आश्चर्यकी
बात है कि हम
कामना उसकी
करते हैं, जो
नहीं है ।
भयभीत उससे
होते हैं,
जिसकी सत्ता
ही नहीं है । सुख नहीं
रहता, पर उसकी
कामनाको हम
पकड़ रखते हैं ।
दुःख नहीं
रहता, पर उसके
भयको हम पकड़
रखते हैं । यह
कितनी
बेसमझीकी
बात है ! सुखकी
इच्छासे ही दुःखका
भय होता है ।
जीनेकी
इच्छासे ही
मरनेका भय
होता है । यदि
इच्छा न रहे
तो न दुःख
रहेगा, न
दुःखका भय रहेगा
और न मरनेका
भय रहेगा । इच्छाकी
निवृत्ति
होते ही
जिज्ञासाकी
पूर्ति हो
जाती है अर्थात्
कुछ करना,
जानना और
पाना शेष
नहीं रहता ।
सुख
पापोंका
कारण नहीं है,
प्रत्युत
सुखकी इच्छा
पापोंका
कारण है* । सुखकी
इच्छा ही
नरकोंका
दरवाजा है† ।
सुखदायी
परिस्थितिको
रखनेमें सब
परतन्त्र
हैं, पर सुखकी
इच्छाको छोड़नेमें
सब
स्वतन्त्र
हैं । सुखकी
इच्छाको
छोड़नेमें
अभ्यास नहीं
है, प्रत्युत
विवेक है, जो
वर्तमानकी
वस्तु है । जिसको
रखनेमें हम
परतन्त्र
हैं, उसको हम
छोड़ना नहीं
चाहते और
जिसको
छोड़नेमें हम
स्वतन्त्र व
समर्थ हैं,
उसकी इच्छाको
रखना चाहते
हैं‒ इससे
बड़ी भूल और
क्या होगा ? यह भूल ही
बन्धनका, सब
पाप, दुःख,
सन्ताप, नरक
आदिका कारण
है ।
जो
नहीं है, उसको ‘है’
मानकर उसको
पानेकी अथवा
मिटानेकी
इच्छा करना
और उससे
भयभीत होना असत्का
संग है । उसकी
उपेक्षा
करना है । दशाको
न देखकर
सत्ताको
देखना सत्का
संग है ।
(१०)
दोषोंका
भाव
विद्यमान
नहीं है और
निर्दोषताका
अभाव
विद्यमान
नहीं है अर्थात्
दोषोंकी
सत्ता है ही
नहीं और
निर्दोषता
स्वतःसिद्ध
है । कोई भी
दोष स्थायी
नहीं रहता,
आता-जाता है और
उसके
आने-जानेका
ज्ञान जिसको
होता है, वह (निर्दोष
तत्त्व)
स्थायी रहता
है ।
तात्पर्य है
कि दोषोंका
ज्ञान
दोषीको नहीं
होता,
प्रत्युत
निर्दोषको
होता है और
निर्दोषतासे
ही होता है ।
दोषोंके
आने-जानेका
ज्ञान तो
सबको होता है,
पर अपने
आने-जानेका
ज्ञान कभी
किसीको नहीं
होता;
क्योंकि दोष असत्
हैं और हमारा
निर्दोष
स्वरूप सत् है
। हमारेमें
दोष हैं‒ऐसा
मानना ही
दोषोंको
निमन्त्रण
देना है, उनको
अपनेमें
स्थापन करना
है । अगर दोष
हमारेमें
होते तो फिर
जैसे हम
निरन्तर
रहते हैं, ऐसे
ही वे भी
निरन्तर रहते
और उनका कभी
अभाव नहीं
होता । दूसरी
बात, अगर दोष
हमारेमें
होते तो हम
सर्वांशमें
दोषी होते,
सबके लिये
दोषी होते और सदाके
लिये दोषी
होते ।
परन्तु कोई
भी मनुष्य
सर्वांशमें
दोषी नहीं
होता, सबके लिये
दोषी नहीं
होता और
सदाके लिये
दोषी नहीं होता
।
दोषोंको
सत्ता हमने
ही दी है,
इसलिये
दोषोंका
आना-जाना
हमें दीखता
है । अगर
दोषोंकी
सत्ता न
मानें तो दोष
हैं ही नहीं‒‘नासतो
विद्यते
भावः’ । जैसे सूर्यमें
अमावस्याकी रात
नहीं आ सकती,
ऐसे ही नित्य
स्वरूपमें
अनित्य दोष
नहीं आ सकते ।
जैसे
परमात्मा
निर्दोष हैं‒
‘निर्दोष
हि समं
ब्रह्म’ (गीता
५/१९), ऐसे ही
उनका अंश
जीवात्मा भी
निर्दोष है‒‘अविकार्योऽयमुच्यते’
(गीता २/२५), ‘ईस्वर अंस
जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज
रासी ॥’ (मानस,
उत्तर॰ ११७/१) । अतः
दोषोंको
अपनेमें
मानना और
दूसरोंमें
मानना‒दोनों
ही गलती है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी
ओर’
पुस्तकसे
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* काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः
।
महाशनो
महापाप्मा
विद्ध्येनमिह
वैरिणम् ॥ † त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः
।
कामः
क्रोधस्तथा
लोभस्तस्मादेतत्त्रयं
त्यजेत् ॥
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