(गत
  ब्लॉगसे
  आगेका)
         
                      (२)
  वास्तवमें
  भगवान् भगवान्
  ही हैं । सन्त
  सन्त ही है ।
  सन्त भगवान्के
  बराबर नहीं, भगवान्
  उससे बड़े हैं । सन्तके
  ज्ञान,
  सामर्थ्य,
  शक्ति आदि सीमित
  हैं और भगवान्का
  सब कुछ अनन्त
  और असीम है ।
  माना, सन्त भगवान्को
  प्राप्त हो
  गया और
  दूसरेको भी
  उनकी प्राप्ति
  करा सकता है,
  पर वह भगवान्
  नहीं बन जाता । न्यायसे
  भी यह ठीक
  लगता है ।
  जैसे जब हमें
  कोई सन्त
  मिलता है तो
  हम कहते हैं‒ ‘महाराजजी
  ! भगवान्के
  दर्शन करा दो ।’
  इससे
  प्रत्यक्ष
  है कि सन्तके
  मिलनेसे
  हमारी
  आत्यन्तिक
  तृप्ति नहीं
  हुई; उनसे बड़ी जो
  एक वस्तु‒भगवान्
  है, उनको
  पानेकी इच्छा
  बनी रही ।
  इससे
  स्वाभाविक
  ही भगवान्का
  बड़ा होना
  प्रकट होता
  है और सन्त सदा भगवान्को
  बड़ा मानते
  आये हैं ।
         
            (३)
  सन्त भगवान्से
  बढ़कर हैं
  गोस्वामी
  तुलसीदासजी
  कहते हैं‒
         
      राम
  सिंधु घन
  सज्जन धीरा । चंदन
  तरु हरि संत
  समीरा ॥
         
      मोरें
  मन प्रभु अस
  बिस्वासा ।
  राम तें अधिक
  राम कर दासा ॥
         
            श्रीभगवान्ने
  भी
  दुर्वासासे
  कहा है‒
         
      अहं भक्तपराधीनो
  ह्यस्वतन्त्र
  इव द्विज ।
         
      साधुभिर्ग्रस्तहृदयो
   भक्तैर्भक्तजनप्रियः
  ॥
         
            सन्तोंने
  तो भगवान्को
  बड़ा बतलाया
  और भगवान् सन्तोंको
  बड़ा बतलाते
  हैं । परन्तु
  सन्तोंको भगवान्
  और सन्त
  दोनों ही बड़ा
  बतलाते हैं । भगवान्ने
  कहीं भी अपनेको
  सन्तसे बड़ा
  बतलाया हो‒ऐसा
  देखनेमें
  नहीं आया ।  इस दृष्टिसे
  बड़े हुए सन्त
  ही और हम यदि
  अपने लाभके
  लिये विचार
  करते हैं तो
  भी सन्त ही
  बड़े हैं;
  क्योंकि परमात्माके
  सच्चिदानन्दरूपमें
  जीवमात्रके
  हृदयमें
  रहते हुए भी
  सन्त-कृपा और
  सत्संगके बिना
  भगवान्के
  उस परम
  आनन्दमय
  स्वरूपके
  अनुभवसे
  वंचित रहकर
  जीव दुःखी ही
  रहते हैं ।
  भगवत्स्वरूपका
  अनुभव तो
  भगवद्भक्तिसे
  ही होता है और
  वह मिलती है
  सन्त-कृपा और
  सत्संगसे‒
         
      भगति
  तात अनुपम
  सुख मूला ।
  मिलइ जो
  होहिं संत
  अनुकूला ॥
         
      भगति
  स्वतंत्र
  सकल गुन खानी ।
  बिनु सतसंग न
  पावहिं
  प्रानी ॥
         
            अतएव
  हमारे लिये
  तो सन्त ही
  बड़े हुए ।
  भगवत्कृपासे
  प्राप्त हुए
  मानवदेहका
  फल मनुष्यके
  कर्म एवं साधनके
  अनुसार
  स्वर्ग, नरक
  अथवा मोक्ष‒सभी
  हो सकता है ।
  किन्तु सन्तोंकी
  कृपासे
  प्राप्त हुए
  सत्संगका फल
  केवल परम पद ही
  होता है । भगवान्
  तो
  दुष्टोंका उद्धार
  करते हैं
  उनका विनाश
  करके, पर सन्त
  दुष्टोंका
  उद्धार करते
  हैं उनकी वृत्तियोंका
  सुधार करके ।  भगवान् अपने
  बनाये हुए
  कानूनमें बँधे
  हुए हैं ।
  परन्तु
  सन्तोंमें
  दया आ जाती है ।
  इस प्रकार भी
  सन्त भगवान्से
  बड़े हैं । भगवान्
  सब जगह मिल
  सकते हैं, पर
  सन्त
  कहीं-कहीं ही
  हैं । अतएव
  वे भगवान्से
  दुर्लभ भी
  हैं‒
         
      हरि
  दुरलभ नहिं जगत
  में,     हरिजन
  दुरलभ होय ।
         
      हरि हेर्याँ
  सब जग मिलै,
  हरिजन कहिं
  एक होय ॥
         
            हमारा
  उद्धार
  करनेमें तो
  सन्त ही बड़े
  हुए, अतएव
  हमें
  उन्हींको
  बड़ा मानना
  चाहिये ।
         
            तात्त्विक
  दृष्टिसे
  देखें तो
  सन्त और भगवान्
  दोनों एक ही
  हैं; क्योंकि
  सन्त भगवान्से
  पृथक् अपनी
  आसक्ति, ममता,
  रुचि आदि
  नहीं रखते । अतः
  वे
  भगवत्स्वरूप
  ही हैं‒
         
      भक्ति
  भक्त भगवंत
  गुरु चतुर
  नाम, बपु एक ।
         
      इन के पद
  बंदन किएँ     नासत
  बिघ्न अनेक ॥
         
          (शेष
  आगेके
  ब्लॉगमें)
         
      ‒ ‘जीवनका
  कर्तव्य’
  पुस्तकसे
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