।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
श्रीसीतानवमी
सत्‌-असत्‌का विवेक

 (गत ब्लॉगसे आगेका)
       आश्चर्यकी बात है कि हम कामना उसकी करते हैं, जो नहीं है । भयभीत उससे होते हैं, जिसकी सत्ता ही नहीं है । सुख नहीं रहता, पर उसकी कामनाको हम पकड़ रखते हैं । दुःख नहीं रहता, पर उसके भयको हम पकड़ रखते हैं । यह कितनी बेसमझीकी बात है ! सुखकी इच्छासे ही दुःखका भय होता है । जीनेकी इच्छासे ही मरनेका भय होता है । यदि इच्छा न रहे तो न दुःख रहेगा, न दुःखका भय रहेगा और न मरनेका भय रहेगा । इच्छाकी निवृत्ति होते ही जिज्ञासाकी पूर्ति हो जाती है अर्थात्‌ कुछ करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता ।

         सुख पापोंका कारण नहीं है, प्रत्युत सुखकी इच्छा पापोंका कारण है* । सुखकी इच्छा ही नरकोंका दरवाजा है । सुखदायी परिस्थितिको रखनेमें सब परतन्त्र हैं, पर सुखकी इच्छाको छोड़नेमें सब स्वतन्त्र हैं । सुखकी इच्छाको छोड़नेमें अभ्यास नहीं है, प्रत्युत विवेक है, जो वर्तमानकी वस्तु है । जिसको रखनेमें हम परतन्त्र हैं, उसको हम छोड़ना नहीं चाहते और जिसको छोड़नेमें हम स्वतन्त्र व समर्थ हैं, उसकी इच्छाको रखना चाहते हैं‒ इससे बड़ी भूल और क्या होगा ? यह भूल ही बन्धनका, सब पाप, दुःख, सन्ताप, नरक आदिका कारण है ।

        जो नहीं है, उसको ‘है’ मानकर उसको पानेकी अथवा मिटानेकी इच्छा करना और उससे भयभीत होना असत्‌का संग है । उसकी उपेक्षा करना है । दशाको न देखकर सत्ताको देखना सत्‌का संग है ।
(१०)
        दोषोंका भाव विद्यमान नहीं है और निर्दोषताका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ दोषोंकी सत्ता है ही नहीं और निर्दोषता स्वतःसिद्ध है । कोई भी दोष स्थायी नहीं रहता, आता-जाता है और उसके आने-जानेका ज्ञान जिसको होता है, वह (निर्दोष तत्त्व) स्थायी रहता है । तात्पर्य है कि दोषोंका ज्ञान दोषीको नहीं होता, प्रत्युत निर्दोषको होता है और निर्दोषतासे ही होता है । दोषोंके आने-जानेका ज्ञान तो सबको होता है, पर अपने आने-जानेका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता; क्योंकि दोष असत्‌ हैं और हमारा निर्दोष स्वरूप सत्‌ है । हमारेमें दोष हैं‒ऐसा मानना ही दोषोंको निमन्त्रण देना है, उनको अपनेमें स्थापन करना है । अगर दोष हमारेमें होते तो फिर जैसे हम निरन्तर रहते हैं, ऐसे ही वे भी निरन्तर रहते और उनका कभी अभाव नहीं होता । दूसरी बात, अगर दोष हमारेमें होते तो हम सर्वांशमें दोषी होते, सबके लिये दोषी होते और सदाके लिये दोषी होते । परन्तु कोई भी मनुष्य सर्वांशमें दोषी नहीं होता, सबके लिये दोषी नहीं होता और सदाके लिये दोषी नहीं होता ।

        दोषोंको सत्ता हमने ही दी है, इसलिये दोषोंका आना-जाना हमें दीखता है । अगर दोषोंकी सत्ता न मानें तो दोष हैं ही नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः’ । जैसे सूर्यमें अमावस्याकी रात नहीं आ सकती, ऐसे ही नित्य स्वरूपमें अनित्य दोष नहीं आ सकते । जैसे परमात्मा निर्दोष हैं‒ ‘निर्दोष हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९), ऐसे ही उनका अंश जीवात्मा भी निर्दोष है‒‘अविकार्योऽयमुच्यते’ (गीता २/२५), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज रासी ॥’ (मानस, उत्तर ११७/१)अतः दोषोंको अपनेमें मानना और दूसरोंमें मानना‒दोनों ही गलती है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
_______________________________________

    * काम एष क्रोध   एष         रजोगुणसमुद्भवः ।
        महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
   † त्रिविधं नरकस्येदं      द्वारं     नाशनमात्मनः ।
        कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥