एक
वस्तुका
निर्माण (बनाना)
होता है और एक
वस्तुका
अन्वेषण (ढूँढ़ना)
होता है । ढूँढ़नेसे
वही चीज
मिलती है, जो
पहलेसे थी ।
जो चीज बनायी
जाती है, पैदा
की जाती है, वह
पहले नहीं
होती
प्रत्युत
बननेके बाद
होती है ।
परमात्मतत्त्व
पैदा नहीं
किया जाता ।
वह कृतिसाध्य
नहीं है,
उसमें कर्ता,
कर्म, करण आदि
कोई भी कारक
लागू नहीं
होता । करना
सब
प्रकृतिमें
होता है‒‘गुणा
गुणेषु
वर्तन्ते’
(गीता ३/२८), ‘नान्यं
गुणेभ्यः
कर्तारम्’
(गीता १४/१९), ‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु
वर्तन्ते’
(गीता ५/९), ‘प्रकृतेः
क्रियमाणानि
गुणैः
कर्माणि
सर्वशः’ (गीता
३/२७) ।
प्रकृतिसे
अतीत तत्त्वमें
क्रिया है
नहीं, कभी हुई
नहीं, कभी
होगी नहीं,
कभी हो सकती
नहीं । वह
परमात्मतत्त्व
तो
ज्यों-का-त्यों
है । ‘नहीं’
की तरफ जो
आकर्षण है,
इसके सिवाय
उसकी प्राप्तिमें
कोई बाधा
नहीं है । ‘नहीं’
को सत्ता भी
आपने ही दी है ।
उसकी खुदकी
सत्ता तो है
ही नहीं ।
अपने बचपनको
आपने छोड़ा है
क्या ? किसीने
छोड़ा हो तो
बता दो कि किस
तारीखको
बचपन छोड़ा ?
बचपन तो
अपने-आप छूट
गया । यह असत्
एक क्षणभर भी नहीं
टिकता । इसके
बदलनेकी
गतिको देखा
जाय तो इसको
दो बार आप देख
नहीं सकते ।
पहले जैसा
देखा, दूसरी
बार देखनेसे
वह वैसा नहीं
रहा, बदल गया ।
अब आपके
खयालमें आये या
न आये, यह बात
अलग है ।
जो
वर्षमें
बदलता है, वही
महीनेमें
बदलता है, वही
दिनमें
बदलता है, वही
घण्टेमें
बदलता है, वही
मिनटमें, सेकेण्डमें
बदलता है ।
सिवाय
बदलनेके
संसारमें और
कुछ तत्व ही
नहीं है‒‘सम्यक्
प्रकारेण
सरति इति
संसारः’,
गच्छति इति जगत्’ । जो हरदम
बदलता है,
उसको तो आप
स्थायी
मानते हैं और
जो कभी
बदलेगा नहीं, कभी
बदल सकता
नहीं, उसकी
प्राप्तिको
कठिन मानते
हैं । जो
निरन्तर
रहता है, कभी
बदलता नहीं,
उसकी प्राप्ति
कठिन है तो
फिर सुगम
क्या है ? वह तो
स्वतः-स्वाभाविक
है, सिर्फ उधर
दृष्टि करनी
है ।
आप
ध्यान दें, यह
जो, ‘संसार है’
ऐसा दीखता है,
यह ‘है’-पना
क्या
संसारका है ?
अगर संसारका
है तो फिर बदलता
क्या है ? सत्का
तो अभाव होता
नहीं और
संसारका
अभाव प्रत्यक्ष
हो रहा है ।
अवस्थाका,
परिस्थितिका,
घटनाका,
देशका, कालका,
वस्तुका,
व्यक्तिका,
इन सबका
परिवर्तन
होता है‒यह प्रत्यक्ष
हमारे अनुभवकी
बात है ।
स्थूल-से-स्थूल
बात बतायें
कि आप यहाँ
नहीं आये तो भी
प्रकाश वैसा
ही था और आप आ
गये तो भी प्रकाश
वैसा ही है ।
आप आयें या
चले जायँ,
प्रकाशमें
क्या फर्क
पड़ता है ? ऐसे
ही आप कभी दरिद्री
हो जायँ, कभी
धनी हो जाँय, कभी
बीमार हो जायँ,
कभी स्वस्थ
हो जायँ, कभी
आपका सम्मान
हो जाय, कभी
अपमान हो जाय,
पर आपके
होनेपनमें
क्या फर्क
पड़ता है ? आपका
जो होनापन है,
सत्ता-स्वरूप
है, उसमें आप स्थित
रहो‒‘समदुःखसुखः
स्वस्थः’ (गीता
१४/२४) ।
तात्पर्य है
कि आपकी
सत्ता
निरन्तर
रहनेवाली है ।
अगर आपकी
सत्ता नहीं
रहेगी तो
चौरासी लाख
योनियाँ कौन
भोगेगा, नरक
कौन भोगेगा,
स्वर्ग आदि
लोकोंमें
कौन जायेगा ?
आपकी सत्ता निरन्तर
ज्यों-की-त्यों
है । उसमें
कोई
परिवर्तन
हुआ नहीं,
होगा नहीं, हो
सकता नहीं ।
विचार
करें, आपके
होनापनमें
कौन-से करणकी
सहायता है ?
किस कारककी
सहायतासे
आपका होनापन
है ? आपका
होनापन
करण-निरपेक्ष
है । अपने
होनापनमें
रहते हुए भी
आप उससे
चिपकते हैं,
जो 'नहीं' है । वास्तवमें
उससे कभी
चिपक सकते
नहीं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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