।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण नवमी, वि.सं. २०७५ गुरुवार
अहंकार तथा उसकी निवृति
        


जीवके बन्धनका मूल कारण है–अहंकार । अहंकार दो तरह का होता है –

१. अपरा (जड़) प्रकृतिका धातुरूप अहंकार (गीता ७/४; १३/५) । इसको अहंवृति (वृतिरूप समष्टि अहंकार) भी कहते हैं ।

२. चेतन द्वारा अपरा प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धसे होनेवाला तादात्म्यरूप अहंकार । इसको चिज्जडग्रन्थि (ग्रन्थिरूप व्यष्टि अहंकार) भी कहते हैं ।

धातुरूप अहंकारमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि यह अहंकार मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिकी तरह एक करण ही है । इसलिये सम्पूर्ण दोष तादात्म्यरूप अहंकारमें अर्थात्‌ देहाभिमानमें ही है–‘देहाभिमानिनी सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’ जीवन्मुक्त तत्वज्ञ भगवत्प्रेमी महापुरुषमें तादात्म्यरूप अहंकारका सर्वथा अभाव होता है; अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ धातुरूप अहंकारसे ही होती है ।[1] परन्तु जड़ प्रकृतिके कार्य शरीरको अपना स्वरूप मान लेनेके कारण मनुष्य अज्ञानवश अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है और बँध जाता है–‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७)

तादात्म्यरूप अहंकार (‘मैं हूँ’) से परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) आती है । परिच्छिन्नता आते ही इस अहंकारके कई भेद हो जाते हैं । वर्ण, आश्रम, शरीर, अवस्था, योग्यता, सम्बन्ध, व्यवसाय, धर्म, उपासना आदिको लेकर अहंकारके सैकड़ों-हजारों भेद हो जाते हैं । जैसे, वर्णको लेकर–‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं क्षत्रिय हूँ’ आदि; आश्रमको लेकर–‘मैं ब्रह्मचारी हूँ’, मैं गृहस्थ हूँ’ आदि; शरीरको लेकर–‘मैं पुरुष हूँ’, ‘मैं स्त्री हूँ’, ‘मैं मनुष्य हूँ’, ‘मैं देवता हूँ’ आदि; अवस्थाको लेकर–‘मैं बालक हूँ’, ‘मैं जवान हूँ’ आदि; योग्यताको लेकर–‘मैं पढ़ा-लिखा हूँ’, ‘मैं अपढ़ हूँ’, ‘मैं समझदार हूँ’ आदि; सम्बन्धको लेकर–‘मैं पिता हूँ’, ‘मैं माता हूँ’, ‘मैं पुत्र हूँ’ आदि; व्यवसायको लेकर–‘मैं अध्यापक हूँ’, ‘मैं व्यापारी हूँ’ आदि; धर्मको लेकर–‘मैं हिन्दू हूँ’, ‘मैं मुस्लमान हूँ’, ‘मैं ईसाई हूँ’ आदि; उपासनाको लेकर–‘मैं निर्गुणोपासक हूँ’, ‘मैं सगुणोपासक हूँ’, ‘मैं रामका उपासक हूँ’, ‘मैं कृष्णका उपासक हूँ’ आदि । ये सब-के-सब भेद अहम् में ही हैं, तत्वमें नहीं । इन सबमें ‘मैं’ तो अनेक हैं, पर ‘हूँ’ (सत्ता) एक ही है[2]



[1]धातुरूप अहंकारसे होनेवाली क्रियाओंको गीतामें कई प्रकारसे बताया गया है; जैसे–सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं (गीता १३/२९); प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सम्पूर्ण क्रियाएँ होती है (गीता ३/२७); गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (गीता ३/२८; १४/२३); गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता नहीं है (गीता १४/१९); इन्द्रियाँ ही अपने-अपने विषयोंमें बरत रही हैं (गीता ५/९) । 

[2] यह तादात्म्यरूप अहंकार प्राणीमात्रमें रहता है । अतः पशु-पक्षियोंमें भी अपनी जातिका अहंकार रहता है, इसीलिए वे अपनी जातिवालोंके साथ ही रहते हैं और अपनी जातिमें ही सन्तान उत्पन्न करते हैं । उनकी एक-एक जातिमें भी परस्पर अलग-अलग अहंकार रहता है । जैसे, एक मोहल्लेका कुत्ता दूसरे मोहल्लेमें जाता है तो दूसरे मोहल्लेका कुत्ता उसको वहाँ आने नहीं देता, उससे लड़ाई करता है – ‘कुत्ता देख कुत्ता गुर्राया, मैं बैठा फिर तू क्यों आया’ ? इस तरह प्राणियोंमें अहंताभेद तो है, पर सत्ता भेद नहीं है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं. २०७५ बुधवार
प्राप्त तत्त्वका अनुभव
        


स्वयं (स्वरुप) के सामने एक तो प्रतीति (संसार) है और एक प्राप्त (परमात्मा) है । प्रतीतिके सम्मुख होना बन्धन है और प्राप्तके सम्मुख होना मुक्ति है । वास्तविक दृष्टिसे देखा जाया तो मुक्तिका अभाव कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । प्राप्तकी सत्ता न मानकर प्रतीतिकी सत्ता मानना ही बन्धन है और प्रतीतिकी सत्ता न मानकर प्राप्तकी सत्ताका अनुभव करना ही मुक्ति है । अतः बन्धन और मोक्ष केवल मान्यतामें है, स्वरुपमें नहीं ।

प्रश्न–जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्त्व नहीं दीखता और जो प्रतीति है, वह संसार दीखता है–इसका क्या कारण है ?

उत्तर–जैसे, शरीरका मुख्य आधार हड्डी है, पर वह दीखती नहीं । जो मुख्य आधार नहीं है, वह चमड़ी दीखती है । जिसमें ताकत है, वह चीज दीखती नहीं और जो चीज दीखती है, उसमें ताकत नहीं । ऐसे ही परमात्मा संसारके मुख्य आधार हैं, पर वे नहीं दीखते, प्रत्युत संसार दीखता है । जो वास्तवमें है, वह दीखता नहीं और जो दीखता है, वह वास्तवमें है नहीं ।

जैसे हड्डी पिताके अंशसे और चमड़ी माताके अंशसे उत्पन्न होती है । अतः शरीर माता-पिताका अंश है । परन्तु शरीरमें न माता दीखती है, न पिता दीखता है । ऐसे ही संसार प्रकृति और परमात्माके संयोगसे उत्पन्न होता है ।[*] परन्तु संसारमें न प्रकृति दीखती है, न परमात्मा दीखते है, प्रत्युत केवल प्रकृतिका कार्य दीखता है !

शरीरमें गलेसे ऊपरी भागको ‘उत्तमांग’ कहते हैं; क्योंकि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण–ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसमें स्थित हैं । उत्तमांगमें भी ‘मुख’ प्रधान है; क्योंकि रसना (ज्ञानेन्द्रिय) और वाक् (कर्मेन्द्रिय)–ये दोनों इन्द्रियाँ मुखमें स्थित हैं । हड्डी भी मुखमें ही दाँतरूपसे दिखायी देती है । ऐसे ही संसारमें जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुषको भी मुखके समान जानना चाहिये । मुख प्रायः बन्द रहता है, पर विशेष प्रसन्न होनेसे मुख खुल जाता है और उसमें दाँत दीखने लग जाते हैं । ऐसे ही जिज्ञासुके सामने आनेपर वे महापुरुष विशेष प्रसन्न हो जाते हैं तो परमात्मतत्त्वका बोध प्रकट हो जाता है–

‘ब्रूयः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरुवो गुह्यमप्युत ।’
                             (श्रीमद्भागवत १/१/८, १०/१३/३)

गुढ़उ  तत्त्व  न साधु दुरावहिं ।
आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
                                      (मानस १/११०/१)

जैसे बछड़ा सामने आ जाय तो गायके स्तनोंमें दूध आ जाता है, ऐसे ही जिज्ञासु सामने आ जाय तो उस महापुरुषकी कृपा उमड़ पड़ती है । जिज्ञासु अपनी जिज्ञासाके अनुसार जितना ज्ञान ले सकता है, उतना ले लेता है ।

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे




[*] मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्हयम् ।
   सम्भवः  सर्वभूतानां  ततो  भवति  भारत ॥
   सर्वयोनिषु कौन्तेय  मूर्तयः  सम्भवन्ति  यः ।
   तासां  ब्रह्म  महद्योनिरहं  बीजप्रदः  पिता ॥
                                                             (गीता १४/३-४)

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण सप्तमी, वि.सं. २०७५ मंगलवार
                       जानकी-जयन्ती
प्राप्त तत्त्वका अनुभव
        


जैसे सोनेको जाननेवाला मनुष्य सोना और गहना–दोनोंको ही जानता है, ऐसे ही परमात्मतत्त्वको जाननेवाला तत्त्वज्ञ महापुरुष सत्तायुक्त परमात्मा (प्राप्त) को भी जानता है और सत्तारहित संसार (प्रतीति) को भी जानता है–

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि   दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
                                                  (गीता २/१६)

‘असत्‌का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।’

असत् (प्रतीति) के दो विभाग हैं–शरीर तथा संसार । शरीरको संसारकी सेवामें समर्पित कर देना ‘कर्मयोग’ है और संसारसे सुख चाहना ‘जन्ममरणयोग’ है । सत् (प्राप्त) के भी दो विभाग हैं–आत्मा तथा परमात्मा । आत्माका अपने-आपमें स्थित हो जाना ‘ज्ञानयोग’ है और अपने-आपको परमात्माके समर्पित कर देना ‘भक्तियोग’ है । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग–तीनोंमेंसे किसी एकके भी पूर्ण होनेपर माने हुए अहम्‌का नाश हो जाता है ।

प्रतीति करण-सापेक्ष है; और जो प्रतितिसे अतीत परमात्मतत्त्व (प्राप्त) है, वह करण-निरपेक्ष है । अतः परमात्मतत्त्वका अनुभव अभ्याससाध्य नहीं है । इनकी आवश्यकता केवल संसारके लिये है, अपने लिये नहीं ।

अभ्याससे केवल अवस्थाका परिवर्तन तथा एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है । अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत अनभ्याससे होता है । अनभ्यासका अर्थ है–कुछ न करना । करनामात्र प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना चेतन कुछ कर सकता ही नहीं, करना बनता ही नहीं । अतः उसपर करनेकी जिम्मेवारी भी नहीं है । चेतनमें कर्तृत्व है ही नहीं, फिर उससे क्रिया कैसे होगी ? जब लेखक ही नहीं है, तो फिर लेखन-क्रिया कैसे होगी ? चेतन अहंकारसे मोहित होकर केवल अपनेमें कर्तृत्वकी मान्यता कर सकता है–‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७) । वास्तवमें वह न कर्ता है, न भोक्ता है–‘न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/२१) । अतः तत्त्वका अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थको महत्त्व देना महान् अज्ञान है । क्रिया और पदार्थका उपयोग संसारके हितके लिये है । अपने हितके लिये तो इनसे सर्वथा असंग, उपराम होना है ।


तत्त्वका अनुभव प्रतीतिके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत प्रतीतिके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से होता है । कारण कि प्रतीतिका आश्रय ही बाँधनेवाला है–‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । प्रतीतिका आश्रय, सहायता लिये बिना अभ्यास नहीं होता । जिसका आश्रय लिया जायगा, उसका त्याग कैसे होगा ? उसका तो महत्त्व ही बढ़ेगा । इसलिये तत्त्वको अभ्याससाध्य माननेसे एक बड़ी हानि यह होती है कि जिससे बन्धन होता है, उसीको मनुष्य तत्त्वप्राप्तिमें सहायक मान लेता है और उसकी महत्ता तथा आवश्यकता अनुभव करता है । अतः अभ्याससे बन्धन अथवा प्रतीतिकी पराधीनता ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है, जिसके कारण प्रतीतिका त्याग करना बड़ा कठिन होता है । जैसे, बेड़ी चाहे लोहेकी हो अथवा सोनेकी, बन्धनमें कोई फर्क नहीं पड़ता । फर्क पड़ता है तो केवल इतना ही पड़ता है कि लोहेकी बेड़ीका त्याग करना सुगम होता है, पर सोनेकी बेड़ीका त्याग करना बड़ा कठिन होता है; क्योंकि अन्तःकरणमें सोनेका महत्त्व है !

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