(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
(८)
जिसका
अभाव है, उस असत्
(‘नहीं’) के
द्वारा अपना
महत्त्व
मानना मूल
दोष है, जिससे
सम्पूर्ण
दोष उत्पन्न
होते हैं । जिसका भाव है,
उस सत् (‘है’) के
द्वारा अपना
मानना मूल
गुण है, जिससे
सम्पूर्ण
गुण उत्पन
होते हैं ।
भूल यही है कि
जो मौजूद
नहीं है उसकी
सत्ता मानते
हैं, उसको अपना
मानते हैं और
जो मौजूद है,
उसकी सत्ता
नहीं मानते,
उसको अपना
नहीं मानते । मिला हुआ
तो बिछुड़
जायगा, वह
अपना कैसे हो
सकता है?
परन्तु जो
मौजूद नहीं
है, उस मिले हुएको
अपना
माननेसे जो
मौजूद है,
उसको अपना
माननेकी
शक्ति नहीं रहती
। ज्ञानकी
दृष्टिसे
आत्मा (स्व)
अपना है और
भक्तिकी
दृष्टिसे भगवान्
(स्वकीय) अपने
हैं । ‘स्व’ में
प्रीति होना
ज्ञान है और ‘स्वकीय’
में प्रीति
होना भक्ति
है ।
(९)
एक
सिद्धान्त
है कि जो आदि
और अन्तमें होता
है, वह मध्य (वर्तमान)
में भी होता
है तथा जो आदि
और अन्तमें
नहीं होता, वह
मध्यमें भी
नहीं होता* । जैसे
शरीर और
संसार पहले
भी नहीं थे और
बादमें भी
नहीं रहेंगे
तथा बीचमें
भी वे
प्रतिक्षण नाशकी
ओर जा रहे हैं अर्थात्
प्रतिक्षण
मर रहे हैं,
उनका प्रतिक्षण
अभाव हो रहा
है । परन्तु
शरीरी (शरीरवाला)
और
परमात्मतत्त्व
पहले भी थे,
बादमें भी
रहेंगे तथा
बीचमें भी
ज्यों-के-त्यों
विद्यमान हैं
।
जो आदि
और अन्तमें
नहीं है, उसका ‘नहीं’-पना
नित्य-निरन्तर
है तथा जो आदि
और अन्तमें है,
उसका ‘हैं’-पना नित्य-निरन्तर
है । जिसका
‘नहीं’-पना
नित्य-निरन्तर
है, वह ‘असत्’
है और जिसका ‘है’-पना
नित्य-निरन्तर
है, वह ‘सत्’ है । असत्के
साथ हमारा
नित्यवियोग
है और सत्के
साथ हमारा
नित्ययोग है ।
सुख-दुःख,
हर्ष-शोक, राग-द्वेष,
काम-क्रोध
आदि
आने-जानेवाले,
बदलनेवाले
हैं, पर सत्ता अर्थात्
स्वरूप
ज्यों-का-त्यों
रहनेवाला है ।
साधकसे
यह बहुत बड़ी
भूल होती है
कि वह
बदलनेवाली
दशाको देखता
है, पर
सत्ताको
नहीं देखता;
दशाको
स्वीकार
करता है, पर
सत्ताको
स्वीकार नहीं
करता । दशा पहले
भी नहीं थी और
पीछे भी नहीं
रहेगी; अतः
बीचमें दीखनेपर
भी है नहीं ।
परन्तु
सत्तामें
आदि, अन्त और
मध्य है ही
नहीं । दशाको
लेकर ही
सत्ताका आदि,
अन्त तथा
मध्य कहा
जाता है । दशा
कभी एकरूप
रहती ही नहीं
और सत्ता कभी
अनेकरूप
होती ही नहीं ।
जो दीखता है,
वह भी दशा है
और जो
देखनेवाली
है, वह भी दशा
है ।
जाननेमें
आनेवाली भी
दशा है और
जाननेवाली
भी दशा है ।
सत्तामें न
दीखनेवाला
है, न
देखनेवाला
है; न जाननेमें
आनेवाला है, न
जाननेवाला
है; न समझनेवाला
है, न
समझानेवाला
है; न श्रोता
है, न वक्ता है ।
ये
दीखनेवाला-देखनेवाला
आदि सब दशाके
अन्तर्गत
हैं ।
दीखनेवाला-देखनेवाला
आदि तो नहीं
रहेंगे, पर सत्ता
रहेगी;
क्योंकि दशा
तो मिट जायगी,
पर सत्ता रह
जायगी ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी
ओर’
पुस्तकसे
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*(१) यस्तु
यस्यादिरन्तश्च
स वै मध्यं च
तस्य सन् ।
(श्रीमद्भा॰ ११/२४/१७)
‘जिसके
आदि और
अन्तमें जो
है, वही
बीचमें भी है और
वही सत्य है ।’
आद्यन्तयोरस्य
यदेव केवलं कालश्च
हेतुश्च तदेव
मध्ये ॥
(श्रीमद्भा॰ ११/२८/१८)
‘इस
संसारके
आदिमें जो था
तथा अन्तमें
जो रहेगा, जो
इसका मूल कारण
और प्रकाशक
है, वही
परमात्मा
बीचमें भी है ।’
(२) न
यत्
पुरस्तादुत
यन्न
पश्चान्मध्ये
च तत्र व्यपदेशमात्रम्
।
(श्रीमद्भा॰ ११/२८/२१)
‘जो
उत्पत्तिसे
पहले नहीं था
और प्रलयके
बाद भी नहीं
रहेगा, ऐसा
समझना चाहिये
कि बीचमें भी
वह है नहीं‒केवल
कल्पनामात्र,
नाममात्र ही
है ।’
आदावन्ते
च यन्नास्ति
वर्तमानेऽपि
तत्तथा ।
(माण्डूक्यकारिका
२/६,४/३१) ‘जो
आदि और
अन्तमें नहीं
है, वह
वर्तमानमें
भी नहीं है ।’
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