।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें आहारीका वर्णन




भोजनके लिये आवश्यक विचार

 

उपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता हैवैसा ही मन बनता हैअन्नमय हि सोम्य मनः । (छान्दोग्य ६ । ५ । ४) अर्थात् अन्नका असर मनपर पड़ता है । अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता हैदूसरे नम्बरके भागसे वीर्यतीसरे नम्बरके भागसे मल बनता है जो कि बाहर निकल जाता है । अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्धपवित्र होना चाहिये । भोजनकी शुद्धिसे मन (अन्तःकरण-) की शुद्धि होती हैआहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः(छान्दोग्य २ । २६ । २)  जहाँ भोजन करते हैंवहाँका स्थानवायुमण्डलदृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैंवह आसन भी शुद्धपवित्र होना चाहिये । कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैंतब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचतेग्रहण करते हैं । अतः वहाँका स्थानवायुमण्डल आदि जैसे होंगेप्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा । भोजन बनानेवालेके भावविचार भी शुद्ध सात्त्विक हों ।

भोजनके पहले दोनों हाथदोनों पैर और मुखये पाँचों शुद्धपवित्र जलसे धो ले । फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजनकी सब चीजोंकोपत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ (गीता ९ । २६)यह श्लोक पढ़कर भगवान्के अर्पण कर दे । अर्पणके बाद दायें हाथमें जल लेकर ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्य ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ (गीता ४ । २४)यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान्का नाम लेकर ही मुखमें डाले । प्रत्येक ग्रासको चबाते समय हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥इस मन्त्रको मनसे दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्टका नाम लेते हुए ग्रासको चबाये और निगले । इस मन्त्रमें कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़नेसे बत्तीस नाम हो जाते हैं । हमारे मुखमें भी बत्तीस ही दाँत हैं । अतः (मन्त्रके प्रत्येक नामके साथ बत्तीस बार चबानेसे वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्नसे ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है ।

भोजन करते समय ग्रास-ग्रासमें भगवन्नाम-जप करते रहनेसे अन्नदोष भी दूर हो जाता है ।

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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
          आषाढ़ अमावस्या , वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें आहारीका वर्णन




प्रश्न‒व्यायाम किस जगह करना चाहिये ?


उत्तर‒जहाँ शुद्ध हवा हो, जंगल हो वहाँ व्यायाम करनेसे विशेष लाभ होता है । कुश्तीके व्यायाममें तो अगर शुद्ध हवा न मिले तो भी काम चल सकता है पर आसनोंके व्यायाममें शुद्ध हवाका होना जरूरी है । जो लोग शहरोंमें रहते हैं, वे लोग मकानकी छतपर अथवा कमरेमें हलका-सा पंखा चलाकर आसन कर सकते हैं ।


प्रश्न‒व्यायाम करनेवालोंको किस वस्तुका सेवन करना चाहिये ?


उत्तर‒कुश्तीका व्यायाम करनेवालोंको दूध, घी आदिका खूब सेवन करना चाहिये । दूध, घी आदि लेते हुए अगर उल्टी हो जाय तो भी उसकी परवाह नहीं करनी चाहिये, पर जितना पचा सकें, उतना तो लेना ही चाहिये । परन्तु आसनोंके व्यायाममें शुद्ध, सात्त्विक तथा थोड़ा आहार करना चाहिये (६ । १७) ।


प्रश्न‒शरीरमें शक्ति कम होनेपर ज्यादा रोग होते हैं‒यह बात कहाँतक ठीक है ?


उत्तर‒इस विषयमें दो मत हैं‒आयुर्वेदका मत और धर्मशास्त्रका मत । आयुर्वेदकी दृष्टि शरीरपर ही रहती है; अतः वह ‘शरीरमें शक्ति कम होनेपर रोग ज्यादा पैदा होते हैं’‒ऐसा मानता है । परन्तु धर्मशास्त्रकी दृष्टि शुभ-अशुभ कर्मोंपर रहती है; अतः वह रोगोंके होनेमें पाप-कर्मोंको ही कारण मानता है ।


जब मनुष्योंके क्रियमाण- (कुपथ्यजन्य-) कर्म अथवा प्रारब्ध- (पाप-) कर्म अपना फल देनेके लिये आ जाते हैं, तब कफ, वात और पित्त‒ये तीनों विकृत होकर रोगोंको पैदा करनेमें हेतु बन जाते हैं और तभी भूत-प्रेत भी शरीरमें प्रविष्ट होकर रोग पैदा कर सकते हैं; कहा भी है‒


वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान्

ज्योतिर्विदो  ग्रहगतिं  परिवर्तयन्ति ।

भूता विशन्तीति  भूतविदो  वदन्ति

प्रारब्धकर्म   बलवन्मुनयो   वदन्ति ॥


‘रोगोंके पैदा होनेमें वैद्यलोग कफ, पित्त और वातको कारण मानते हैं, ज्योतिषीलोग ग्रहोंकी गतिको कारण मानते हैं, प्रेतविद्यावाले भूत-प्रेतोंके प्रविष्ट होनेको कारण मानते हैं; परन्तु मुनिलोग प्रारब्धकर्मको ही बलवान् (कारण) मानते हैं ।’


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें आहारीका वर्णन



प्रश्न‒व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि करनेसे कौनसे रोग नहीं होते‒कुपथ्यजन्य या प्रारब्धजन्य ?

उत्तर‒आसन, प्राणायाम, संयम, ब्रह्मचर्यपालन आदिसे कुपथ्यजन्य रोग तो होते ही नहीं और प्रारब्धजन्य रोगोंमें भी उतनी तेजी नहीं रहती, उनका शरीरपर कम प्रभाव होता है । कारण कि आसन, प्राणायाम आदि भी कर्म हैं; अतः उनका भी फल होता है ।

प्रश्न‒व्यायाम और आसनमें क्या भेद है ?

उत्तर‒व्यायामके ही दो भेद हैं‒(१) कुश्तीका व्यायाम; जैसे‒दण्ड-बैठक आदि और (२) आसनोंका (यौगिक) व्यायाम; जैसे-शीर्षासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन आदि ।

जो लोग कुश्तीका व्यायाम करते हैं उनकी मांसपेशियों मजबूत, कठोर हो जाती हैं और जो लोग आसनोंका व्यायाम करते हैं, उनकी मांसपेशियाँ लचकदार, नरम हो जाती हैं । दूसरी बात, जो लोग कुश्तीका व्यायाम करते हैं, उनका शरीर जवानीमें तो अच्छा रहता है, पर वृद्धावस्थामें व्यायाम न करनेसे उनके शरीरमें, सन्धियोंमें पीड़ा होने लगती है । परन्तु जो लोग आसनोंका व्यायाम करते हैं, उनका शरीर जवानीमें तो ठीक रहता ही है, वृद्धावस्थामें अगर वे आसन न करें तो भी उनके शरीरमें पीड़ा नहीं होती* । इसके सिवाय आसनोंका व्यायाम करनेसे नाड़ियोंमें रक्तप्रवाह अच्छी तरहसे होता है, जिससे शरीर नीरोग रहता है । ध्यान आदि करनेमें भी आसनोंका व्यायाम बहुत सहायक होता है । अतः आसनोंका व्यायाम करना ही उचित मालूम देता है ।

प्रश्न‒लोगोंका कहना है कि आसन करनेसे शरीर कृश हो जाता है क्या यह ठीक है ?

उत्तर‒हाँ ठीक है; परन्तु आसनसे शरीर कृश होनेपर भी शरीरमें निर्बलता नहीं आती । आसन करनेसे शरीर नीरोग रहता है, शरीरमें स्फूर्ति आती है, शरीरमें हलकापन रहता है । आसन न करनेसे शरीर स्थूल हो सकता है पर स्थूल होनेसे शरीरमें भारीपन रहता है, शरीरमें शिथिलता आती है, काम करनेमें उत्साह कम होता है, चलने-फिरने आदिमें परिश्रम होता है, उठने-बैठनेमें कठिनता होती है, बिस्तरपर पड़े रहनेका मन करता है, शरीरमें रोग भी ज्यादा होते हैं । अतः शरीरकी स्थूलता इतनी श्रेष्ठ नहीं है, जितनी कृशता श्रेष्ठ है । किसीका शरीर कृश है, पर नीरोग है और किसीका शरीर स्थूल है पर रोगी है, तो दोनोंमें शरीरका कृश होना ही अच्छा है ।

प्रश्न‒आसनोंका व्यायाम करना किन लोगोंके लिये ज्यादा उपयोगी है ?

उत्तर‒जो लोग खेतीका, परिश्रमका काम करते हैं,उनका तो स्वाभाविक ही व्यायाम होता रहता है और उनको हवा भी शुद्ध मिल जाती है; अतः उनके लिये व्यायामकी जरूरत नहीं है । परन्तु जो लोग बौद्धिक काम करते हैं; दूकान, आफिस आदिमें बैठे रहनेका काम करते हैं, उनके लिये आसनोंका व्यायाम करना बहुत उपयोगी होता है ।

प्रश्न‒व्यायाम कितना करना चाहिये ?

उत्तर‒कुश्तीके व्यायाममें तो दण्ड-बैठक करते-करते शरीर गिर जाय, थक जाय तो वह व्यायाम अच्छा होता है । परन्तु आसनोंके व्यायाममें ज्यादा जोर नहीं लगाना चाहिये, प्रत्युत शरीरमें कुछ परिश्रम मालूम देनेपर आसन करना बन्द कर देना चाहिये । आसनोंका व्यायाम करते समय भी बीच-बीचमें शवासन करते रहना चाहिये ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें आहारीका वर्णन


युगके प्रभावसे जड़ी-बूटियोंकी शक्ति क्षीण हो गयी है । कई दिव्य जड़ी-बूटियाँ लुप्त हो गयी हैं । दवाइयाँ बनानेवाले ठीक ढंगसे दवाइयाँ नहीं बनाते और पैसोंके लोभमें आकर जिस दवाईमें जो चीज मिलानी चाहिये, उसे न मिलाकर दूसरी ही चीज मिला देते हैं । अतः उस दवाईका वैसा गुण नहीं होता ।

देहातमें रहनेवाले मनुष्य खेतीका, परिश्रमका काम करते हैं तथा माताएँ-बहनें घरमें चक्की चलाती हैं, परिश्रमका काम करती हैं, और उनको अन्न, जल, हवा आदि भी शुद्ध मिलते हैं; अतः उनको कुपथ्यजन्य रोग नहीं होते । परन्तु जो शहरमें रहनेवाले हैं, वे शारीरिक परिश्रम भी नहीं करते और उनको शुद्ध अन्न, जल, हवा आदि भी नहीं मिलते; अतः उनको कुपथ्यजन्य रोग होते हैं । हाँ, प्रारब्धजन्य रोग तो सबको ही होते हैं, चाहे वे देहाती हों, चाहे शहरी ।

मनुष्यको शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार शुद्ध दवाइयोंका सेवन करना चाहिये । अगर कोई साधु संन्यासी, गृहस्थ रोगी होनेपर भी दवाई न ले तो इससे भी रोग दूर हो जाता है; क्योंकि दवाई न लेना भी एक तप है, जिससे रोग दूर होते हैं । जो रोगोंके कारण दुःखी, अप्रसन्न रहता है, उसपर रोग ज्यादा असर करते हैं । परन्तु जो भजन-स्मरण करता है, संयमसे रहता है, प्रसन्न रहता है, उसपर रोग ज्यादा असर नहीं करते । चित्तकी प्रसन्नतासे उसके रोग नष्ट हो जाते हैं ।

प्रारब्धजन्य रोगके मिटनेमें दवाई तो केवल निमित्तमात्र बनती है । मूलमें तो प्रारब्धकर्म समाप्त होनेसे ही रोग मिटता है । जिन कर्मोंके कारण रोग हुआ है, उन कर्मोंसे बढ़कर कोई पुण्यकर्म, प्रायश्चित्त, मन्त्र आदिका अनुष्ठान किया जाय तो प्रारब्धजन्य रोग मिट जाता है । परन्तु इसमें प्रारब्धके बलाबलका प्रभाव पड़ता है अर्थात् प्रारब्धकी अपेक्षा अनुष्ठान प्रबल हो तो रोग मिट जाता है और अनुष्ठानकी अपेक्षा प्रारब्ध प्रबल हो तो रोग नहीं मिटता अथवा थोड़ा ही लाभ होता है ।

प्रश्न‒गलितकुष्ठ, प्लेग आदिसे ग्रस्त रोगियोंके सम्पर्कमें आनेसे किसीको ये रोग हो जायँ तो इसमें उसका प्रारब्ध कारण है या कुछ और ?

उत्तर‒जिनका प्रारब्ध कच्चा है अर्थात् प्रारब्धकर्मके अनुसार जिनको रोग होनेवाला है, उन्हींको ये रोग होते हैं, सबको नहीं । प्रारब्धसे होनेवाले रोगोंमें गलितकुष्ठ आदिके रोगियोंका सम्पर्क केवल निमित्त बन जाता है ।

प्रश्न‒रोगोंको मिटानेके लिये कौन-सी चिकित्सा करनी चाहिये ?

उत्तर‒चिकित्सा पाँच प्रकारकी होती है‒मानवीय, प्राकृतिक, यौगिक, दैवी और राक्षसी । जड़ी-बूटी आदिसे बनी औषधसे जो इलाज किया जाता है, वह ‘मानवीय चिकित्सा’ है । अन्न, जल, हवा, धूप, मिट्टी आदिके द्वारा जो इलाज किया जाता है, वह ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ है । व्यायाम, आसन, प्राणायाम, संयम, ब्रह्मचर्य आदिके द्वारा रोगोंको दूर करना ‘यौगिक चिकित्सा’ है । मन्त्र, तन्त्र आदिसे तथा आशीर्वादके द्वारा रोगोंको दूर करना ‘दैवी चिकित्सा’ है । चीर-फाड़ (आपरेशन) आदिसे जो इलाज किया जाता है, वह ‘राक्षसी चिकित्सा’ है । इन सबमें शरीरके लिये, रोगोंको हटानेके लिये ‘यौगिक चिकित्सा’ ही श्रेष्ठ है; क्योंकि इसमें खर्चा नहीं है, पराधीनता भी नहीं है, और आसन, प्राणायाम, संयम आदि करनेसे शरीरमें रोग भी नहीं होते ।


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