।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानमार्गमें तो तत्त्वसे जानना (ज्ञात्वा) और प्रविष्ट होना (विशते)‒ये दो ही होते हैंपर भक्तिमार्गमें भगवान्‌ने तत्त्वसे जानना (ज्ञातुम्) और प्रविष्ट होना (प्रवेष्टुम्) के सिवाय अपने दर्शन (द्रष्टुम्) की बात भी कही है* । भगवान् इन्द्रियोंका विषय न होनेपर भी इन्द्रियोंका विषय बन जाते हैं‒यह भगवान्‌की विलक्षण कृपा है ! यह विलक्षणता भक्तिमें ही हैज्ञानमें नहीं ।

ज्ञानकी प्रधानता होनेपर साधक भगवान्‌के निर्गुण रूपको ही जानता हैपर भक्तिकी प्रधानता होनेपर साधक भगवान्‌के समग्र रूपको जानता है । जैसे बछड़ा गायके एक स्तनका पान करता है तो गायके चारों स्तनोंसे दूध टपकने लगता हैऐसे ही भक्तका भगवान्‌की तरफ आकर्षण (प्रेम) होता है तो भगवान् कृपा करके अपने समग्ररूपको प्रकट कर देते हैं । भगवान् उसके अज्ञानान्धकारको दूर कर देते हैं**उसका उद्धार भी भगवान् कर देते हैं । तात्पर्य है कि अनन्य भक्तको अपने उद्धारके लिये कुछ करना नहीं पड़ता । उसको ज्ञान करानेकीउसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान्‌पर होती है । भक्त सब क्रियाएँ करते हुए भी सदा भगवान्‌में ही बरतता हैभगवान्‌में ही स्थित रहता है । इतना ही नहींभक्त योगभ्रष्ट भी नहीं होताक्योंकि वह अपने साधनका आश्रय न रखकर भगवान्‌का ही आश्रय रखता है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मदव्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति    शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
                                                               (गीता १८ । ५६)
‘मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है ।’

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
                                                                   (गीता १८ । ५८)
‘मेरेमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा ।’

तात्पर्य है कि भगवान् भक्तपर विशेष कृपा करके उसके साधनकी सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंको भी दूर कर देते हैं और अपनी प्राप्ति भी करा देते हैं । इसलिये ब्रह्म-सूत्रमें आया है‒‘विशेषानुग्रहश्च’ (३ । ४ । ३८) ‘भगवान्‌की भक्तिका अनुष्ठान करनेसे भगवान्‌का विशेष अनुग्रह होता है ।’

जहाँ भक्ति होती हैवहाँ ज्ञान और वैराग्य अपने-आप आ जाते हैं । अत: भक्तको ज्ञान और वैराग्यकी प्राप्तिके लिये परिश्रम नहीं करना पड़ता । श्रीमद्भागवत-माहात्म्यमें ज्ञान और वैराग्यको भक्तिके बेटे बताया है‒

अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ ।
ज्ञानवैराग्यनामानौ      कालयोगेन जर्जरौ ॥
                                                                          (१ । ४५)

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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 *     भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
         ज्ञातुं द्रष्टुं  च   तत्त्वेन  प्रवेष्टुं  च परन्तप ॥ (गीता ११ । ५४)
 ** तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं    तम:       ।
     नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ (गीता १० । ११)

  † तेषामहं    समुद्धर्ता   मृत्युसंसारसागरात्  ।
     भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (गीता १२ । ७)

  ‡ सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: ।
     सर्वथा वर्तमानोऽपि   स योगी मयि वर्तते ॥ (गीता ६ । ३१)


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
महाशिवरात्रिव्रत
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्ति प्रत्येक साधनके आरम्भमें पारमार्थिक आकर्षणके रूपमें रहती हैक्योंकि परमात्मामें आकर्षण हुए बिना कोई मनुष्य साधनमें लग ही नहीं सकता । साधनके अन्तमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके रूपमें भक्ति रहती है‒‘मद्धक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४)क्योंकि इसकी प्राप्तिमें ही साधनकी पूर्णता है । इसलिये ब्रह्मसूत्रमें अन्य सब धर्मोंकी अपेक्षा भगवद्धक्ति-विषयक धर्मको श्रेष्ठ बताया गया है‒‘अतस्लितरज्यायो लिङ्गाच्च’ (३ । ४ । ३९) । गीतामें भी अर्जुनने भगवान्‌से प्रश्न किया कि सगुण और निर्गुण‒दोनों उपासकोंमें कौन श्रेष्ठ है तो भगवान्‌ने उत्तरमें सगुण उपासकोंको ही श्रेष्ठ बताया‒
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया  परयोपेतास्ते  मे  युक्ततमा  मता: ॥
                                                                               (१२ । २)
‘मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैंवे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं ।’

प्रत्येक साधकको अन्तमें भक्तिमार्गमें आना ही पड़ेगा,क्योंकि वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है । गीतामें आया है‒
अहङ्कारं बलं दर्पं         कामं    क्रोध  परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्मम: शान्तो         ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
ब्रह्मभूत:  प्रसन्नात्मा     न  शोचति न काङ्क्षति ।
सम:  सर्वेषु   भूतेषु     मद्धक्तिं   लभते   पराम् ॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।
ततो मां  तत्त्वतो  ज्ञात्वा   विशते    तदनन्तरम् ॥
                                                                 (१८ । ५३‒५५)
‘अहङ्कारबलदर्पकामक्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर साधक ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है ।’

 ‘वह ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है । ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है ।’

 ‘उस पराभक्तिसे मेरेकोमैं जितना हूँ और जो हूँ‒ इसको तत्त्वसे जान लेता है तथा मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है ।’

 ‘मैं जितना हूँ और जो हूँ’ (यावान् यश्चास्मि)‒यह बात सगुणकी ही हैक्योंकि यावान्-तावान् निर्गुणमें हो सकता ही नहींप्रत्युत सगुणमें ही हो सकता है* । इससे सगुणकी विशेषता तथा मुख्यता सिद्ध होती है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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चतुःश्लोकी भागवतमें भी भगवान्‌ने ‘यावान्’ पदका प्रयोग करते हुए ब्रह्माजीसे कहा है‒
    यावानहं यथाभावो   यद्रूपगुणकर्मक: ।
    तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ (श्रीमद्भा २ । ९ । ३१)
         
            ‘मैं जितना हूँ, जिस भावसे युक्त हूँजिन रूपगुण और लीलाओंसे समन्वित हूँउन सबके तत्त्वका विज्ञान तुम्हें मेरी कृपासे ज्यों-का-त्यों प्राप्त हो जाय ।’


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति
  

(गत ब्लॉगसे आगेका)
अभेदवादी कहते हैं कि भक्तिमें भगवान् और भक्त‒ ये दो होते हैं और दूसरेसे भय होता है‒‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’(बृहदारण्यक १ । ४ । २) । भय दूसरेसे तो होता हैपर आत्मीय (अपने) से भय नहीं होता । भगवान् दूसरे नहीं हैं,प्रत्युत आत्मीय हैं । बालकके लिये माँ द्वितीय नहीं होती,प्रत्युत आत्मीय होती है । इसलिये बालकको माँसे भय नहीं होता । जैसे माँकी गोंदमें जानेसे बालक अभय हो जाता है,ऐसे ही भगवान्‌की शरणमें जानेसे मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है ।

असत् (संसार) की तरफ खिंचाव ही असाधन हैजो पतन करनेवाला है और सत् (परमात्मा) की तरफ खिंचाव ही साधन हैजो उन्नति करनेवाला है । ‘ज्ञान’ से बातें तो समझमें आ जाती हैंपर संसारका खिंचाव नहीं मिटता ।संसारका खिंचाव तो ‘प्रेम’ से ही मिटता है* । तत्त्वज्ञान होनेपर भी परमात्मामें खिंचाव (प्रेम) हुए बिना संसारका खिंचाव सर्वथा नहीं मिटता । अत: प्रेम ज्ञानसे भी श्रेष्ठ है ।वह प्रेम प्रकट होता है‒भगवान्‌को अपना माननेसे और संसारको अपना न माननेसे । इसलिये सगुणकी भक्ति मुख्य है ।

कर्मयोगीमें त्यागका बल है और ज्ञानयोगीमें विवेकका बल हैपर भक्तियोगीमें भगवान्‌के विश्वासका बल है ।भगवान्‌के विश्वासका बल होनेसे भक्त बहुत जल्दी विकारोंसे मुक्त हो जाता है । ज्ञानमार्गके साधकोंका भी यह अनुभव है कि विकारोंके कारण चित्तमें हलचल होनेके समय भगवान्‌के शरण होकर उनको पुकारनेसे जैसा लाभ होता हैवैसा केवल विचार करनेसे नहीं होता । इसलिये भगवान्‌ने ज्ञानमार्गके साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कही है‒
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
                                                                           (गीता ६ । १४)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
                                                                          (गीता २ । ६१)
यह भक्तिकी विशेषता है !

६. भक्तिकी मुख्यता

परमात्मप्राप्तिके सभी साधनोंमें भक्ति मुख्य है ।ज्ञानमार्गी ऐसा कहते हैं कि किसी भी मार्गसे चलोअन्तमें ज्ञानमें ही आना पड़ेगापरन्तु यह बात ठीक जँचती नहीं । वास्तवमें भक्ति ही अन्तमें है । ज्ञानमें तो अखण्ड स्थिर रस हैपर भक्तिमें अनन्तप्रतिक्षण वर्धमान रस है । भक्ति इतनी व्यापक है कि वह प्रत्येक साधनके आदिमें भी है और अन्तमें भी है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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             * अपनी सत्ताका अभाव कोई नहीं चाहता‒यह निर्गुणका प्रेम है । परन्तु इस (सत्तामात्रके) प्रेमसे संसारका खिंचाव नहीं मिटता । कारण कि इसमें विवेककी प्रधानता रहती है । विवेकमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं । इसलिये विवेककी प्रधानतासे असत्‌की सत्ता नहीं मिटती,भले ही वह कल्पित क्यों न हो ! परन्तु परमात्मामें विशेष खिंचाव (प्रेम) होनेसे असत्‌का खिंचाव मिट जाता है । इसलिये श्रीरामचरितमानसमें आया है‒‘प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥’ (उत्तर ४९ । ३) 


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
विजया एकादशी-व्रत (सबका)
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति
  

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानका अनुभव होनेपर उसमें भक्तिसे बाधा नहीं लगती । भगवान् शंकरसनकादिक नारदजीवेदव्यासजी,शुकदेवजी आदि पूर्ण ज्ञानी होते हुए भी भगवान्‌की लीला-कथाएँ गाते और सुनते हैं । वास्तवमें बाधक है‒संसारकी आसक्ति । अत: ज्ञानमें द्वैतबुद्धि बाधक नहीं हैप्रत्युत संसारकी आसक्ति बाधक है । भक्तिमें तो प्रेम होता है,आसक्ति नहीं होती । प्रेम आसक्तिको मिटा देता है । अत: ज्ञानमें भक्ति बाधक नहीं है ।

जब साधक पहले ही अपनी धारणा बना लेता है कि परमात्मा निर्गुण ही हैं या परमात्मा सगुण ही हैंद्वैत ही ठीक है या अद्वैत ही ठीक हैतो फिर उसको वैसा ही दीखने लग जाता है । वास्तवमें इस तरह एक धारणा (आग्रह) बना लेनेसे तत्त्वबोधमें बाधा लगती है । विभिन्न सम्प्रदायोंमें हाँ-में-हाँ मिलानेवाले लोग तो अधिक होते हैंपर अनुभव करनेवाले बहुत कम होते हैं । जो अपने सम्प्रदायकी बात मानते हुए भी ‘वास्तविक तत्त्व क्या है ? ऐसी सच्ची जिज्ञासा रखता है और अपने मतका आग्रह नहीं रखता,उसीको सुगमतापूर्वक तत्त्वबोध हो सकता है । वास्तवमें ज्ञान और भक्तिमें कोई फर्क नहीं है । ज्ञानके बिना प्रेम आसक्ति है और प्रेमके बिना ज्ञान शून्य है । परन्तु ज्ञानमार्गी भक्तिमार्गीका तिरस्कार (उपेक्षानिन्दा या खण्डन) करता है तो ज्ञानकी सिद्धिमें बाधा लग जायगी और भक्तिमार्गी ज्ञानमार्गीका तिरस्कार करता है तो भक्तिकी सिद्धिमें बाधा लग जायगी । वास्तवमें अभेदवादी भेदवादियोंकी जैसी निन्दा करते हैंवैसी निन्दा भेदवादी अभेदवादियोंकी नहीं करते । भेदवादी केवल यह कहते हैं कि अभेदवादी मायावादी हैंक्योंकि वे संसारको माया मानते हैं । परन्तु वास्तवमें अभेदवादी मायावादी नहीं हैप्रत्युत ब्रह्मवादी हैं ।

वेदान्त पढ़नेवाले कोई-कोई अभेदवादी व्यक्ति भक्तिको पराधीन (छोटा) बताते हैं । वास्तवमें भक्ति परम स्वतन्त्र है‒‘भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी’ (मानसउत्तर४५ । ३) । यदि परमात्माको ‘पर’मानेंगे तो अद्वैत सिद्धान्त भी सिद्ध नहीं होगाक्योंकि परमात्माको ‘पर’ माननेसे जीव और ब्रह्मकी एकता कैसे होगी अत: परमात्मा ‘पर’ नहीं हैं,प्रत्युत ‘स्व’ हैं । ‘स्व’ के दो अर्थ होते हैं‒स्वयं (स्वरूप) और स्वकीय । परमात्मा स्वकीय (अपने) हैं । स्वकीयकी अधीनता परम स्वाधीनता हैशिरोमणि स्वाधीनता है । इसलिये भक्तिमें महान्  स्वाधीनताप्रभुताऐश्वर्यविलक्षणता आदि है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
        माया तु प्रकृतिं विद्यान्मायिन तु महेश्वरम् ।
                                                                  (श्वेताश्वतर ४ । १०)
‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये ।’

                 यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् ।
                 तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥
                                                         (मुण्डक ३ । १ । ३)
‘जब यह द्रष्टा (जीवात्मा) सबके शासकब्रह्माके भी आदि कारणसम्पूर्ण जगत्‌के रचयितादिव्य प्रकाशस्वरूप परमपुरुषको प्रत्यक्ष कर लेता हैतब पुण्य-पाप दोनोंको भलीभाँति हटाकर निर्मल हुआ वह ज्ञानी महापुरुष सर्वोत्तम समताको प्राप्त कर लेता है ।’

मनोमय: प्राणशरीरो भारूपः सत्यसंकल्प आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकाम: सर्वगन्ध: सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः । (छान्दोग्य ३ । १४ । २)

 ‘वह ब्रह्म मनोमयप्राणशरीरप्रकाशस्वरूपसत्य- संकल्पआकाशस्वरूपसर्वकर्मासर्वकामसर्वगन्ध, सर्वरसइस समस्त जगत्‌को सब ओरसे व्याप्त करनेवाला,वाक्-रहित और सम्भ्रमशून्य है ।’

                       ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्
                           देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगढाम् ।
                       यः कारणानि निखिलानि तानि
                           कलात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥
                       (श्वेताश्वतर १ । ३)

 ‘उन महर्षियोंने ध्यानयोगमें स्थित होकर अपने गुणोंसे ढकी हुई उन परमात्मदेवकी स्वरूपभूत शक्तिका साक्षात्कार कियाजो परमात्मदेव अकेला ही उन कालसे लेकर आत्मातक सम्पूर्ण कारणोंपर शासन करता है ।’
          
            सगुण या निर्गुणसभी उपासनाएँ सगुण-निराकारसे ही आरम्भ होती हैं । परमात्मा हैं‒यह मान्यता भी सगुण-निराकारको लेकर ही हैक्योंकि प्रकृतिका कार्य होनेसे बुद्धि प्रकृतिसे अतीत निर्गुण-तत्त्वको पकड़ नहीं सकती । इसलिये निर्गुणके उपासकका लक्ष्य तो निर्गुण-निराकारका होता हैपर बुद्धिसे वह सगुण-निराकारका ही चिन्तन करता है ।

५. ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग

भक्ति और ज्ञानमेंद्वैत और अद्वैतमें परस्पर किंचिन्मात्र भी विरोध नहीं है । भक्तिमें ज्ञान बाधक नहीं है, प्रत्युत भक्तिका आग्रह बाधक है और ज्ञानमें भक्ति बाधक नहीं हैप्रत्युत ज्ञानका आग्रह बाधक है । पुस्तकीय ज्ञान अथवा वाचिक (बातूनी) ज्ञान होनेसे ही उसमें भक्ति (द्वैतभावना) बाधक दीखती है । पुस्तकीय या वाचिक ज्ञानके विषयमें गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं‒
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात ।
कौड़ी लागि लोभ बस    करहिं  बिप्र गुर घात ॥
                                                                  (मानसउत्तर ९९ क)

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे


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