Sep
02
।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



महाशनो महापाप्मा’कोई वैरी ऐसा होता है, जो भेंट-पूजा अथवा अनुनय-विनयसे शान्त हो जाता है, पर यह काम’ ऐसा वैरी है, जो किसीसे भी शान्त नहीं होता । इस कामकी कभी तृप्‍ति नहीं होती‒

बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते ॥

(विनयपत्रिका १९८)

जैसे धन मिलनेपर धनकी कामना बढ़ती ही चली जाती है; ऐसे ही ज्यों-ज्यों भोग मिलते हैं, त्यों-ही-त्यों कामना बढ़ती ही चली जाती है । इसलिये कामनाको महाशनः’ कहा गया है ।

कामना ही सम्पूर्ण पापोंका कारण है । चोरी, डकैती, हिंसा आदि समस्त पाप कामनासे ही होते हैं । इसलिये कामनाको महापाप्मा’ कहा गया है ।

कामना उत्पन्‍न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे, अपने स्वरूपसे और अपने इष्‍ट (भगवान्)-से विमुख हो जाता है और नाशवान् संसारके सम्मुख हो जाता है । नाशवान्‌के सम्मुख होनेसे पाप होते हैं और पापोंके फलस्वरूप नरकों तथा नीच योनियोंकी प्राप्‍ति होती है ।

संयोगजन्य सुखकी कामनासे ही संसार सत्य प्रतीत होता है और प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरादि पदार्थ स्थिर दिखायी देते हैं । सांसारिक पदार्थोंको स्थिर माननेसे ही मनुष्य उनसे सुख भोगता है और उनकी इच्छा करता है । सुख-भोगके समय संसारकी क्षणभंगुरताकी ओर दृष्‍टि नहीं जाती और मनुष्य भोगको तथा अपनेको भी स्थिर देखता है । जो प्रतिक्षण मर रहा है‒नष्‍ट हो रहा है, उस संसारसे सुख लेनेकी इच्छा कैसे हो सकती है ? पर संसार प्रतिक्षण मर रहा है’ इस जानकारीका तिरस्कार करनेसे ही सांसारिक सुखभोगकी इच्छा होती है । चलचित्र (सिनेमा)-में पके हुए अंगुर देखनेपर भी उन्हें खानेकी इच्छा नहीं होती, यदि होती है तो सिद्ध हुआ कि हमने उसे स्थिर माना है । परिवर्तनशील संसारको स्थिर माननेसे वास्तवमें जो स्थिर तत्त्व है, उस परमात्मतत्त्वकी तरफ अथवा अपने स्वरूपकी तरफ दृष्‍टि जाती ही नहीं । उधर दृष्‍टि न जानेसे मनुष्य उससे विमुख होकर नाशवान् सुख-भोगमें फँस जाता है । इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक तत्त्वसे विमुख हुए बिना कोई सांसारिक भोग भोगा ही नहीं जा सकता और रागपूर्वक सांसारिक भोग भोगनेसे मनुष्य परमात्मासे विमुख हो ही जाता है ।

भोगबुद्धिसे सांसारिक भोग भोगनेवाला मनुष्य हिंसारूप पापसे बच ही नहीं सकता । वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरोंकी भी । जैसे, कोई मनुष्य धनका संग्रह करके उससे भोगोंको भोगता है, तो उसे देखकर निर्धनोंके हृदयमें धन और भोगोंके अभावका विशेष दुःख होता है, यह उनकी हिंसा हुई । भोगोंको भोगकर वह स्वयं अपनी भी हिंसा (पतन) करता है; क्योंकि स्वयं परमात्माका चेतन अंश होते हुए भी जड (धन)-को महत्त्व देनेसे वह वस्तुतः जडका दास हो जाता है, जिससे उसका पतन हो जाता है । संसारके सब भोगपदार्थ सीमित होते हैं; अतः मनुष्य जितना भोग भोगता है, उतना भोग दूसरोंके हिस्सेसे ही आता है । हाँ, शरीर-निर्वाहमात्रके लिये पदार्थोंको स्वीकार करनेसे मनुष्यको पाप नहीं लगता । शरीर-निर्वाहमें भी शास्‍त्रोंमें केवल अपने लिये भोग भोगनेका निषेध है । अपने माता, पिता, गुरु, बालक, स्‍त्री, वृद्ध आदिको शरीर-निर्वाहके पदार्थ पहले देकर फिर स्वयं लेने चाहिये ।

भोगबुद्धिसे भोग भोगनेवाला पुरुष अपना तो पतन करता है, भोग्य वस्तुओंका दुरुपयोग करके उनका नाश करता है, और अभावग्रस्त पुरुषोंकी हिंसा करता है; परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुषके विषयमें यह बात लागू नहीं होती । उसके द्वारा हिंसारूप पाप नहीं होता; क्योंकि उसमें भोगबुद्धि नहीं होती और उसके द्वारा निष्कामभावसे निर्वाहमात्रके लिये शास्‍त्रविहित क्रियाएँ होती हैं (गीता‒चौथे अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक और अठारहवें अध्यायका सत्रहवाँ श्‍लोक) । उस महापुरुषके उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंका विकास होता है, नाश नहीं अर्थात् उसके पास आनेपर वस्तुओंका सदुपयोग होता है, जिससे वे सार्थक हो जाती हैं । जबतक संसारमें उस महापुरुषका कहलानेवाला शरीर रहता है, तबतक उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक प्राणियोंका उपकार होता रहता है ।

शरीर-निर्वाहमात्रकी आवश्यकता महाशनः’ और महापाप्मा’ नहीं है । कारण कि शरीर-निर्वाहमात्रकी आवश्यकताकामना’ नहीं है । आवश्यकताकी पूर्ति होती है; जैसे‒भूख लगी और भोजन करनेसे तृप्‍ति हो गयी । परन्तु कामनाकी वृद्धि होती है ।

विद्ध्येनमिह वैरिणम्’यद्यपि वास्तवमें सांसारिक पदार्थोंकी कामनाका त्याग होनेपर ही सुख-शान्तिका अनुभव होता है, तथापि मनुष्य अज्ञानवश पदार्थोंसे सुखका होना मान लेता है । इस प्रकार मनुष्यने पदार्थोंकी कामनाको सुखका कारण मानकर उसे अपना मित्र और हितैषी मान रखा है । इस मान्यताके कारण कामना कभी मिटती नहीं । इसलिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि इस कामनाको अपना मित्र नहीं, प्रत्युत वैरी जानो । कामना मनुष्यकी वैरी इसलिये है कि यह मनुष्यके विवेकको ढककर उसे पापोंमें प्रवृत्त कर देती है ।

संसारके सम्पूर्ण पापों, दुःखों, नरकों आदिके मूलमें एक कामना ही है । इस लोक और परलोकमें जहाँ कहीं कोई दुःख पा रहा है, उसमें असत्‌की कामना ही कारण है । कामनासे सब प्रकारके दुःख होते हैं और सुख कोई-सा भी नहीं होता ।

विशेष बात

कामको नष्‍ट करनेका मुख्य और सरल उपाय है‒दूसरोंकी सेवा करना, उन्हें सुख पहुँचाना । अन्य शरीरधारी तो दूसरे हैं ही, अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और प्राण भी दूसरे ही हैं । अतः इनका निर्वाह भी सेवाबुद्धिसे करना है, भोगबुद्धिसे नहीं । इनसे सुख नहीं लेना है ।

कर्मयोगमें स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया’, सूक्ष्म-शरीरसे होनेवालाचिन्तन’ और कारण-शरीरसे होनेवालीस्थिरता’तीनों ही अपने लिये नहीं हैं, प्रत्युत संसारके लिये ही हैं । कारण कि स्थूल-शरीरकी स्थूल-संसारके साथ, सूक्ष्म-शरीरकी सूक्ष्म-संसारके साथ और कारण-शरीरकी कारण-संसारके साथ एकता है । अतः शरीर, पदार्थ और क्रियासे दूसरोंकी सेवा करना तो उचित है, पर अपनेमें सेवकपनका अभिमान करना अनुचित है । सूक्ष्म-शरीरसे परहित-चिन्तन करना तो उचित है, पर उससे सुख लेना अनुचित है । कारणशरीरसे स्थिर होना तो उचित है, पर स्थिरताका सुख लेना अनुचित है । इस प्रकार सुख न लेनेसे फलकी आसक्ति मिट जाती है, फलकी आसक्ति मिटनेपर कर्मकी आसक्ति सुगमतापूर्वक मिट जाती है ।

१.सेवा, परहित-चिन्तन, स्थिरता आदिका सुख लेना और इनके बने रहनेकी इच्छा करना भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिमें बाधक है (गीता १४ । ६) । इसलिये साधकको सात्त्विक, राजस और तामस‒तीनों ही गुणोंसे असंग होना है; क्योंकि स्वरूप असंग है ।

मेरा आदेश चले; अमुक व्यक्ति मेरी आज्ञामें चले; अमुक वस्तु मेरे काम आ जाय; मेरी बात रह जाय‒ये सब कामनाके ही स्वरूप हैं । उत्पत्ति-विनाशशील (असत्) संसारसे कुछ लेनेकी कामना महान् अनर्थ करनेवाली है । दूसरोंकी न्याययुक्त कामना (जिसमें दूसरेका हित हो और जिसे पूर्ण करनेकी सामर्थ्य हमारेमें हो)-को पूरी करनेसे अपनेमें कामनाके त्यागका बल आ जाता है । दूसरोंकी कामना पूरी न भी कर सकें तो भी हृदयमें पूरी करनेका भाव रहना ही चाहिये ।

तादात्म्य‒अहंता (अपनेको शरीर मानना), ममता (शरीरादि पदार्थोंको अपना मानना) और कामना (अमुक वस्तु मिल जाय‒ऐसा भाव)‒इन तीनोंसे ही जीव संसारमें बँधता है । तादात्म्यसे परिच्छिन्‍नता, ममतासे विकार और कामनासे अशान्ति पैदा होती है । कामनाके त्यागसे ममता और ममताके त्यागसे तादात्म्य मिटता है । कर्मयोगी सिद्धान्तसे इनमें किसीके भी साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता; क्योंकि वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम्‌, पदार्थ आदि किसीको भी अपना और अपने लिये नहीं मानता, वह इन शरीरादिको केवल संसारका और संसारकी सेवाके लिये ही मानता है, जो कि वास्तवमें है ।

किसीको भी दुःख न देनेका भाव होनेपर सेवाका आरम्भ हो जाता है । अतः साधकके अन्तःकरणमेंकिसीको भी दुःख न हो’यह भाव निरन्तर रहना चाहिये । भूलसे अपने कारण किसीको दुःख हो भी जाय तो उससे क्षमा माँग लेनी चाहिये । वह क्षमा न करे तो भी कोई डर नहीं । कारण कि सच्‍चे हृदयसे क्षमा माँगनेवालेकी क्षमा भगवान्‌की ओरसे स्वतः होती है । सेवा करनेमें साधक सदा सावधान रहे कि कहीं सेवाके बदलेमें कुछ लेनेका भाव उसमें न आ जाय । इस प्रकार सेवा करनेसे कामरूप’ वैरी सुगमतापूर्वक नष्‍ट हो जाता है ।

परिशिष्‍ट भाववस्तु, व्यक्ति और क्रियासे सुख चाहनेका नाम काम’ है । इस काम-रूप एक दोषमें अनन्त दोष, अनन्त विकार, अनन्त पाप भरे हुए हैं । अतः जबतक मनुष्यके भीतर काम है, तबतक वह सर्वथा निर्दोष, निर्विकार, निष्पाप नहीं हो सकता । अपने सुखके लिये कुछ चाहनेसे ही बुराई होती है । जो किसीसे कुछ नहीं चाहता, वह बुराईरहित हो जाता है ।

कर्मफल तीन प्रकारके होते हैं‒इष्‍ट, अनिष्‍ट और मिश्र (गीता‒अठारहवें अध्यायका बारहवाँ श्‍लोक) । तीनोंमेंकाम’ का केवलअनिष्‍ट’ फल ही मिलता है ।

शास्‍त्रनिषिद्ध कर्म प्रारब्धसे नहीं होता, प्रत्युत काम’ से होता है । प्रारब्धसे (फलभोगके लिये) कर्म करनेकी वृत्ति तो हो जायगी, पर निषिद्ध कर्म नहीं होगा; क्योंकि प्रारब्धका फल भोगनेके लिये निषिद्ध आचरणकी जरूरत ही नहीं है ।

काम’ रजोगुणसे पैदा होता है । अतः पापोंका कारण तो रजोगुण है और कार्य तमोगुण है । सभी पाप रजोगुणसे पैदा होते हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याजैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय‒यह ‘काम’ अर्थात् कामना है । किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्तिका अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना ‘काम’ है । इस कामरूप एक दोषमें अनन्त दोष, अनन्त पाप भरे हुए हैं ! अत: जबतक मनुष्यके भीतर काम है, तबतक वह सर्वथा निर्दोष, निष्पाप नहीं हो सकता । कामनाके सिवाय पापोंका अन्य कोई कारण नहीं है । तात्पर्य है कि मनुष्यसे न तो ईश्‍वर पाप कराता है, न भाग्य पाप कराता है, न समय पाप कराता है, न परिस्थिति पाप कराती है, न कलियुग पाप कराता है, प्रत्युत मनुष्य स्वयं ही कामनाके वशीभूत होकर पाप करता है ।

രരരരരരരരരര