।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७७ मंगलवार
गीताका ज्ञेय-तत्त्व


जिस ज्ञानके अन्तर्गत देश-काल-वस्तुकी प्रतीति होती है, वह चित्स्वरूप ज्ञान ही है तथा उसके अन्तर्गत आनेवाले देश-काल-वस्तुमात्र क्षणभर भी स्थिर न रहकर केवल परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं । परिवर्तनशीलतामें वस्तु न होकर केवल क्रिया है और वह क्रिया भी केवल प्रतीत होती है, वस्तुतः वहाँ क्रिया भी न टिककर केवल ज्ञानमात्र ही है । वह ज्ञान चिन्मात्र है, ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । वही अवश्य जाननेयोग्य वस्तु है–

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

उसके जान लेनेके बाद ज्ञात-ज्ञातव्य, प्राप्त-प्राप्तव्य होकर कृत-कृत्यता हो जाती है, अर्थात् न कुछ जानना बाकी रह जाता है और न पाना बाकी रहता है, न करना ही बाकी रहता है । वह ज्ञेय-तत्त्व–

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृं च तज्ज्ञेयं   ग्रसिष्णु  प्रभविष्णु च ॥
                                             (गीता १३/१६)

–अनेक आकारोंके विभक्त प्राणियोंमें अविभक्त है अर्थात् विभागरहित एक ही तत्त्व विभक्तकी तरह प्रतीत होता है । अनेक व्यक्तियोंमें सत्ता-स्फूर्ति प्रदान करनेवाला एक ही तत्त्व विद्यमान है । वही जगत्‌की उत्पत्ति करनेवाला होनेके कारण ब्रह्मा कहलाता है, पालन करनेवाला होनेके कारण विष्णु कहलाता है और संहार करनेवाला होनेके कारण महादेवरूपसे विराजमान है ।

‘ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः’–वह ज्योतियोंका भी ज्योतिःस्वरूप है । अर्थात् जैसे घट-पट आदि भौतिक पदार्थोंका प्रकाशक सूर्य है तथा वह सूर्य, घट-पट आदिके भाव और अभाव दोनोंको प्रकाशित करता है, जैसे सूर्यके प्रकाश-अप्रकाशको निर्विकाररूपसे नेत्र प्रकाशित करता है, नेत्रके देखनेकी क्रिया तथा नेत्रकी ठीक-बेठीक अवस्थाको एकरूप रहता हुआ मन प्रकाशित करता है, मनकी शुद्धाशुद्ध अनेक विकारयुक्त क्रियाको बुद्धि निर्विकाररूपसे प्रकाशित करती है तथा बुद्धिके भी ठीक-बेठीक कार्यको आत्मा प्रकाशित करता है, उसी प्रकार समष्टि-सृष्टि, उसकी नाना क्रियाओंका तथा अक्रिय अवस्थाओंको शुद्ध चेतनरूप परमात्मा प्रकाशित करता है । अतः वह ज्योतियोंका भी ज्योति है तथा अज्ञान-रूप अन्धकारसे अत्यन्त भिन्न है । वह केवल ज्ञानरूप है, वही जाननेयोग्य है तथा गीतामें अध्याय १३, श्लोक ७ से ११ तक बतलाये हुए अमानित्व, अदम्भित्व आदि बीस साधनोंसे प्राप्त किया जा सकता है । वह सबके हृदयमें सदा-सर्वदा विद्यमान रहता है । भगवान्‌ने स्पष्ट कहा है–

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः । (गीता १५/१५),  तथा ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति । (गीता १८/६१)

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७७ सोमवार
गीताका ज्ञेय-तत्त्व


सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेद्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्‍चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
                      (१३/१४)

‘सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होते हुए भी वे सम्पूर्ण इन्द्रियोंका कार्य करते हैं और आसक्तिरहित होते हुए भी सबका धारण-पोषण करते हैं । सर्वथा निर्गुण होते हुए भी सम्पूर्ण गुणोंके भोक्ता हैं ।’

बहिरन्तश्च    भूतानामचरं    चरमेव    च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
                                                (गीता १३/१५)

वे सब प्राणियोंके बाहर-भीतर हैं और चर-अचर प्राणिमात्र भी वे ही हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे वे अविज्ञेय हैं; क्योंकि वे ‘अणोरणीयान्’–अणुसे भी अणु हैं । जाननेमें आनेवाले जड पदार्थोंकी अपेक्षा उनका ज्ञान सूक्ष्म है और ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञाता अत्यधिक सूक्ष्म है । फिर वह जाननेमें कैसे आ सकता है ? श्रुति भी कहती है–

‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ?’

उसकी चित्-शक्तिसे बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंको जाननेमें समर्थ होती हैं । वह ज्ञेय-तत्त्व दूर-से-दूर और समीप-से-समीप है । देशकी दृष्टिसे देखनेपर पृथ्वीसे समीप शरीर, शरीरसे समीप प्राण, प्राणसे समीप इन्द्रियाँ, इन्द्रियाँसे समीप मन, मनसे समीप बुद्धि, बुद्धिसे समीप जीवात्मा तथा उसका भी प्रेरक और प्रकाशक सर्वव्यापी परमात्मा है और दूर देखनेपर शरीरसे दूर पृथ्वी, पृथ्वीसे दूर जल, जलसे दूर तेज, तेजसे दूर वायु, वायुसे दूर आकाश, आकाशसे दूर समष्टि मन, मनसे दूर महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे दूर परमात्माकी प्रकृति तथा प्रकृतिसे अति दूर स्वयं परमात्मा है । अतः देशकी दृष्टिसे परमात्मा दूर-से-दूर है । इसी प्रकार कालकी दृष्टिसे परमात्मा दूर-से-दूर तथा समीप-से-समीप है । वर्तमानकालमें तो वह परमात्मा है; क्योंकि जड वस्तुमात्र प्रत्येक क्षण नाशको प्राप्त हो रही है; अतएव उनकी तो सत्ता है ही नहीं । यदि सत्ता मानें भी तो उससे भी समीप वह सत्य-तत्त्व है और भूतकालकी ओर देखें तो दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, चतुर्युग, कल्प, परार्ध, ब्रह्माकी आयु तथा उससे भी पूर्व–

‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।’


वे सजातीय, विजातीय तथा स्वागत-भेदसे शून्य सत्स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही थे तथा भविष्यमें भी उसी प्रकार क्षण, पल, दण्ड, घड़ी, प्रहर, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, चतुर्युग, कल्प, परार्ध तथा ब्रह्माकी आयुके बाद भी वे परमात्मा रहेंगे–‘शिष्यते शेषसंज्ञः ।’ अतएव दूर-से-दूर भी वही तत्त्व विद्यमान है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७७ रविवार
गीताका ज्ञेय-तत्त्व


श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार ज्ञेयका अर्थ परब्रह्म परमात्मा है । विचार करनेपर प्रतीत होता है कि ज्ञेय उसे कहते हैं जो जाना जा सके, जानने योग्य हो अथवा जिसे जानना आवश्यक हो । इन तीनोंमें प्रथम जाना जा सकनेवाला ज्ञेय है संसार; क्योंकि यह नश्वर जगत् ही इन्द्रियोंके द्वारा या अन्तःकरणके द्वारा जाना जाता है तथा जिन साधनोंसे हम संसारको जानते हैं, वे साधन भी वास्तवमें इस ज्ञेय संसारके अन्तर्गत हैं । इस संसारका जानना भी उपयोगी है, पर वह जानना है उसके त्यागके लिये । अर्थात् यह संसार ज्ञेय होते हुए भी त्याज्य है । वस्तुतः ज्ञेय एकमात्र परमात्मा ही हैं । इसे गीताने स्पष्ट कहा है–

                      वेदैश्च सर्वैरहमेव वैद्यः । (१५/१५)
                      वेद्यं पवित्रम्– (९/१७)

तेरहवें अध्यायमें श्रीभगवान्‌ने ज्ञानके बीस साधनोंका नाम ‘ज्ञान’ बताकर उन साधनोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह ज्ञेय-तत्त्व परमात्मा है–यह बात स्पष्ट कही है–

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं  ब्रह्म   न  सत्तन्नासदुच्यते ॥
                                                 (गीता १३/१२)

इस श्लोकके पहले चरणमें ज्ञेय-तत्त्वको बतलानेकी प्रतिज्ञा करते हैं, दूसरे चरणमें जाननेका फल अमृतकी प्राप्ति बतलाते हैं, तीसरे चरणमें उस ज्ञेय-तत्त्वकी अलौकिकताका कथन करते हैं कि वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् ! इस प्रकार इस श्लोकके द्वारा परमात्माके निर्गुण-निराकार रूपका वर्णन करते हैं । अगले श्लोकमें परमात्माके सगुण-निराकार रूपका वर्णन करते हैं–

सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः  श्रुतिमल्लोके  सर्वमावृत्य   तिष्ठति ॥
                                               (गीता १३/१३)


‘सब जगह उनके हाथ-पैर हैं, सब जगह उनकी आँखें, सिर और मुँह हैं और सब जगह वे कानवाले हैं तथा सबको धेरकर वे स्थित हैं ।’ जैसे सोनेके ढेलेमें सब जगह सब गहने हैं, जैसे रंगमें सब चित्र होते हैं, जैसे स्याहीमें सब लिपियाँ होती हैं, जैसे बिजलीके एक होनेपर भी उससे होनेवाले विभिन्न कार्य यन्त्रोंकी विभिन्नतासे विभिन्न रूप धारण करते हैं–एक ही बिजली बर्फ जमाती है, अँगीठी जलाती है, लिफ्टको चढ़ाती-उतारती है, ट्राम तथा रेलको चलाती है, शब्दको प्रसारित करती तथा रेकार्डमें भर देती है, पंखा चलाती है, प्रकाश करती है–इस प्रकार उससे अनेकों परस्पर विरुद्ध और विचित्र कार्य होते देखे जाते हैं । इसी प्रकार संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आदि अनेक परस्पर विरुद्ध और विचित्र कर्म एक ही परमात्मासे होते हैं; पर वे परमेश्वर एक ही हैं–इस तत्त्वको न समझनेके कारण ही लोग कहते हैं कि जब परमात्मा एक है, तब संसारमें कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों हैं ? उन्हें पता नहीं कि जो ब्रह्म निर्गुण, निराकार तथा मन-वाणी और बुद्धिका अविषय है, वही सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला सगुण-निराकार परमेश्वर है ।

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