्य (स्वधर्म)-का पालन करनेसे पाप नहीं लगता । (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्‍लोक) । आगे अठारहवें अध्यायमें भी भगवान्‌ने यही बात कही है कि स्वभावनियत स्वधर्मरूप कर्तव्यको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्‍त नहीं होता (अठारहवें अध्यायका सैंतालीसवाँ श्‍लोक) । तात्पर्य यह है कि स्वधर्मके पालनमें राग-द्वेष रहनेसे ही पाप लगता है, अन्यथा नहीं । राग-द्वेषसे रहित होकर स्वधर्मका भलीभाँति आचरण करनेसेसमता’ (योग)-का अनुभव होता है और समताका अनुभव होनेपर दुःखोंका नाश हो जाता है (गीता‒छठे अध्यायका तेईसवाँ श्‍लोक) । इसलिये भगवान् बार-बार अर्जुनको राग-द्वेषसे रहित होकर युद्धरूप स्वधर्मका पालन करनेपर जोर देते हैं ।

भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि क्षत्रिय-कुलमें जन्म होनेके कारण क्षात्रधर्मके नाते युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म (कर्तव्य) है; अतः युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान देखना है; और युद्धरूप क्रियाका सम्बन्ध अपने साथ नहीं है‒ऐसा समझकर केवल कर्मोंकी आसक्ति मिटानेके लिये कर्म करना है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं ।

वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार अपने-अपने कर्तव्यका निःस्वार्थभावसे पालन करना ही स्वधर्म’ है । आस्तिकजन जिसे धर्म’ कहते हैं, उसीका नाम ‘कर्तव्य’ है । स्वधर्मका पालन करना अथवा अपने कर्तव्यका पालन करना एक ही बात है ।

कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको सुगमतापूर्वक कर सकते हैं, जो अवश्य करनेयोग्य है और जिसको करनेपर प्राप्‍तव्यकी प्राप्‍ति अवश्य होती है । धर्मका पालन करना सुगम होता है; क्योंकि वह कर्तव्य होता है । यह नियम है कि केवल अपने धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेसे मनुष्यको वैराग्य हो जाता है‒धर्म तें बिरति....’ (मानस ३ । १६ । १) । केवल कर्तव्यमात्र समझकर धर्मका पालन करनेसे कर्मोंका प्रवाह प्रकृतिमें चला जाता है और इस तरह अपने साथ कर्मोंका सम्बन्ध नहीं रहता ।

वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार सभी मनुष्योंका अपना-अपना कर्तव्य (स्वधर्म) कल्याणप्रद है । परन्तु दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका कर्तव्य देखनेसे अपना कर्तव्य अपेक्षाकृत कम गुणोंवाला दीखता है; जैसे‒ब्राह्मणके कर्तव्य (शम, दम, तप, क्षमा आदि)-की अपेक्षा क्षत्रियके कर्तव्य (युद्ध करना आदि)-में अहिंसादि गुणोंकी कमी दीखती है । इसीलिये यहाँ विगुणः’ पद देनेका भाव यह है कि दूसरोंके कर्तव्यसे अपने कर्तव्यमें गुणोंकी कमी दीखनेपर भी अपना कर्तव्य ही कल्याण करनेवाला है । अतः किसी भी अवस्थामें अपने कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये ।

वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार बाहरसे तो कर्म अलग-अलग (घोर या सौम्य) प्रतीत होते हैं, पर परमात्मप्राप्‍तिरूप उद्‌देश्य एक ही होता है । परमात्मप्राप्‍तिका उद्‌देश्य न रहनेसे तथा अन्तःकरणमें प्राकृत पदार्थोंका महत्त्व रहनेसे ही कर्म घोर या सौम्य प्रतीत होते हैं ।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः’‒स्वधर्म-पालनमें यदि सदा सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि ही मिलते तो वर्तमानमें धर्मात्माओंकी टोलियाँ देखनेमें आतीं । परन्तु स्वधर्मका पालन सुख अथवा दुःखको देखकर नहीं किया जाता, प्रत्युत भगवान् अथवा शास्‍त्रकी आज्ञाको देखकर निष्कामभावसे किया जाता है । इसलिये स्वधर्म अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करते हुए यदि कोई कष्‍ट आ जाय तो वह कष्‍ट भी उन्‍नति करनेवाला होता है । वास्तवमें वह कष्‍ट नहीं, अपितु तप होता है । उस कष्‍टसे तपकी अपेक्षा भी बहुत जल्दी उन्‍नति होती है । कारण कि तप अपने लिये किया जाता है और कर्तव्य दूसरोंके लिये । जानकर किये गये तपसे उतना लाभ नहीं होता, जितना लाभ स्वतः आये हुए कष्‍टरूप तपसे होता है । जिन्होंने स्वधर्म-पालनमें कष्‍ट सहन किया और जो स्वधर्मका पालन करते हुए मर गये वे धर्मात्मा पुरुष अमर हो गये । लौकिक दृष्‍टिसे भी जो कष्‍ट आनेपर भी अपने धर्म (कर्तव्य)-पर डटा रहता है, उसकी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है । जैसे, देशको स्वतन्त्र बनानेके लिये जिन पुरुषोंने कष्‍ट सहे, बार-बार जेल गये और फाँसीपर लटकाये गये, उनकी आज भी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है । इसके विपरीत बुरे कर्म करके जेल जानेवालोंकी सब जगह निन्दा होती है । तात्पर्य यह निकला कि निष्कामभावपूर्वक अपने धर्मका पालन करते हुए कष्‍ट आ जाय अथवा मृत्युतक भी हो जाय, तो भी उससे लोकमें प्रशंसा और परलोकमें कल्याण ही होता है ।

स्वधर्मका पालन करनेवाले मनुष्यकी दृष्‍टि धर्मपर रहती है । धर्मपर दृष्‍टि रहनेसे उसका धर्मके साथ सम्बन्ध रहता है । अतः धर्म-पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय, तो उसका उद्धार हो जाता है ।

शंका‒स्वधर्मका पालन करते हुए मरनेसे कल्याण ही होता है, इसे कैसे मानें ?

समाधान‒गीता साक्षात् भगवान्‌की वाणी है; अतः इसमें शंकाकी सम्भावना ही नहीं है । दूसरे, यह चर्म-चक्षुओंका प्रत्यक्ष विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्‍वासका विषय है । फिर भी इस विषयमें कुछ बातें बतायी जाती हैं ।

‒जिस विषयका हमें पता नहीं है, उसका पता शास्‍त्रसे ही लगता है

२.अनेकसंशयोच्छेदि    परोक्षार्थस्थ    दर्शकम् ।

    सर्वस्य लोचनं शास्‍त्रं यस्य नास्यन्ध एव सः ॥

जो अनेक संदेहोंको दूर करनेवाला और परोक्ष (अप्रत्यक्ष) विषयको दिखानेवाला है, वह शास्‍त्र सभीका नेत्र है । अतः जिसे शास्‍त्रका ज्ञान नहीं, वह अंधा ही है ।’

शास्‍त्रमें आया है कि जो धर्मकी रक्षा करता है उसकी रक्षा (कल्याण) धर्म करता है‒धर्मो रक्षति रक्षितः’ (मनुस्मृति ८ । १५) । अतः जो धर्मका पालन करता है, उसके कल्याणका भार धर्मपर और धर्मके उपदेष्‍टा भगवान्, वेदों, शास्‍त्रों, ऋषियों, मुनियों आदिपर होता है तथा उन्हींकी शक्तिसे उसका कल्याण होता है । जैसे हमारे शास्‍त्रोंमें आया है कि पातिव्रत-धर्मका पालन करनेसे स्‍त्रीका कल्याण हो जाता है, तो वहाँ पातिव्रत-धर्मकी आज्ञा देनेवाले भगवान्, वेद, शास्‍त्र आदिकी शक्तिसे ही कल्याण होता है, पतिकी शक्तिसे नहीं । ऐसे ही धर्मका पालन करनेके लिये भगवान्, वेदों, शास्‍त्रों, ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओंकी आज्ञा है, इसलिये धर्म-पालन करते हुए मरनेपर उनकी शक्तिसे कल्याण हो जाता है, इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है ।

‒पुराणों और इतिहासोंसे भी सिद्ध होता है कि अपने धर्मका पालन करनेवालेका कल्याण होता है । जैसे, राजा हरिश्‍चन्द्र अनेक कष्‍ट, निन्दा, अपमान आदिके आनेपर भी अपने सत्य’-धर्मसे विचलित नहीं हुए; अतः इसके प्रभावसे वे समस्त प्रजाको साथ लेकर परमधाम गये और आज भी उनकी बहुत प्रशंसा और महिमा है ।

३.द्रष्‍टव्य‒मार्कण्डेयपुराण, देवीभागवत आदि ।

‒वर्तमान समयमें पुनर्जन्म-सम्बन्धी अनेक सत्य घटनाएँ देखने, सुनने और पढ़नेमें आती हैं, जिनसे मृत्युके बाद होनेवाली सद्‌गति-दुर्गतिका पता लगता है

४.द्रष्‍टव्य‒कल्याण’ मासिक पत्रके तैंतालीसवें वर्ष (१९६८)-का विशेषांकपरलोक और पुनर्जन्मांक’ ।

‒निःस्वार्थभावसे अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेपर आस्तिककी तो बात ही क्या, परलोकको न माननेवाले नास्तिकके भी चित्तमें सात्त्विक प्रसन्‍नता आ जाती है । यह प्रसन्‍नता कल्याणका द्योतक है; क्योंकि कल्याणका वास्तविक स्वरूप परमशान्ति’ है । अतः अपने अनुभवसे भी सिद्ध होता है कि अकर्तव्यका सर्वथा त्याग करके कर्तव्यका पालन करनेसे कल्याण होता है ।

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