।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
आद्य जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य-जयन्ती
सत्‌-असत्‌का विवेक


(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मतत्त्वको कितना ही अस्वीकार करें, उसकी कितनी ही उपेक्षा करें, उससे कितना ही विमुख हो जायँ, उसका कितना ही तिरस्कार करें, उसका कितनी ही युक्तियोंसे खंडन करें, पर वास्तवमें उसका अभाव विद्यमान है ही नहीं । सत्‌का अभाव होना सम्भव ही नहीं है । सत्‌का अभाव कभी कोई कर सकता ही नहीं‒ ‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’ (गीता २/१७) ।

‘उभयोरपि दृष्टः’ पदोंका तात्पर्य है कि तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्‌-तत्त्वको उत्पन्न नहीं किया है, प्रत्युत देखा है अर्थात्‌ अनुभव किया है । तात्पर्य है कि असत्‌का अभाव और सत्‌का भाव‒दोनोंके तत्त्वको (निष्कर्ष) को जाननेवाले जीवनमुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष एक सत्‌-तत्त्वको ही देखते हैं अर्थात्‌ स्वतः-स्वाभाविक एक ‘है’ का ही अनुभव करते हैं । इसलिये असत्‌की सत्ता नहीं है‒यह भी सत्य है और सत्‌का अभाव नहीं है‒यह भी सत्य है । अतः दोनोंका तत्त्व सत्‌ ही है‒ऐसा जान लेनेपर उन महापुरुषोंकी दृष्टिमें एक सत्‌-तत्त्व (‘है’) के सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं ।
 
असत्‌की सत्ता विद्यमान न रहनेसे उसका अभाव और सत्‌का अभाव विद्यमान न रहनेसे उसका भाव सिद्ध हुआ । निष्कर्ष यह निकला कि असत्‌ है ही नहीं, प्रत्युत सत्‌-ही-सत्‌ है ।
(३)
जो सहज निवृत्त है, वह ‘असत्‌’ है और जो स्वतः प्राप्त है, वह ‘सत्‌’ है । निवृत्तिका नित्यवियोग है और प्राप्तका नित्ययोग है । असत्‌का केवल अभाव-ही-अभाव है और इस अभावका कभी अभाव (नाश) नहीं होता । सत्‌का केवल भाव-ही-भाव है और इस भावका अभी अभाव नहीं होता । असत्‌की सत्ता माननेसे ही निवृत्त और प्राप्त ये दो विभाग कहे जाते हैं । असत्‌को सत्ता न दें तो न निवृत्त है, न प्राप्त है, प्रत्युत सत्तामात्र ज्यों-की-त्यों है । दूसरे शब्दोंमें, जबतक असत्‌की सत्ता है, तबतक विवेक है । असत्‌की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है । ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’‒इसमें ‘उभयोरपि’ में विवेक है और ‘अन्तः’ में तत्त्वज्ञान है अर्थात्‌ विवेक तत्त्वज्ञानमें परिणत हो गया और सत्तामात्र ही शेष रह गयी ।

जैसे दिन और रात‒दोनों अलग-अलग हैं, ऐसे ही सत्‌ और असत्‌‒दोनों अलग-अलग हैं । जैसे दिन रात नहीं हो सकता और रात दिन नहीं हो सकती, ऐसे ही सत्‌ असत्‌ नहीं हो सकता और असत्‌ सत्‌ नहीं हो सकता; परन्तु तत्त्वसे दोनों एक ही हैं । जैसे दिन और रात‒दोनों सापेक्ष हैं, दिनकी अपेक्षा रात है और रातकी अपेक्षा दिन है, पर सूर्यमें न दिन है, न रात है अर्थात्‌ वह निरपेक्ष प्रकाश है । ऐसे ही सत्‌ और असत्‌‒दोनों सापेक्ष हैं, पर परमात्मतत्त्व (सत्‌-तत्त्व) निरपेक्ष है । इसलिये तत्त्वदर्शी महापुरुष सत्‌-असत्‌‒दोनोंके एक ही तत्त्व सत्‌-तत्त्व अर्थात्‌ निरपेक्ष परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
सत्‌-असत्‌का विवेक


श्रीमद्भगवद्गीताका एक श्लोक है‒
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि  दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
                                                        (२/१६)
‘असत्‌का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात्‌ तत्त्व देखा है, अनुभव किया है ।’
(१)
इस श्लोकके पूर्वार्धमें आये नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’‒इन सोलह अक्षरोंमें सम्पूर्ण वेदों, पुराणों, शास्त्रोंका तात्पर्य भरा हुआ है ! चिन्मय सत्तामात्र ‘सत्‌’ है आर सत्ताके सिवाय जो कुछ भी प्रकृति और प्रकृतिका कार्य (क्रिया और पदार्थ) है, वह सब ‘असत्‌’ अर्थात्‌ जड़ और परिवर्तनशील है । देखने, सुनने, समझने, चिन्तन करने, निश्चय करने आदिमें जो कुछ भी आता है, वह सब ‘असत्‌’ है । जिसके द्वारा देखते, सुनते, चिन्तन आदि करते हैं, वह भी ‘असत्‌’ है और दीखनेवाला भी ‘असत्‌’ है । असत्‌ और सत्‌‒इन दोनोंको ही प्रकृति और पुरुष, क्षर और अक्षर, शरीर और शरीरी, अनित्य और नित्य, नाशवान्‌ और अविनाशी आदि अनेक नामोंसे कहा गया है ।

पूर्वोक्त श्लोकार्ध (सोलह अक्षरों) में तीन धातुओंका प्रयोग हुआ है‒
(१)        ‘भू सत्तायाम्’‒जैसे, ‘अभावः’ और ‘भावः’ ।
(२)        ‘अस् भुवि’‒जैसे, ‘असतः’ और सतः’ ।
(३)        ‘विद् सत्तायाम्’‒जैसे, ‘विद्यते’ और ‘न विद्यते’ ।

यद्यपि इन तीनों धातुओंका मूल अर्थ एक ‘सत्ता’ ही है, तथापि सूक्ष्म रूपसे ये तीनों अपना स्वतन्त्र अर्थ भी रखते हैं; जैसे‒‘भू’ धातुका अर्थ ‘उत्पत्ति’ है, ‘अस्’ धातुका अर्थ ‘सत्ता’ (होनापन) है और ‘विद्’ धातुका अर्थ ‘विद्यमानता’ (वर्तमानकी सत्ता) है ।
(२)
नासतो विद्यते भावः’ पदोंका अर्थ है‒‘असतः भावः न विद्यते’ अर्थात्‌ असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है, प्रत्युत असत्‌का अभाव ही विद्यमान है । असत्‌ वर्तमान नहीं है । असत्‌ उपस्थित नहीं है । असत्‌ प्राप्त नहीं है । असत्‌ मिला हुआ नहीं है । असत्‌ मौजूद नहीं है । असत्‌ कायम नहीं है । जो वस्तु उत्पन्न होती है, उसका नाश अवश्य होता है‒यह नियम है । उत्पन्न होते ही तत्काल उस वस्तुका नाश शुरू हो जाता है । उसका नाश इतनी तेजीसे होता है कि उसको दो बार कोई देख ही नहीं सकता अर्थात्‌ उसको एक बार देखनेपर फिर दुबारा उसी स्थितिमें नहीं देखा जा सकता । यह सिद्धान्त है कि जिस वस्तुका किसी भी क्षण अभाव है, उसका सदा-सर्वदा अभाव ही है । अतः संसारका सदा ही अभाव है । संसारको कितनी ही सत्ता दें, उसको कितना ही ऊँचा मानें, उसका कितना ही आदर करें, उसको कितना ही महत्त्व दें, पर वास्तवमें वह विद्यमान है ही नहीं । असत्‌ प्राप्त है ही नहीं, कभी प्राप्त हुआ ही नहीं, कभी प्राप्त होगा ही नहीं । असत्‌का प्राप्त होना सम्भव ही नहीं है ।

‘नाभावो विद्यते सतः’ पदोंका अर्थ है ‒‘सतः अभावः न विद्यते’ अर्थात्‌ सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है, प्रत्युत सत्‌का भाव ही विद्यमान है । दूसरे शब्दोंमें, सत्‌की सत्ता निरन्तर विद्यमान है । सत्‌ सदा वर्तमान है । सत्‌ सदा उपस्थित है । सत्‌ सदा प्राप्त है । सत्‌ सदा मिला हुआ है । सत्‌ सदा मौजूद है । सत्‌ सदा कायम है । किसी भी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था, क्रिया आदिमें सत्‌का अभाव नहीं होता । कारण कि देश, काल, वस्तु आदि तो असत्‌ (अभावरूप अर्थात्‌ निरन्तर परिवर्तनशील) हैं, पर सत्‌ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई कमी नहीं आती । अतः सत्‌का सदा भी भाव है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, सोमवार
अक्षयतृतीया
सत्संगसे लाभ कैसे लें ?


(शेष आगेके ब्लॉगमें)
परमात्मा कभी हमारेसे अलग नहीं होते । उनको हम जानें तो हमारे साथ हैं, हम न जानें तो हमारे साथ हैं; हम उनके सम्मुख हो जायँ तो हमारे साथ हैं, उनसे विमुख रहें तो हमारे साथ हैं । जहाँ मैं हूँ, वहाँ भी परमात्मा हैं । जो ‘हूँ’ है, वह ‘है’‒(परमात्मा) के साथ हैं । इस ‘हूँ’ को शरीरके साथ मान लेते हैं‒यह गलती है । परमात्मा यहाँ हैं, अभी हैं, मेरेमें हैं, मेरे हैं‒इस बातको पकड़ लो । ये बातें सीखनेके लिये और सुनने-सुनानेके लिये नहीं हैं । ये पकड़नेकी, स्वीकार करनेकी बातें हैं । संसारकी बातोंमें उलझ करके उनमें भी दो बातें कर लेते हो अर्थात्‌ सुख और दुःख, अनुकूल और प्रतिकूल‒ये दो मान्यताएँ कर लेते हो, इससे बड़ा भारी बन्धन होता है । इन दो चीजोंसे अर्थात्‌ द्वन्द्वोंसे रहित होनेसे मनुष्य सुखपूर्वक बन्धनसे मुक्त हो जाता है‒‘निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (गीता ५/३) । इसलिये द्वन्द्वोंमें नहीं फँसना चाहिये ।

संसारकी किसी समाज-सम्बन्धी बातको लेकर कोई कहता है कि यह ठीक है और कोई कहता है कि यह बेठीक है, तो वास्तवमें वे दोनों ही बेठीक हैं; क्योंकि दोनोंसे मुक्ति तो होती नहीं ! केवल संसारमें फँसनेका तरीका है । संसारकी दो बातोंको लेकर उनमेंसे किसी एक बातको पकड़ लेते हैं तो बड़ी भारी हानि होती है । इससे कल्याण नहीं होता । व्यवहारमें जो बात ठीक है, उसको कर लें, पर उसको पकड़ें नहीं । वह बात ठहरेगी नहीं, रहेगी नहीं और परमात्मा रहेंगे । परमात्माका सम्बन्ध कभी छूटेगा नहीं । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं । उस संसारमें अच्छा और मन्दा क्या, ठीक और बेठीक क्या, पूरा-का-पूरा बेठीक है । अब ये कहते हैं कि हम तो गृहस्थी हैं । अगर गृहस्थी हो तो अच्छा काम करो, फँसते क्यों हो ? काम गृहस्थीको भी करना है और साधुको भी करना है, पर फँसना नहीं है । मान और अपमान‒दोनोंको बराबर समझना है । ये दोनों ही तुल्य हैं‒‘मानापमानयोस्तुल्यः’ (गीत १४/२५) । जिस जातिका मान है, उसी जातिका अपमान है । ये दोनों ही ताज्य हैं । न मान ग्राह्य है और न अपमान ग्राह्य है । इसमें क्या राजी और क्या नाराज होवें ? ‘किं भद्रं किमभद्रं वा’ (श्रीमद्भागवत ११/२८/४)‒क्या ठीक और क्या बेठीक ?

गीतामें आया है‒‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ (गीता २/३८) । तो ‘समे कृत्वा’ का अर्थ क्या हुआ ? कि जय हो गयी तो क्या और पराजय हो गयी तो क्या ? लाभ हो जाय तो क्या और हानि हो गयी तो क्या ? सुख हो तो क्या और दुःख हो तो क्या ? ये तो मिटनेवाले हैं । रहनेवाली न जय है, न पराजय है, न लाभ है, न हानि है, न सुख है, न दुःख है । वक्तपर जो काम आया, उसे निर्लेप होकर कर दिया, बस । अतः संसारके संयोग-वियोगको महत्त्व मत दो । फिर यह सत्संगवाली स्थिति हो जायगी । परन्तु संसारके संयोग-वियोगको महत्त्व दोगे तो सत्संगकी बात स्थायी होनेके लिये आपको वक्त ही नहीं मिलेगा !

भगवान्‌ने भी आरम्भमें ही कह दिया‒ ‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’ (गीता २/१४) अर्थात्‌ ये सांसारिक चीजें आने-जानेवाली और अनित्य हैं, इनको तुम सह लो । सहनेका अर्थ है कि तुम विकृत मत होओ, राजी-नाराज मत होओ । ये सांसारिक पदार्थ जिसको व्यथा नहीं पहुँचाते, वह मुक्तिका पात्र होता है‒ ‘यं ही न व्यथयन्त्येते.....सोऽमृततत्वाय कल्पते’ (गीता २/१५) और जिसको ये व्यथा पहुँचाते हैं, उसकी मुक्ति नहीं होती । मान अच्छा है, अपमान खराब है‒इसको पकड़ लिया तो मुक्तिसे वंचित रह गये । ये मान-अपमान आदि आपको धोखा देनेवाले हैं । ये तो रहेने नहीं, पर आपको मुक्तिसे वंचित कर देंगे । इसलिये ठीक-बेठीक सब ताज्य है, छोड़नेकी चीज है । हम इनसे छूटें कैसे ? कि हम सम रहें । आप अपनी तरफ खयाल करें । मानके समय आप दूसरे और अपमानके समय आप दूसरे होते हो क्या ? इसलिये इनको न देखकर अपनेमें स्थित रहो, ‘स्व’ में स्थित रहो‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४) । इस ‘स्व’ में स्थितिको ही सत्संगके द्वारा पकड़ना है । सत्संगकी बातोंका सुख नहीं लेना है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
श्रीपरशुराम-जयन्ती
सत्संगसे लाभ कैसे लें ?



(शेष आगेके ब्लॉगमें)
सत्संगके समय ‘हम बदलनेवाले नहीं है’‒इसमें अपनी स्थिति करनी चाहिये । सत्संगके समय सत्संगका रस नहीं लेना है । सत्संगका सुख नहीं लेना है । सत्संगका तत्त्व समझना है, उसको धारण करना है, उसमें तल्लीन हो जाना है । उस तत्त्वके साथ आपका सम्बन्ध होना चाहिये । स्वयंका सम्बन्ध होनेसे जब अनुकूल साधन नहीं होगा, अनुकूल संग नहीं मिलेगा, अनुकूल पुस्तक नहीं मिलेगी, तो उस समय आपको अच्छा नहीं लगेगा, बुरा लगेगा । फिर आप भजन-चिन्तनमें आप-से-आप लग जाओगे । हमारा सम्बन्ध तो भगवान्‌के साथ है । तात्कालिक सुखकी अपेक्षा भगवान्‌के सम्बन्धको भीतरमें ज्यादा महत्त्व देना चाहिये । जैसे, मनुष्योंका रुपयोंमें एक आकर्षण है । रुपये कमानेमें चाहे सुख होवे, चाहे दुःख होवे, पर रुपयोंका आकर्षण वैसे ही रहता है । घाटा लगे तो भी आकर्षण रहता है और मुनाफा हो तो भी आकर्षण रहता है । इस प्रकार जिस जगह रुपयोंका महत्त्व बैठा हुआ है, उस जगह भगवान्‌का महत्त्व बैठाना चाहिये । भीतरमें रुपयोंका महत्त्व होनेसे जैसे रुपयोंकी बातें अच्छी लगती हैं, ऐसे ही भगवान्‌का महत्त्व होनेसे भगवत्सम्बन्धी बातें अच्छी लगेंगी ।

सत्संगी आदमीको पहले कम-से-कम यह सोच लेना चाहिये कि हमारा कौन है और हमारा कौन नहीं है । ध्यान देना, बड़ी मार्मिक बात है । जो हमारे साथ निरन्तर रहता है और हम जिसके साथ निरन्तर रहते हैं, वह हमारा है । हम जिसके साथ निरन्तर नहीं रह सकते और जो हमारे साथ निरन्तर नहीं रहता, वह हमारा नहीं है । अब जो हमारा है, उसको हम पहचानते क्यों नहीं ? जो हमारा नहीं है, सदा उसकी तरफ आकर्षण क्यों होता है ? कारण यह है कि जो हमारा है, सदा हमारे साथ रहता है, उसको अपना मानना छोड़ दिया और जो हमारा नहीं है, कभी हमें मिलता है कभी नहीं मिलता, उसको अपना मानना शुरू कर दिया । यहाँ गलती हुई है । धन, सम्पत्ति, वैभव, पुत्र, परिवार, मान, बड़ाई आदि कभी होते हैं और कभी नहीं होते, घटते-बढ़ते हैं, सदा साथमें नहीं रहते, पर उनको अपना मान लिया । जो अपना है, उससे विमुख हो गये, उसकी उपेक्षा कर दी ! मीराबाईने कहा कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई ।’ हमने ‘दूसरों न कोई’‒इस बातको नहीं पकड़ा, इसीलिये ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’‒इसका अनुभव नहीं हुआ । वे भगवान्‌ सबके हैं । वे प्राणिमात्रके हृदयमें रहते हैं‒‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ’ (गीता १८/६१) । उनकी तरफ हमें देखना चाहिये । मैं बहुत बार कहा करता हूँ कि भगवान्‌ सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सब व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण वृत्तियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण अवस्थाओंमें रहते हैं । ऐसा कहनेका तात्पर्य क्या है ? वे सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सबमें हैं तो हमारेमें भी हैं, सबके हैं तो हमारे भी हैं । इसलिये किसीको भी उनकी प्राप्तिसे निराश होनेकी जरूरत नहीं है । जो किसी देशमें हो, किसी देशमें न हो; किसी कालमें हो, किसी कालमें न हो; उसके साथ हमें सम्बन्ध नहीं जोड़ना है । उसका काम कर देना है, उसकी सेवा कर देनी है । उसके साथ सम्बन्ध जोड़ोगे तो दुःख पाओगे; क्योंकि वह सदा तो रहेगा नहीं ।

सत्संगके द्वारा जो सुख मिलता है, उसको मत लो । जिससे वह सुख मिलता है, उस भगवान्‌को पकड़ो । वह सुख भगवान्‌के यहाँसे आता है । वे भगवान्‌ हमारे हैं । ये शरीर-संसार हमारे नहीं हैं । अगर शूरवीरतासे आप इस बातको स्वीकार कर लो, तो बहुत ही लाभकी बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शनिवार
सत्संगसे लाभ कैसे लें ?


श्रोता‒सत्संगमें जैसी स्थिति रहती है, वैसी हर समय नहीं रहती, और हर समय सत्संग मिलता नहीं ?

स्वामीजी‒सत्संग न मिले तो पारमार्थिक पुस्तकें पढ़ो ।

श्रोता‒पुस्तकें पढ़नेको भी सदा समय नहीं मिलता ।

स्वामीजी‒-देखो, सब समय तो कोई बात रहती नहीं । संसारका सम्बन्ध भी सदा नहीं रहता । सत्संगमें जैसी स्थिति, जैसी वृत्तियाँ रहती हैं, वैसी हर समय नहीं रहतीं‒ऐसी बात नहीं है । स्थूल दृष्टिसे तो वैसा दीखता है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो भीतर सत्संगके जो संस्कार रहते हैं, वे स्थायी रहते हैं । उनके स्थायी रहनेसे ही आपकी सत्संगमें रुचि रहती है । वे संस्कार जितने अधिक स्थायी होंगे, उतनी ही रुचि अधिक होगी और जितनी रुचि अधिक होंगी, उतना ही साधन बढ़ेगा । अतः तात्कालिक चीज (सत्संग) मिले तो उससे अपनी रुचिको बढ़ाना चाहिये । भीतर सत्संगका महत्त्व अंकित रहना चाहिये कि यह बहुत लाभदायक है, इसकी बड़ी भारी आवश्यकता है । ऐसा होनेसे कहीं भी सत्संग हो तो आपकी रुचि होगी कि हम सत्संग करें ।

दूसरी बात, अभी जो सत्संग सुननेसे रुचि होती है, वह बुद्धिमें, मनमें, अन्तःकरण होती है । वह रुचि वास्तवमें आपके खुदकी होनी चाहिये । खुदकी रुचि होगी तो वह मिटेगी नहीं; क्योंकि खुद मिटता नहीं । अन्तःकरण तो प्रकृतिका कार्य होनेसे बदलता रहता है । तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी सिद्ध पुरुषोंमें सात्त्विक, राजस्, तामस वृत्तियाँ आती हैं (गीता १४/२२) । सिद्ध पुरुषोंमें और हमलोगोंमें फरक क्या रहता है ? उन वृत्तियोंके आनेपर सिद्ध पुरुष तो स्वाभाविक तटस्थ रहते हैं, पर हम उन वृत्तियाँके साथ मिल जाते हैं । सत्संगके समय जैसी वृत्तियाँ रहती हैं, और समयमें वैसी वृत्तियाँ नहीं रहतीं‒इसका कारण है अन्तःकरणकी अनित्यता, अन्तःकरणका एक रूप न रहना । बदलनेवाली चीजको जाननेवाले आप नहीं बदलते हो । रुचि और अरुचि‒दोनोंका जिसको अनुभव होता है, उसके साथ रुचि-अरुचि दोनोंका सम्बन्ध नहीं है ।

सात्त्विक, राजस्, तामस वृत्तियाँके साथ मिल जाना अस्वाभाविक है, और इनके साथ न मिलना स्वाभाविक है । स्वाभाविकताको जबतक नहीं पकड़ते, तबतक यह दशा रहती है । स्वयं (स्वरूप) अच्छे-मन्दे दोनोंको जाननेवाला है, दोनोंका प्रकाशक है, दोनोंका आश्रय है । उसके आश्रित ही अच्छी-मन्दी दोनों क्रियाएँ होती हैं । हमारी स्थिति उस स्वरूपमें होनी चाहिये‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४) । वह सम्पूर्ण वृत्तियाँका, संयोग-वियोगका आधार है, उनका निर्लिप्त प्रकाशक है । जैसे, दि़पक जल रहा है । अब आपलोग आयें तो दीपक वैसा ही है, आपलोग थोड़े आयें तो दीपक वैसा ही है । और कोई भी नहीं आये तो दीपक वैसा ही है । ऐसे ही आपका स्वरूप वृत्तियाँ आदिको प्रकाशित करनेवाला है, उनके साथ चिपकनेवाला नहीं है । अगर स्वरूप चिपकनेवाला होता तो एकके साथ ही रहता, दूसरेके साथ नहीं जाता । अगर आप सत्त्वगुणमें चिपक जाते तो रजोगुण-तमोगुणमें कौन जाता ? रजोगुणमें चिपक जाते तो सत्त्वगुण-तमोगुणमें कौन जाता ? तमोगुणमें चिपक जाते तो सत्त्वगुण-रजोगुणमें कौन जाता ? आपका चिपकानेका स्वभाव नहीं है । जाग्रत्‌, स्वप्न, और सुषुप्ति‒ये तीनों अवस्थाएँ आपके सामने आती हैं, पर आप किसी भी अवस्थाके साथ हरदम नहीं रहते । अवस्थाएँ बदलती हैं, आप नहीं बदलते । आप आने-जानेवाली वृत्तियाँके साथ, अवस्थाओंके साथ मिल जाते हो, इसीसे गलती होती है । इसमें आप तटस्थ रहो‒‘देखो निरपख होय तमाशा ।’ कभी नफा हुआ, कभी नुकसान हुआ, किसीका जन्मना हुआ, किसीका मरना हुआ, किसीका संयोग हुआ, किसीका वियोग हुआ‒यह तो होता ही रहता है, पर हम इसके साथ नहीं हैं और यह हमारे साथ नहीं है । ये बदलनेवाले हैं, हम बदलनेवाले नहीं हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒सत्संगसे मुफ्तमें लाभ मिलता है सो कैसे ?
उत्तर‒सत्संगसे जो लाभ होता है वह साधनसे नहीं होता । साधन करके जो परमात्माको प्राप्त करता है, वह कमाकर धनी बनता है और सत्संगसे वह गोद चला जाता है, कमाया हुआ मिल जाता है । सन्तोंका कमाया हुआ धन मिलता है । गोद जानेवालेको क्या जोर आवे ? आज कंगाल और कल लखपति । वह तो जा बैठा गोदमें । कमाये हुए धनका मालिक हो जाता है । सत्संगके द्वारा ऐसी चीजें मिलती हैं, जो वर्षोंतक साधन करनेसे भी नहीं मिलतीं । अतः सत्संग मिल जाय तो अवश्य करना चाहिये । मुफ्तमें कल्याण होता है, मुफ्तमें ।

प्रश्न‒नाम-जपसे अधिक सत्संगकी महिमा कही‒इसका क्या कारण है ?

उत्तर‒सत्संग करनेवाला नाम जपे बिना रह नहीं सकता । नाम-जप स्वाभाविक ही होगा ।

प्रश्न‒सत्संग न मिले तो क्या करें ?

उत्तर‒भगवान्‌से प्रार्थना करें हे नाथ ! हे नाथ ! करके पुकारो । भगवान्‌ सर्वसमर्थ हैं । इसके अलावा सत्‌-शास्त्रोंका अध्ययन करें ।

प्रश्न‒मनुष्यका सुधार करनेमें सबसे बढ़िया उपाय क्या है ? आप अपने अनुभवके आधारपर बतावें ?

उत्तर‒मेरेको जितना लाभ सत्संगसे हुआ है, उतना किसी साधनसे नहीं हुआ । अच्छे संगमें रहनेसे बड़ा भारी लाभ होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं । सत्संग मत छ़ोडो, जिस सत्संगसे अपने हृदयकि गाँठ खुलती है, आत्मसाक्षात्कार होता है, प्रकाश मिलता है, ऐसा सत्संग छोड़ो मत । सब कुछ मिल जाता है पर ‘सन्त समागम दुर्लभ भाई ।’

प्रश्न‒सत्संगसे प्रकाश कैसे मिलता है ?

उत्तर‒सत्संगतिका अर्थ होता है प्रकाश । जैसे हम कहीं जाते हैं और रात्रिका समय हो तो मोटरका प्रकाश सामने ही रहता है । ऐसा नहीं होता कि प्रकाश पीछे रह जाय और मोटर आगे निकल जाय । प्रकाश आगे ही रहेगा और वह प्रकाश चलनेके लिए रास्ता बताता है । ऐसे ही सत्संगतिसे मनुष्यको प्रकाश मिलता है कि हम कैसे चलें ? सत्संगकी बातें केवल याद कर लें, पुस्तकोंमें पढ़ लें, लोगोंसे कह दें और हम उसके अनुसार चलें नहीं तो प्रकाशको तेज करनेमात्रसे रास्ता नहीं कटता । लाइट कम भी है, परन्तु जहाँतक रास्ता दीखता है, वहाँतक हम चलते जायें तो उससे आगे दीखने ही लगेगा‒यह नियम है । परन्तु एक जगह खड़े-खड़े कितनी ही तेज लाइट कर लें, गन्तव्य स्थान नहीं दीखेगा । ऐसे ही सत्संगतिके द्वारा हमें जो प्रकाश मिल जाय उसके अनुसार चलें । तभी वह प्रकाश सार्थक होता है । जीवन न भी बनावें तो भी यह प्रकाश निरर्थक नहीं जाता; क्योंकि जो सत्य चीज है, वह प्रकट हो ही जाती है । सत्यकी विजय होती है, झूठकी विजय नहीं होती । परन्तु यदि सत्यका आदर करें तो बहुत जल्दी और विशेष लाभ ले सकते हैं । तो सत्संगकी बातें अपने आचरणमें लाना चाहिये ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख अमावस्या, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
अमावस्या
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
तुलसी पूरब पाप ते,  हरि चर्चा न सुहाय ।
जैसे ज्वर के जोर ते, भूख बिदा ह्वै जाय ॥
मनुष्यको बुखार आ जाता है तो भूख नहीं लगती, अन्न अच्छा नहीं लगता । अन्न अच्छा नहीं लगता तो इसका अर्थ है उसको रोग है । जब पित्तका जोर होता है तो मिश्री भी कड़वी लगती है । मिश्री कड़वी नहीं है, उसकी जीभ कड़वी है । इसी तरह जिसे भगवान्‌की चर्चा सुहाती नहीं तो इसका कारण है कि उसे कोई बड़ा रोग हो गया । कथामें रुचि नहीं होती तो स्पष्ट है कि अन्तकरण बहुत मैला है, मामूली मैला नहीं, ज्यादा मात्रामें मैला है ।

प्रश्न‒ज्यादा मैला होनेपर क्या उसको सत्संग दूर नहीं कर सकता ?

उत्तर‒सत्संग सब मैलोंको दूर कर सकता है; पर मनुष्य पासमें ही नहीं आता । बुखारका जोर होनेसे अन्न अच्छा नहीं लगता और मिश्री कड़वी लगती है । कैसे करें ? मिश्री कड़वी लगे तो भी खाते रहो । मिश्रीमें खुदमें ताकत है कि वह पित्तको शान्त कर देगी और मीठी लगने लगेगी । ऐसे ही भजनेमं रुचि नहीं हो तो भी भजन करते रहो । भजन करते-करते ज्यों-ज्यों पाप नष्ट होते हैं, त्यों-त्यों उसमें मिठास आने लगता है । सत्संगमें ऐसे लोग आये हैं जो रुचि नहीं रखते थे । पर किसीके कहनेसे आये तो फिर विशेषतासे आने लग गये ।

प्रश्न‒सत्संग प्रतिदिन क्यों किया जाय ?

उत्तर‒सत्संगकी महिमा क्या कहें ? सत्संग तो रोजाना करनेका है, नित्यप्रति करनेका है । यह त्यागनेका है ही नहीं । सत्संगसे सांसारिक बाधाएँ मिट जाती हैं । कोई बीमार होता है, कोई लड़ाई करता है, किसीको कोई बाधा लग जाती है‒ये सब तरह-तरहके साँप हैं जो काटते हैं । उनसे जहर चढ़ जाता है तो वह घबरा जाता है । वह अगर सत्संगमें जाकर सत्संगरूपी बूटी सूँघ ले तो स्वस्थ हो जाय, प्रसन्न हो जाय । चित्तकी चिन्ता दूर हो जाय । फिर जाकर संसारका काम करे । काम करते-करते उसमें उलझ जाते हैं तो जहर चढ़ जाता है । वह जहर सत्संगमें जानेसे ठीक हो जाता है । इस तरह करते हुए हमारे जो शत्रु हैं‒काम, क्रोध, राग, द्वेष आदि वे सब-के-सब मर जाते हैं । जैसे अन्न, जल आवश्यक है, साँस लेना आवश्यक है, उसी तरह सत्संग भी प्रतिदिन करना जरूरी है । वह तो रोजाना खुराक है । सत्संगसे बहुत शान्ति मिलती है । बहुत-सी मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं । सत्संग सूर्यकी तरह होता है जो अन्तःकरणके अन्धकारको दूर कर देता है । उससे पाप दूर हो जाते हैं, बिना पूछे शंकाएँ दूर हो जाती हैं । तरह-तरहकी जो हृदयमें उलझनें हैं, वे सुलझ जाती हैं । सत्संग जहाँ हो जाय, मिल जाय तो समझना चाहिये कि भगवान्‌ने विशेष कृपा की । भगवान्‌ शंकरने दो ही बात माँगी‒‘पद सरोज अनपायनी भगति’ और ‘सदा सत्संग ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक सज्जन मिले । वे कहते थे कि तीर्थोंका माहात्मय बहुत है । गंगाजी अच्छी हैं, यमुनाजी अच्छी हैं, प्रयागराज बड़ा अच्छा है‒ऐसा लोग कहते तो हैं, परन्तु किराया तो देते नहीं । किराया दें तो वहाँ जायें । सत्संगमें बढ़िया-बढ़िया बात सुनते हैं और परमात्माके धाम जानेके किराया भी मिलता है । सत्संगमें ज्ञान मिलता है, प्रेम मिलता है, भगवान्‌की भक्ति मिलती है । भगवान्‌ शबरीसे कहते हैं‒‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।’ दण्डक वन था, उसमें वृक्ष आदि सब सूखे हुए थे । उसमें शबरी रहती थी । यहाँ शबरीको सत्संग मिल गया, यह भगवान्‌की कृपा है । मतंग ऋषि थे, बड़े वृद्ध सन्त, कृपाकी मूर्ति । उन्होंने शबरीको आश्वासन दिया था कि बेटा, तू चिन्ता मत कर, यहाँ रह जा । ऋषि-मुनियोंने इसका बड़ा विरोध किया, पर सन्तकी कृपा बड़ी विचित्र होती है ।

         धनी आदमी राजी हो जाय तो धन दे दे, अपनी कुछ चीज दे दे, परन्तु सन्त कृपा करें तो भगवान्‌को दे दें । उनके पास भगवान्‌रूपी धन होता है । वे सामान्य धनके धनी नहीं होते हैं, असली धनके धनी होते है, मालामाल होते हैं और वह माल ऐसा विलक्षण है कि ‘दानेन वर्धते नित्यम्’, ज्यों-ज्यों देते हैं, त्यों-त्यों बढ़ता है । ऐसा अपूर्व धन है । अतः खुला खर्च करते हैं । खुला भंडार पड़ा हुआ है, अपार, असीम, अनन्त है; जिसक कोई अन्त ही नहीं है । भगवान्‌का ऐसा अनन्त अपार खजाना है । फिर भी मनुष्य मुफ्तमें दुःख पा रहे हैं । इसलिये सज्जनो, बड़े आश्चर्यकी बात है !
पानीमें   मीन   पियासी,        मोहि    देखत   आवै   हाँसी ।
जल बिच मीन, मीन बिच जल है, निश दिन रहत पियासी ॥

भगवान्‌में सब संसार है और सबके भीतर भगवान्‌ हैं । उन भगवान्‌से विमुख होते हैं तो सन्त-महात्मा जीवको परमात्माके सम्मुख कर देते हैं । ‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।’ अरे भाई ! परमात्मा तो सम्मुख है ही, हमारा प्यारा माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्बी, सम्बन्धी‒वह सब तरहसे अपना है । वे प्रभु हमारे हैं । सन्त ऐसी बात बता दें और हम वह बात सुनकर पकड़ लें तो बड़ा भारी लाभ होता है । स्वयं हम पकड़ें और किसी सन्त-महात्माके कहनेसे हृदयसे पकड़ें तो उसमें बड़ा अन्तर होता है ।

सन्त-महात्मा जो कहते हैं, उनके वचनोंका आदर करो । जमानत भी ली जाती है तो इज्जतदार आदमीकी । हर एककी जमानत नहीं होती है । ऐसे ही भगवान्‌के दरबारमें सन्त-महात्माओंकी और भक्तोंकी बड़ी इज्जत है, तभी तो गोस्वामीजीने कह दिया‒
सत्य बचन आधीनता   पर तिय मातु समान ।
इतने पै हरि ना मिले तो तुलसीदास जमान ॥
तुलसीदासजीकी जमानत है । सन्त लोग जमानत दे देते हैं और वह भगवान्‌के यहाँ चलती है । सन्तोंके यहाँ परमात्माका बड़ा खजाना रहता है । मुफ्तमें धन मिलता है, मुफ्तमें कमाया हुआ, तैयार किया हुआ, सत्संगसे यह सब मिल सकता है ।

प्रश्न‒कुछ लोगोंको सत्संग करना सुहाता ही नहीं । इसका क्या कारण है ?
उत्तर‒पापीका यह स्वाभाव है कि उसे सत्संग सुहाता नहीं ।
पापवंत कर      सहज सुभाऊ ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
                            (मानस ५/४३/२)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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