।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष शुक्ल नवमी , वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें आये मत्तः पदका तात्पर्य



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मत्त’ एतत्पदैः कृष्णो महिमानं स्वमब्रवीत्

तेषां प्रोक्तं  च तात्पर्यं भावगाम्भीर्यपूर्वकम् ॥

सबके मूलमें परमात्मा ही हैं । परमात्माके सिवाय दूसरा कोई कारण है ही नहीं और हो सकता ही नहीं । सृष्टिकी रचना, प्रलय आदिका कार्य करनेमें परमात्मा किसीकी भी मदद नहीं लेते; क्योंकि वे सर्वदा-सर्वथा समर्थ और स्वतन्त्र हैं । वे सब कुछ करनेमें अथवा न करनेमें तथा उलट-पलट करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं । संसारमें जो कुछ प्रभाव देखनेमें आता है, वह सब परमात्माका ही है, वस्तु, व्यक्ति आदिका नहीं । रावणने हनुमान्‌जीसे पूछा‒हे बंदर ! तुम किसके दूत हो ? किसके बलसे तुमने वाटिका उजाड़ी है ?’ उत्तरमें हनुमान्‌जीने कहा‒जिनकी शक्‍तिसे तुमने सम्पूर्ण चर-अचरको जीत लिया है, सबको अपने वशमें कर लिया है, मैं उन्हींका दूत हूँ ।’ हिरण्यकशिपुने प्रह्लादजीसे पूछा‒तू जिसका नाम लेता है, वह कौन है ?’ उत्तरमें प्रह्लाजीने कहा‒पिताजी ! जिनकी शक्‍तिसे आपने देवता, दानव आदि सबपर विजय की है, मैं उन्हींका नाम लेता हूँ ।’ तात्पर्य है कि सबमें उस परमात्माकी ही शक्‍ति है । उसके सिवाय दूसरा कोई ऐसा स्वतन्त्र शक्‍तिशाली है ही नहीं । इसी बातका वर्णन भगवान्‌ने गीतामें मत्तः’ पदसे किया है; जैसे‒

मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति’ (७ । ७) ।

मेरे सिवाय इस संसारका दूसरा कोई कारण है ही नहीं ।’

मत्त एवेतितान्विद्धि’ (७ । १२) ।

ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं ।’

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः’ (१० । ५) ।

प्राणियोके बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि सभी भाव मेरेसे ही होते हैं ।’

मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ (१० । ८) ।

यह सब संसार मेरेसे ही चेष्टा कर रहा है ।’

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च’ (१५ । १५) ।

स्मृति, ज्ञान आदि मेरेसे ही होते हैं ।’

तात्पर्य है कि संसारमें जो कुछ अच्छा-मन्दा, सुख-दुःख आदि है, उन सबमें भगवान्‌का ही प्रभाव है, शक्‍ति है । वे सभी भगवान्‌से ही होते हैं, भगवान्‌में ही रहते हैं और भगवान्‌में ही लीन होते हैं ।

संसारमें दो बातें होती हैं‒करना और होना । मनुष्य कर्म ‘करता’ है और उसका फल ‘होता’ है । करना’ मनुष्यके हाथमें है और होना’ भगवान्‌के हाथमें है । अतः करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्‍न रहना चाहिये ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष शुक्ल अष्टमी , वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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(१०) अठारहवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें अर्जुनने पहले संन्यासका और पीछे त्यागका तत्त्व जाननेके लिये पूछा; परन्तु उत्तरमें भगवान्‌ने पहले त्यागके विषयमें कहना शुरू किया । यह विपरीत क्रम क्यों ?

अठारहवें अध्यायके पहले भगवान्‌ने संन्यास शब्दका प्रयोग कर्मयोग (४ । ४१), ज्ञानयोग (५ । १३) और भक्तियोग (९ । २८; १२ । ६)‒तीनोंमें किया था; और त्याग शब्दका प्रयोग कर्मयोगमें किया था (२ । ४८; ४ । २०; ५ । ११ आदि) । अर्जुन संन्यास और त्याग‒दोनोंका तत्त्व जानना चाहते थे; परन्तु तीनों योगोंमें संन्यास’ पद आनेसे संन्यासका तत्त्व जानना अर्जुनके लिये जटिल हो गया । तात्पर्य है कि अर्जुनके मनमें संन्यासके विषयमें जितना अधिक संदेह था, उतना त्यागके विषयमें नहीं था । अतः अर्जुन मुख्यरूपसे संन्यासका ही तत्त्व जानना चाहते थे और त्यागका तत्त्व गौणतासे जानना चाहते थे । इसलिये भगवान्‌ने सूची-कटाहन्याय’[*] से पहले त्यागका वर्णन किया; क्योंकि त्यागके विषयमें भगवान्‌को थोड़ी ही बातें कहनी थीं, जबकि संन्यासके विषयमें बहुत बातें कहनी थीं, जिससे अर्जुनका संन्यास-विषयक संदेह दूर हो जाय ।

(११) गीतामें (७ । १२; १४ । ५‒१८, २२ आदि) सब जगह तीनों गुणोंका सात्त्विक, राजस और तामस’ऐसा क्रम दिया है; परन्तु अठारहवें अध्यायके सातवें श्‍लोकसे नवें श्‍लोकतक तामस, राजस और सात्त्विक‒ऐसा क्रम दिया है । यह विपरीत क्रम क्यों ?

इसका कारण है कि (१) अगर भगवान्‌ छठे श्‍लोकके बाद ही सातवें श्‍लोकमें सात्त्विक त्यागका वर्णन करते तो भगवान्‌के निश्‍चित मत और सात्त्विक त्यागमें पुनरुक्ति-दोष आ जाता; क्योंकि भगवान्‌का निश्‍चित मत और सात्त्विक त्याग एक ही है । (२) किसी वस्तुकी उत्तमता, श्रेष्ठता तभी सिद्ध होती है, जब उस वस्तुके पहले अनुत्तम, निकृष्ट वस्तुका वर्णन किया जाय । अतः सात्त्विक त्यागकी उत्तमता सिद्ध करनेके लिये भगवान्‌ पहले अनुत्तम तामस और राजस त्यागका वर्णन करते हैं । (३) आगे दसवेंसे बारहवें श्‍लोकतक सात्त्विक त्यागीका वर्णन हुआ है । अगर सात्त्विक त्यागका वर्णन सात्त्विक त्यागीके पास (नवें श्‍लोकमें) न देते तो तामस त्याग पासमें होनेसे सात्त्विक त्यागीके श्‍लोकोंका नवें श्‍लोकसे सम्बन्ध नहीं जुड़ता । इन सभी दृष्टियोंसे भगवान्‌ने यहाँ गुणोंका विपरीत क्रम रखा है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] किसीने लुहारके पास जाकर एक कड़ाह बनानेके लिये लोहा दिया । लुहार कड़ाह बनाने लगा । इतनेमें ही कोई सुई बनानेके लिये थोड़ा-सा लोहा लेकर लुहारके पास आ गया । लुहारने कड़ाह बनानेका बड़ा काम स्थगित कर दिया और सुई बनानेका छोटा-सा काम पहले कर दिया‒यही ‘सूचीकटाहन्याय’ कहलाता है ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष शुक्ल सप्तमी , वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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(७) तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने न करोति न लिप्यते’ अर्थात् न करता है और न लिप्‍त होता है‒ऐसा कहकर पहले कर्तृत्वका और फिर भोक्तृत्वका निषेध किया । परन्तु इन दोनोंको समझानेके लिये बत्तीसवें-तैतीसवें श्‍लोकोंमें पहले भोक्तृत्वका और फिर कर्तृत्वका उदाहरण दिया । यह विपरीत क्रम क्यों ?

कर्तृत्वके बाद ही भोक्तृत्व आता है अर्थात् कर्म करनेके बाद ही उस कर्मके फलका भोग होता है‒इस दृष्टिसे भगवान्‌ने इकतीसवें श्‍लोकमें पहले कर्तृत्वका और फिर भोक्तृत्वका निषेध किया है । परन्तु मनुष्य जो कुछ भी करता है, पहले मनमें किसी फलकी इच्छा, उद्देश्य रखकर ही करता है । तात्पर्य है कि मनमें पहले लिप्‍तता (भोग और संग्रहकी इच्छा) अर्थात् भोक्तृत्व आता है और फिर कर्तृत्व आता है अर्थात् कर्म करने लगता है । अतः भगवान्‌ने पहले उदाहरणमें भोक्तृत्वका और दूसरे उदाहरणमें कर्तृत्वका निषेध किया है । कारण कि भोक्तृत्वका त्याग होनेपर कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है अर्थात् फलेच्छाका सर्वथा त्याग होनेपर क्रिया करनेपर भी कर्तृत्व नहीं बनता ।

(८) चौदहवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘प्रमादालस्यनिद्राभिः’ पदमें प्रमादको सबसे पहले और निद्राको सबके अन्तमें दिया है; और अठारहवें अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थम्’ पदमें निद्राको सबसे पहले और प्रमादको सबके अन्तमें दिया है । यह विपरीत क्रम क्यों ?

चौदहवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें बाँधनेका प्रकरण है; अतः प्रमादको सबसे पहले दिया । कारण कि प्रमादसे जितना बन्धन होता है, उतना आलस्यसे नहीं होता और आलस्यसे जितना बन्धन होता है, उतना निद्रासे नहीं होता अर्थात् प्रमादसे ज्यादा बन्धन होता है, उससे कम आलस्यसे और उससे कम अति निद्रासे होता है । परन्तु अठारहवें अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें सुखका प्रकरण है; अतः निद्राको सबसे पहले दिया । कारण कि आवश्यक निद्रासे शरीरमें हलकापन आता है, वृत्तियाँ स्वच्छ होती हैं, जो लिखने-पढ़ने-सुनने आदिमें सहायक होती हैं । अतः आवश्यक निद्राका सुख इतना त्याज्य नहीं है । इससे ज्यादा त्याज्य आलस्यका सुख है और आलस्यसे ज्यादा त्याज्य प्रमादका सुख है । इस प्रकार चौदहवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें प्रमादको आरम्भमें देनेसे और अठारहवें अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें प्रमादको अन्तमें देनेसे सबसे अधिक बन्धनका कारण प्रमाद ही सिद्ध होता है । महाभारतमें भी प्रमादको मृत्यु बताया गया है‒प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि’ (उद्योग ४२ । ४) ।

(९) तेरहवाँ और चौदहवाँ‒ये दोनों अध्याय ज्ञानके हैं । तेरहवाँ अध्याय प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये और चौदहवाँ अध्याय प्रकृतिके कार्य गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये है । इन दोनों अध्यायोंके आरम्भके वर्णनको देखा जाय तो तेरहवें अध्यायके आरम्भमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तथा चौदहवें अध्यायके आरम्भमें महद्‍ब्रह्म (मूल प्रकृति) और परमात्माका वर्णन है; परन्तु वास्तवमें होना चाहिये था तेरहवें अध्यायके आरम्भमें मूल प्रकृति और परमात्माका वर्णन और फिर चौदहवें अध्यायके आरम्भमें होना चाहिये था उस प्रकृतिके क्षुद्र अंश क्षेत्रका और परमात्माके अंश क्षेत्रज्ञका वर्णन; परन्तु ऐसा क्रम न देनेका तात्पर्य है कि तत्त्वतः क्षेत्र और महद्‍ब्रह्म तथा क्षेत्रज्ञ और परमात्मा एक ही हैं, दो नहीं । अतः दोनोंका भेद मिटानेके लिये ही भगवान्‌ने ऐसा वर्णन किया है ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल षष्ठी , वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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(४) तीसरे अध्यायके तीसवें श्‍लोकमें तथा पाँचवें अध्यायके दसवें श्‍लोकमें तो भगवान्‌ने पहले कर्म अर्पण करके फिर कर्म करनेकी आज्ञा दी; और नवें अध्यायके सत्ताईसवें श्‍लोकमें पहले कर्म करके फिर कर्म अर्पण करनेकी आज्ञा दी । यह विपरीत क्रम क्यों ?

भक्तियोगमें भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़नेके दो तरीके हैं‒(१) भक्त कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण करते-करते स्वयं भगवान्‌के अर्पित हो जाते हैं, भगवान्‌के साथ अपनापन कर लेते हैं । भगवान्‌के अर्पित होनेपर फिर उनके द्वारा स्वतः ही भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये कर्म होते हैं । (२) भक्त पहले स्वयं भगवान्‌के अर्पित हो जाते हैं । भगवान्‌के अर्पित होनेपर उनके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे स्वतः ही भगवान्‌के अर्पित होते रहते हैं ।

तात्पर्य है कि जिनकी कर्म करनेमें ज्यादा प्रवृत्ति होती है, वे कर्म करते-करते भगवान्‌के अर्पित होते हैं, और जिनकी भगवान्‌के परायण रहनेकी ज्यादा रुचि होती है, वे पहलेसे ही भगवान्‌के अर्पित हो जाते हैं ।

(५) दसवें अध्यायके सातवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘एतां विभूतिं योगं च’ पदोंमें विभूतिको पहले तथा योगको पीछे कहा । परन्तु दसवें अध्यायके ही अठारहवें श्‍लोकमें अर्जुनने ‘विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च’ पदोंमें योगको पहले तथा विभूतिको पीछे कहा । यह विपरीत क्रम क्यों ?

मनुष्य पहले भगवान्‌की विभूतियोंको, विशेषताओंको ही देखता है, फिर वह भगवान्‌में आकृष्ट होता है । भगवान्‌के योग (सामर्थ्य)-को तो वह केवल मान ही सकता है । अतः भगवान्‌ने सबसे पहले विभूतिको कहा है । परन्तु अर्जुन पहले भगवान्‌के योग (सामर्थ्य, प्रभाव)-को सुनकर ही प्रभावित हुए थे और उन्होंने परं ब्रह्म परं धाम.... (१० । १२) आदि पदोंसे भगवान्‌की स्तुति भी की थी । अतः वे सबसे पहले योगकी बात पूछते हैं ।

(६) तेरहवें अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने पहले प्रकृतिका और फिर पुरुषका नाम लिया‒प्रकृतिं पुरुषं चैव; और तेईसवें श्‍लोकमें पहले पुरुषका और फिर प्रकृतिका नाम लिया‒य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च । यह विपरीत क्रम क्यों ?

तेरहवें अध्यायके उन्‍नीसवेंसे इक्‍कीसवें श्‍लोकतक बन्धनका विषय है और तेईसवें श्‍लोकमें बोधका विषय है । बन्धनमें प्रकृतिके मुख्य होनेसे उन्‍नीसवें श्‍लोकमें पहले प्रकृतिको और फिर पुरुषको बताया है । बोधमें पुरुषके मुख्य होनेसे तेईसवें श्‍लोकमें पहले पुरुषको और फिर प्रकृतिको बताया है । तात्पर्य यह है कि प्रकृति-पुरुषका विवेक होनेपर पहले प्रकृतिका, बन्धनका ही ज्ञान होता है, जिससे प्रकृति (बन्धन)-की निवृत्ति हो जाती है; अतः प्रकृतिको पहले बताया । जन्म-मरणसे रहित होनेमें, बोध होनेमें पुरुषका ही ज्ञान मुख्य है; क्योंकि पुरुषका जन्म-मरण होता ही नहीं, उसमें जन्म-मरणका अत्यन्त अभाव है; अतः पुरुषको पहले बताया ।


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