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।। श्रीहरिः ।।
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।। श्रीहरिः ।।
प्रश्न‒कौन-से
मनुष्य मरनेके बाद भूत-प्रेत बनते हैं ?
उत्तर‒जिन मनुष्योंका खान-पान अशुद्ध होता है, जिनके
आचरण खराब होते हैं, जो दुर्गुण-दुराचारोंमे लगे रहते हैं, जिनका
दूसरोंको दुःख देनेका स्वभाव है, जो केवल अपनी ही जिद रखते हैं, ऐसे
मनुष्य मरनेके बाद कूर स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये जिनमें प्रविष्ट होते हैं,
उनको बहुत दुःख देते हैं और मन्त्र आदिसे भी जल्दी नहीं निकलते
।
जिन मनुष्योंका स्वभाव सौम्य है,
दूसरोंको दुःख देनेका नहीं है;
परन्तु सांसारिक वस्तु,
स्त्री, पुत्र, धन, जमीन आदिमें जिनकी ममता-आसक्ति रहती है, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद
सौम्य स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं तो उसको दुःख
नहीं देते और अपनी गतिका उपाय भी बता देते हैं ।
जिनको विद्या आदिका बहुत अभिमान, मद
होता है; उस अभिमानके कारण जो दूसरोंको नीचा दिखाते हैं, दूसरोंका
अपमान-तिरस्कार करते हैं, दूसरोंको कुछ भी नहीं समझते, ऐसे
मनुष्य मरकर ‘ब्रह्मराक्षस’ (जिन्न) बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं,
किसीको पकड़ लेते हैं तो बिना अपनी इच्छाके उसको छोड़ते नहीं ।
इनपर कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं चलता । दूसरा कोई इनपर मन्त्रोंका प्रयोग करता है तो उन
मन्त्रोंको ये स्वयं बोल देते हैं ।
एक सच्ची घटना है । दक्षिणमें मोरोजी पन्त नामक एक बहुत बड़े
विद्वान् थे । उनको विद्याका बहुत अभिमान था । वे अपने समान किसीको विद्वान् मानते
ही नहीं थे और सबको नीचा दिखाते थे । एक दिनकी बात है,
दोपहरके समय वे अपने घरसे स्नान करनेके लिये नदीपर जा रहे थे
। मार्गमें एक पेड़पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे हुए थे । वे आपसमें बातचीत कर रहे थे । एक
ब्रह्मराक्षस बोला‒हम दोनों तो इस पेड़की दो डालियोंपर बैठे हैं,
पर यह तीसरी डाली खाली है;
इसपर कौन आयेगा बैठनेके लिये ?
दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला‒यह जो नीचेसे जा रहा है न ?
यह आकर यहाँ बैठेगा;
क्योंकि इसको अपनी विद्वत्ताका बहुत अभिमान है । उन दोनोंके
संवादको मोरोजी पन्तने सुना तो वे वहीं रुक गये और विचार करने लगे कि अरे ! विद्याके
अभिमानके कारण मेरेको ब्रह्मराक्षस बनना पड़ेगा,
प्रेतयोनियोंमे जाना पड़ेगा ! अपनी दुर्गतिसे वे घबरा गये और
मन-ही-मन सन्त ज्ञानेश्वरजीके शरणमें गये कि मैं आपके शरणमें हूँ,
आपके सिवाय मेरेको इस दुर्गतिसे बचानेवाला कोई नहीं है । ऐसा
विचार करके वे वहींसे आलन्दीके लिये चल पड़े,
जहाँ संत ज्ञानेश्वरजी जीवित समाधि ले चुके थे । फिर वे जीवनभर
वहीं रहे, घर आये ही नहीं । सन्तकी शरणमें जानेसे
उनका विद्याका अभिमान चला गया और सन्त-कृपासे वे भी सन्त बन गये !
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।। श्रीहरिः ।।
अगर कोई मनुष्य यह सोचे कि अभी तो मैं पाप कर लूँ,
व्यभिचार, अत्याचार कर लूँ, फिर जब मरने लगूँगा तब भगवान्का नाम ले लूँगा,
भगवान्को याद कर लूँगा,
तो उसका यह सोचना सर्वथा गलत है । कारण कि मनुष्य जीवनभर जैसा कर्म करता है, मनमें
जैसा चिन्तन करता है, अन्तकालमें प्रायः वही सामने आता है । अतः दुराचारी मनुष्यको अन्तकालमें अपने दुराचारोंका ही चिन्तन
होगा और वह अपने पाप-कर्मोंके फलस्वरूप नीच योनियोंमें ही जायगा,
भूत-प्रेत ही बनेगा ।
अगर कोई मनुष्य काशी,
मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या आदि धामोंमें रहकर यह सोचता है कि धाममें रहनेसे,
मरनेपर मेरी सद्गति होगी ही,
दुर्गति तो हो नहीं सकती;
और ऐसा सोचकर वह पाप,
दुराचार, व्यभिचार, झूठ-कपट, चोरी-डकैती आदि कर्मोंमें लग जाता है तो मरनेपर उसकी भयंकर दुर्गति
होगी । वह अन्तिम समयमें प्रायः किसी कारणसे धामके बाहर चला जायगा और वहीं मरकर भूत-प्रेत
बन जायगा । अगर वह धाममें भी मर जाय, तो भी अपने पापोंके कारण वह भूत-प्रेत बन जायगा ।
प्रश्न‒प्रेत-योनि
न मिले, इसके लिये मनुष्यको
क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है । अतः मनुष्यको सांसारिक भोग और संग्रहकी आसक्तिमें न फँसकर परमात्माके
शरण हो जाना चाहिये; इसीसे वह अधोगतिसे, भूत-प्रेतकी
योनिसे बच सकता है ।
प्रश्न‒भूत-प्रेत
और पितरमें क्या अन्तर है ?
उत्तर‒ऐसे तो भूत, प्रेत, पिशाच, पितर आदि सभी देवयोनि कहलाते हैं[1],
पर उनमें भी कई भेद होते हैं । भूत-प्रेतोंका शरीर वायुप्रधान
होता है; अतः वे हरेकको नहीं दीखते । हाँ, अगर वे स्वयं किसीको अपना रूप
दिखाना चाहें तो दिखा सकते हैं । उनको मल-मूत्र आदि अशुद्ध चीजें खानी पड़ती हैं । वे
शुद्ध अन्न-जल नहीं खा सकते; परंतु कोई उनके नामसे शुद्ध पदार्थ दे तो वे खा सकते हैं । भूत-प्रेतोंके
शरीरोंसे दुर्गन्ध आती है ।
पितर भूत-प्रेतोंसे ऊँचे माने जाते हैं । पितर प्रायः अपने कुटुम्बके
साथ ही सम्बन्ध रखते हैं और उसकी रक्षा, सहायता करते हैं । वे कुटुम्बियोंको व्यापार आदिकी बात बता देते
हैं, उनको अच्छी सम्मति देते हैं, अगर घरवाले बँटवारा करना चाहें तो उनका बँटवारा कर देते हैं,
आदि । पितर गायके दूधसे बनी गरम-गरम
खीर खाते हैं, गंगाजल‒जैसा ठंडा जल पीते हैं, शुद्ध
पदार्थ ग्रहण करते हैं । कई पितर
घरवालोंको दुःख भी देते हैं, तंग भी करते हैं तो यह उनके स्वभावका भेद है ।
जैसे मनुष्योंमें चारों वर्णोंका,
ऊँच-नीचका, स्वभावका भेद रहता है,
ऐसे ही पितर, भूत, प्रेत, पिशाच आदिमें भी वर्ण,
जाति आदिका भेद रहता है ।
पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥
(अमरकोष
१ । १ । ११)
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