जिस ज्ञानके
अन्तर्गत देश-काल-वस्तुकी प्रतीति होती है, वह चित्स्वरूप ज्ञान ही है तथा उसके
अन्तर्गत आनेवाले देश-काल-वस्तुमात्र क्षणभर भी स्थिर
न रहकर केवल परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं । परिवर्तनशीलतामें
वस्तु न होकर केवल क्रिया है और वह क्रिया भी केवल प्रतीत होती है, वस्तुतः वहाँ क्रिया भी न टिककर केवल ज्ञानमात्र
ही है । वह ज्ञान चिन्मात्र है, ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । वही
अवश्य जाननेयोग्य वस्तु है–
यज्ज्ञात्वा
नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥
उसके जान
लेनेके बाद ज्ञात-ज्ञातव्य, प्राप्त-प्राप्तव्य होकर कृत-कृत्यता हो जाती है,
अर्थात् न कुछ जानना बाकी रह जाता है और न पाना बाकी रहता है, न करना ही बाकी रहता
है । वह ज्ञेय-तत्त्व–
अविभक्तं च
भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृं च
तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
(गीता
१३/१६)
–अनेक आकारोंके
विभक्त प्राणियोंमें अविभक्त है अर्थात् विभागरहित एक ही तत्त्व विभक्तकी तरह
प्रतीत होता है । अनेक व्यक्तियोंमें सत्ता-स्फूर्ति प्रदान करनेवाला एक ही तत्त्व
विद्यमान है । वही जगत्की उत्पत्ति करनेवाला होनेके कारण ब्रह्मा कहलाता है, पालन
करनेवाला होनेके कारण विष्णु कहलाता है और संहार करनेवाला होनेके कारण महादेवरूपसे
विराजमान है ।
‘ज्योतिषामपि
तज्ज्योतिः’–वह ज्योतियोंका भी ज्योतिःस्वरूप है ।
अर्थात् जैसे घट-पट आदि भौतिक पदार्थोंका प्रकाशक सूर्य है तथा वह सूर्य, घट-पट
आदिके भाव और अभाव दोनोंको प्रकाशित करता है, जैसे सूर्यके प्रकाश-अप्रकाशको
निर्विकाररूपसे नेत्र प्रकाशित करता है, नेत्रके देखनेकी क्रिया तथा नेत्रकी ठीक-बेठीक
अवस्थाको एकरूप रहता हुआ मन प्रकाशित करता है, मनकी शुद्धाशुद्ध अनेक विकारयुक्त
क्रियाको बुद्धि निर्विकाररूपसे प्रकाशित करती है तथा बुद्धिके भी ठीक-बेठीक
कार्यको आत्मा प्रकाशित करता है, उसी प्रकार समष्टि-सृष्टि, उसकी नाना क्रियाओंका
तथा अक्रिय अवस्थाओंको शुद्ध चेतनरूप परमात्मा प्रकाशित करता है । अतः वह ज्योतियोंका भी ज्योति है तथा अज्ञान-रूप अन्धकारसे अत्यन्त
भिन्न है । वह केवल ज्ञानरूप है, वही जाननेयोग्य है तथा गीतामें अध्याय १३,
श्लोक ७ से ११ तक बतलाये हुए अमानित्व, अदम्भित्व आदि बीस साधनोंसे प्राप्त किया
जा सकता है । वह सबके हृदयमें सदा-सर्वदा विद्यमान रहता
है । भगवान्ने स्पष्ट कहा है–
सर्वस्य चाहं
हृदि सन्निविष्टः । (गीता १५/१५), तथा ईश्वरः
सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति । (गीता
१८/६१)
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