।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः’श्रेष्‍ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी उसीके अनुसार आचरण करने लग जाते हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । भगवान् सबसे श्रेष्‍ठ (सर्वोपरि) हैं, इसलिये सभी लोग उनके मार्गका अनुसरण करते हैं । तीसरे अध्यायमें तेईसवें श्‍लोकके उत्तरार्धमें भी यही बात (उपर्युक्त पदोंसे ही) कही गयी है ।

साधक भगवान्‌के साथ जिस प्रकारका सम्बन्ध मानता है, भगवान् उसके साथ वैसा ही सम्बन्ध माननेके लिये तैयार रहते हैं । महाराज दशरथजी भगवान् श्रीरामको पुत्रभावसे स्वीकार करते हैं, तो भगवान् उनके सच्‍चे पुत्र बन जाते हैं और सामर्थ्यवान् होकर भी ‘पिता’ दशरथजीके वचनोंको टालनेमें अपनेको असमर्थ मानते हैं

१.अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ।

   भक्षयेयं  विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ॥

(वाल्मीकि, अयोध्या १८ । २८-२९)

भगवान् श्रीराम कहते हैं‒‘मैं महाराज पिताजीके कहनेपर आगमें भी प्रवेश कर सकता हूँ, तीक्ष्ण विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी कूद सकता हूँ ।’

इस प्रकारके आचरणोंसे भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि यदि तुम्हारी संसारमें किसीके साथ सम्बन्धके नाते प्रियता हो तो वही सम्बन्ध तुम मेरे साथ कर लो, जैसे-मातामें प्रियता हो तो मेरेको अपनी माता मान लो, पितामें प्रियता हो तो मेरेको अपना पिता मान लो; पुत्रमें प्रियता हो तो मेरेको अपना पुत्र मान लो, आदि । ऐसा माननेसे मेरेमें वास्तविक प्रियता हो जायगी और मेरी प्राप्‍ति सुगमतापूर्वक हो जायगी ।

दूसरी बात, भगवान् अपने आचरणोंसे यह शिक्षा देते हैं कि जिस प्रकार मेरे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है, उसके लिये मैं भी वैसा ही बन जाता हूँ, उसी प्रकार तुम्हारे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है, तुम भी उसके लिये वैसे ही बन जाओ; जैसे‒माता-पिताके लिये तुम सुपुत्र बन जाओ, पत्‍नीके लिये तुम सुयोग्य पति बन जाओ, बहनके लिये तुम श्रेष्‍ठ भाई बन जाओ, आदि । परन्तु बदलेमें उनसे कुछ चाहो मत; जैसे‒कुछ लेनेकी इच्छासे माता-पिताको अपने न मानकर केवल सेवा करनेके लिये ही उन्हें अपने मानो । ऐसा मानना ही भगवान्‌के मार्गका अनुसरण करना है । अभिमानरहित होकर निःस्वार्थभावसे दूसरेकी सेवा करनेसे शीघ्र ही दूसरेकी ममता छूटकर भगवान्‌में प्रेम हो जायगा, जिससे भगवान्‌की प्राप्‍ति हो जायगी ।

विशेष बात

अहंकाररहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान्‌की तरफ चला जाता है । कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है । इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है । प्रेमभाव व्यापक होनेपर उसके माने हुए सभी बनावटी सम्बन्ध मिट जाते हैं और भगवान्‌का स्वाभाविक नित्य-सम्बन्ध जाग्रत् हो जाता है ।

जीवमात्रका परमात्माके साथ स्वतः नित्य-सम्बन्ध है (गीता‒पन्द्रहवें अध्यायका सातवाँ श्‍लोक) । परन्तु जबतक जीव इस सम्बन्धको पहचानता नहीं और दूसरा सम्बन्ध जोड़ लेता है, तबतक वह जन्म-मरणके बन्धनमें पड़ा रहता है । उसका यह बन्धन दो ओरसे होता है‒एक तो वह भगवान्‌के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचानता नहीं और दूसरे, जिसके साथ वास्तवमें अपना सम्बन्ध है नहीं, उसके सम्बन्धको नित्य मान लेता है । जब जीव ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते’ के अनुसार अपना सम्बन्ध केवल भगवान्‌से मान लेता है अर्थात् पहचान लेता है, तब उसे भगवान्‌से अपने नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है ।

भगवान्‌के नित्य-सम्बन्धको पहचानना ही भगवान्‌के शरण होना है । शरण होनेपर भक्त निश्‍चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है । फिर उसके द्वारा भगवान्‌की आज्ञाके विरुद्ध कोई क्रिया कैसे हो सकती है ? उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्‌के आज्ञानुसार ही होती हैं‒‘मम वर्त्मानुवर्तन्ते ।’

परिशिष्‍ट भाव‒यद्यपि यह संसार साक्षात् परमात्माका स्वरूप है, तथापि जो इसको जिस रूपसे देखता है, भगवान् भी उसके लिये उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं । हम अपनेको शरीर मानकर अपने लिये वस्तुओंकी आवश्यकता मानते हैं और उनकी इच्छा करते हैं तो भगवान् भी उन वस्तुओंके रूपमें हमारे सामने आते हैं, हम असत्‌में स्थित होकर देखते हैं तो भगवान् भी असत्-रूपसे ही दीखते हैं । जैसे बालक खिलौना चाहता है तो पिता रुपये खर्च करके भी उसको खिलौना लाकर देता है, ऐसा ही हम जो चाहते हैं, परम दयालु भगवान् (स्वयं सदा सत्स्वरूप रहते हुए भी) उसी रूपसे हमारे सामने आते हैं । अगर हम भोगोंको न चाहें तो भगवान्‌को भोगरूपसे क्यों आना पड़े ? बनावटी रूप क्यों धारण करना पड़े ?

भगवान्‌के स्वभावमें ‘यथा-तथा’ होते हुए भी जीवपर उनकी बड़ी भारी कृपा है; क्योंकि कहाँ जीव और कहाँ भगवान् ! अभिमानके सिवाय जीवमें और क्या सामर्थ्य है ? फिर भी जीवका भगवान्‌में आकर्षण होता है तो भगवान्‌का भी जीवमें आकर्षण होता है । जैसे, विदुरानीजी अपने-आपको भूल गयीं तो भगवान् भी अपने-आपको भूल गये और केलेके छिलके खाने लगे तथा उसीमें आनन्द लेने लगे !

भगवान्‌के स्वभावमें ‘यथा-तथा’ केवल क्रियामें है, भावमें नहीं । भगवान्‌का आस्तिक-से-आस्तिक व्यक्तिके प्रति जो स्‍नेह है, कृपा है, वैसा ही स्‍नेह, कृपा नास्तिक-से-नास्तिक व्यक्तिके प्रति भी है । इसलिये भगवान्‌के ‘यथा-तथा’ में स्वार्थभाव नहीं है, प्रत्युत यह तो भगवान्‌की महत्ता है कि कहाँ जीव और कहाँ भगवान् ! फिर भी वे जीवको अपना मित्र बनाते हैं, उसको अपने समान दर्जा देते हैं ! भगवान् अपनेमें बड़प्पनका भाव नहीं रखते‒यह उनकी महत्ता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒यद्यपि सब कुछ परमात्मा ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९ ), तथापि मनुष्य जिस भावसे देखता है, भगवान् भी उसके सामने उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं‒

जिन्ह कें रही  भावना जैसी ।

प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥

(मानस, बाल २४१ । २)

जीव जगत्‌को धारण करता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) तो भगवान् जगद्‌रूपसे प्रकट हो जाते हैं । नास्तिक भगवान्‌को नहीं मानता तो भगवान् उसके सामने ‘नहीं’-रूपसे प्रकट हो जाते हैं । चोर भगवान्‌की मूर्तिमें भगवान्‌को न देखकर पत्थर, स्वर्ण आदिको देखता है तो भगवान् उसके लिये पत्थर, स्वर्ण आदिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं ।

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