।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
एकादशी-व्रत कल है
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर



(गत ब्लॉगसे आगेका)

भक्तिमें ऐसा आया है‒‘अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥’ (मानस, अरण्य ११ । ११) अर्थात् वास्तवमें यह अभिमान निरभिमानता है; क्योंकि ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’‒इसमें अहंता-ममता नहीं हैं । यह तो वास्तविकता हैं । भगवान्‌ने भी कहा है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः’ (गीता १५ । ७) ‘यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है ।’

वस्तुओंको अपना माननेसे जड़ता और भगवान्‌को अपना माननसे चिन्मयता आती है । ममतासे वस्तुओंकी गुलामी आती है ।

प्रश्नअभिमान और स्वाभिमानमें क्या अन्तर है ?

स्वामीजीअपनेमें बड़प्पनका भाव होनेसे ‘अभिमान’ होता है और अपने कर्तव्यका ‘स्वाभिमान’ होता है कि मैं ऐसा काम कैसे कर सकता हूँ ? जैसे, यक्षने युधिष्ठिरसे कहा कि मैं तुम्हारे एक भाईको जीवित कर सकता हूँ, तुम बताओ, किसको जीवित करूँ ? युधिष्ठिरने कहा कि हे यक्ष ! नकुल जी उठे । इसपर यक्षने कहा कि यदि भीम या अर्जुन जी जाते तो तेरा गया हुआ राज्य दिला देते, नकुल जीकर क्या करेगा ? युधिष्ठिर बोले‒माता कुन्तीका पुत्र तो मैं हूँ ही, पर मेरी छोटी माता माद्रीका भी एक पुत्र रहना चाहिये । मैं अपने सहोदर भाईको कैसे जिला सकता हूँ; क्योंकि लोग मुझे धर्मात्मा कहते है‒

धर्मशीलः सदा राजा इति मां मानवा विदुः ।
स्वधर्मान्न चलिष्यामि   नकुलो यक्ष जीवतु ॥
                                (महाभारत, वन ३१३ । १३०)

‘यक्ष ! लोग मेरे विषयमें ऐसा समझते हैं कि राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं; अतः मैं अपने धर्मसे विचलित नहीं होऊँगा । मेरा भाई नकुल जीवित हो जाय ।’‒यह युधिष्ठिरका स्वाभिमान है । तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यपर डटे रहना, अपनी भलाईका कभी त्याग न करना स्वाभिमान कहलाता है ।

प्रश्नजीवन्मुक्त महापुरुषमें अहंता-ममता नहीं रहती तो फिर उसके द्वारा व्यवहार कैसे होता है ?

स्वामीजीअहंता-ममता मिटनेसे शरीर नहीं मिटता, प्रत्युत शरीरके साथ तादात्म मिटता है । अतः जीवन्मुक्त महापुरुषका व्यवहार पूर्वके प्रवाहसे ज्यों-का-त्यों चलता रहता है, पर उसके व्यवहारमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार नहीं रहते । उसका व्यवहार निर्लिप्ततासे होता है अर्थात् शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे जो विकार होते थे, वे विकार नहीं होते । उसमें चिज्जड़ग्रन्थि-रूप अहंकार नहीं रहता, प्रत्युत वृत्तिरूप (कारणरूप) अहंकार है, जिससे व्यवहार होता है । जैसे मूँजकी रस्सी जलनेपर उसकी ऐंठन (बट) दीखती है, पर हाथ लगाते ही वह बिखर जाती है, बीजोंको भूनने अथवा उबालनेपर वे बीज खानेके काम तो आते हैं, पर उनसे अंकुर पैदा नहीं होता, ऐसे ही अहंता-ममता न रहनेपर व्यवहार तो ज्यों-का-त्यों चलता रहता है, पर उसमें जन्म-मरणरूप अंकुर पैदा नहीं होता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
 
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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७३, सोमवार
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर



(गत ब्लॉगसे आगेका)


प्रश्नमैं साधक हूँ’‒ऐसी अहंताके बिना साधन कैसे होगा ?

स्वामीजी‘मैं साधक हूँ’‒इसमें दो भाव होते हैं‒१. मैं साधक हूँ, दूससे साधक नहीं हैं और २. मैं साधक हूँ; अतः मुझे साधनसे विरुद्ध काम नहीं करना है ।

मैं साधक हूँ, दूसरे साधक नहीं हैं‒ऐसा भाव होनेसे अभिमान आता है । यह अभिमान आसुरी सम्पत्ति है (गीता १६ । १४-१५), जो बन्धनका कारण है‒‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता १६ । ५) । परन्तु मैं साधक हूँ; अतः मैं साधनसे विरुद्ध काम कैसे कर सकता हूँ ?‒ऐसा भाव होनसे अभिमान नहीं आता, प्रत्युत साधनमें तत्परता आती है, जिससे साधनकी सिद्धि होती है ।

प्रश्नअपनापन (ममता)-के बिना दान कैसे दिया जायगा ? कारण कि अपनी वस्तुका ही दान होता हैं ।

स्वामीजीवस्तुमें अपनापन वास्तवमें नहीं है, प्रत्युत माना हुआ है । वह माना हुआ अपनापन भी केवल कर्तव्य-पालनके लिये ही है । अतः मनुष्य दान-पुण्य कर सकता है, धन आदिसे निर्लिप्त रह सकता है । परन्तु ममता करनेवाला दान-पुण्य कर ही नहीं सकता; क्योंकि वह कृपण हो जाता है । वह अन्यायपूर्वक कमाता है, पर न्यायपूर्वक जहाँ खर्च करना चाहिये, वहाँ खर्च नहीं करता । वह दूसरोंका धन हड़पनेके लिये उद्योग करता है और मौका लगनेपर हड़प भी लेता है । अतः ऐसा व्यक्ति क्या दान-पुण्य करेगा ? वह दान-पुण्य कर ही नहीं सकता । एक कहावत है कि ‘दाताका धन अपना नहीं और शूरवीरका सिर अपना नहीं’ । अपना माननेवाला न तो दाता हो सकता है और न शूरवीर ही हो सकता है ।

प्रश्न‘मैं भगवान्‌का हूँ’‒ऐसा माननेसे ‘मैं’-पना रह जायगा न ? और श्रुति भी कहती है‒‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’ (बृहदारण्यक १ । ४ । २) अर्थात् दूसरेसे भय होता है । अतः इससे साधन कैसे होगा ? इससे तो द्वैतपना ही दृढ़ होगा ।

स्वामीजीऐसी बात नहीं है । भगवान् द्वितीय (दूसरे) नहीं हैं, प्रत्युत आत्मीय हैं । आत्मीयसे भय नहीं होता, प्रत्युत निर्भयता होती है । भय तो दूसरेसे होता है; जैसे-बालकको कुत्ते, कौए आदिसे भय होता है, पर माँसे भय नहीं होता । बालक माँकी गोदमें निर्भय रहता है । माँ तो एक जन्मकी होती है, पर भगवान् सदाकी माँ हैं । भगवान्‌ सदासे अपने हैं, दूसरे हैं ही नहीं । उनमें दूसरेपनकी सम्भावना ही नहीं है । फिर अपने प्रभुसे भय कैसे होगा ? वास्तवमें भगवान्‌से अलग होनेपर, अपनेको भगवान्‌से अलग माननेपर ही भय होता है अर्थात् भगवान्‌से अलग होकर संसारको अपना माननेसे ही भय होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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