।। श्रीहरिः ।।

                                           




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन पूर्णिमा वि.सं.२०७७, शनिवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




लोग कहते हैं कि कोरे विचारोंसे क्या होगा ? मेरा कहना है कि विचारोंसे सब कुछ हो जाता है, देनेकी यदि भावना हो जाती है तो फिर अपनेमें त्याग आ ही जाता है । त्याग आनेपर फिर कुछ भी बाकी नहीं रहता । यह भाव होना चाहिये कि जो नाशवान्‌ पदार्थ हमारे पास हैं, ये जा तो रहे ही हैं । इनको सबके हितमें लगाकर लाभ ले लें ।

‘देखत ही छिप जावसी ज्यूँ तारा परभात’ ।

सूर्य उदय हो जानेपर ज्यों तारे छिप जाते हैं, ऐसे ही यह संसार छिप रहा है, मौतमें जा रहा है, प्रलयमें जा रहा है । अतः पदार्थोंके रहते-रहते इनका सदुपयोग करके लाभ ले लो ।

कह दास सगराम सुन हे धन री धिणियाणी ।

कर सुकृत  भज  राम,  धोयले  बहते  पानी ॥

बहते  पानी  धोयले,   कृपा  करि  महाराज ।

कारज कर ले जीव को, कीयो जाय तो आज ॥

कीयो जाय तो आज, काल की जाय न जानी ।

कह दास सगराम, सुन हे धन री धिणियाणी ॥

तेरे पास धन-सम्पत्ति हैं तो सुन ले, ये कितने दिनके लिये हैं अर्थात् ये बहुत थोड़े दिनके लिये हैं, फिर छूट जायँगे । चाहे धन चला जाय, चाहे तुम्हारा शरीर चला जाय, चाहे दोनों चले जायँ । छूटेंगे अवश्य, इसमें सन्देह नहीं है । आप इनको सुकृतमें लगा दोगे तो निहाल हो जाओगे । नहीं तो रखकर मर जाओगे तो प्रेत होओगे, भूत होओगे, सर्प होओगे, नरकोंमें जाओगे । अतः भावना केवल दूसरोंके हित करनेकी होनी चाहिये । धनकी आवश्यकता नहीं है । आपके पास जो विद्या, बुद्धि, तन, मन, इन्द्रियाँ हैं, उनके द्वारा दूसरोंका हित कैसे हो ? यह तीव्र इच्छा करो । अधिक-से-अधिक आदमियोंका हित कैसे हो ?

आज जरा आँख पसारो । देखो, दुनियामें कितना दुःख हो रहा है ! आजकलके कारण लोगोंको अन्न नहीं मिल रहा है । जो बड़े जमीनदार थे, आज उनके घरोंमें खानेके लिये अन्न नहीं है । ऐसी आज हालत है । हमारे साथ रहनेवाले कई सज्जन गाँवोंमें गये हैं । उन्होंने अन्न और चारा वितरण किया है, उनसे ऐसी बातें मिली हैं । अगर अब वर्षा नहीं हुई तो क्या दशा होगी ? भगवान्‌ ही जाने । बड़ी कठिन परिस्थिति है । भले-भले घरानेके आदमी रात्रिमें आकर मिलते हैं । दिनमें मुँह नहीं दिखाते हैं । करे क्या ? खानेको अन्न नहीं है, पहननेको कपड़ा नहीं है । यह दशा हो रही है । इस समय अपने पास वस्तुएँ हैं, उनके सदुपयोगका बड़ा मौका है । अतः सदुपयोग कर लो ।

गायोंके लिये चारा नहीं है । कहीं-कहीं तो गाँवोंमें पानीकी भी बड़ी तंगी है । ऐसी तो गर्मी पड़े और पानी मिले नहीं तो हमारी क्या दशा हो ? जरा विचारो । आप और हम जो पदार्थोंके लेनेकी इच्छा रखते हैं, यह डाकापना है, यह खाऊँ-खाऊँपना है । हमारेको मिल जाय, धन नहीं मिले तो मान-बड़ाई मिल जाय । वाह-वाह मिल जाय‒यह सब डाकापना है । चाहे धन-आराम चाहो अथवा मान-बड़ाई चाहो‒सब एक ही बात है ।

को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः ।

श्रीमांश्च को  यस्य  समस्ततोषः॥

दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा-इच्छा बड़ी है । हमें हर वक्त चाहिये-ही-चाहिये‒यह दरिद्रता है, महान्‌ दरिद्रता है, कंगालपना है । वास्तवमें हम धनी उस दिन होंगे, जिस दिन यह तृष्णा हृदयसे निकल जायगी । ‘हरेकको सुख कैसे पहुँचे, प्रत्येकका भला कैसे हो, प्राणिमात्रका कल्याण कैसे हो ।’‒यह बड़ी भारी सम्पत्तिकी बात है । जैसे तिजोरीके चाबी लगाकर अपनी तरफ घुमाते हैं तो ताला लग जाता है, कौड़ी एक मिलती नहीं । दूसरी तरफ चाबी घुमायी जाय तो सब-का-सब खजाना मिल जाता है । ऐसे ही मेरेको मिले तो तिजोरी बंद हो रही है । रोओगे, मिलेगा कुछ नहीं । वही चाबी दूसरी तरफ घुमायी जाय यानी सबका हित कैसे हो‒यह भावना कर ली जाय तो भण्डार भरा रहेगा । वस्तुओंकी तृष्णा मिटते ही वस्तुएँ खुली जाती हैं (सहजतासे प्राप्त हो जाती है) । अतः अपने लिये चाहते रहनेसे कोई लाभ नहीं है ।


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।। श्रीहरिः ।।

                                          




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल चतुर्दशी वि.सं.२०७७, शुक्रवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




हरेक विषयको ठीक समझना चाहिये । मेरी बातें कुछ अटपटी दीखती हैं, नयी-सी लगती हैं, पर आप समझनेकी चेष्टा करो तो समझमें ठीक-ठीक आ जायँगी । इनको समझना बिलकुल कठिन नहीं है । प्रश्न है कि इच्छाओंका त्याग सम्भव है क्या ? इच्छा त्यागनेसे क्या दशा होगी ? अर्थात् इच्छाओंके त्यागनेसे जीवन व्यर्थ हो जायगा‒ऐसा प्रतीत होता है; परन्तु इस विषयमें एक मार्मिक बात बतावें‒इसे ध्यान देकर समझ लो । भगवान्‌ने गीताजीमें कहा है‒

ममैवांशो  जीवलोके  जीवभूतः  सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥

(१५/७)

इस श्लोकका भाव है कि जीव सदासे ही मेरा अंश है और प्रकृतिके कार्य मनसहित इन्द्रियोंको अपनी मानता है । यह अंश तो मेरा है और प्रकृतिका अंश‒शरीर, इन्द्रियाँ और मनको अपना मानता है । मेरा अंश होकर प्रकृतिके अंशको पकड़ता है । उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको अपना मानना और उनकी चाहना करना ही प्रकृतिको पकड़ना है । विनाशीकी जो इच्छा करना है‒यही विनाशीको पकड़ना है, परन्तु वास्तवमें विनाशीको कोई पकड़ नहीं सकता । विनाशीका अर्थ है‒नाशवाला । जैसे धन पासमें होनेसे धनवान्‌ और विद्या पासमें होनेसे विद्वान्‒ऐसे ही नाशवान्‌ उसीको कहते है जिसमें नाश-ही-नाश हो । नाशवान्‌ पदार्थ रहेंगे ही नहीं, क्योंकि वे नाशरूप ही हैं, वे प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं ।

मेरी बातकी और ध्यान देना । ध्यानसे सुनने और समझनेसे थोड़ा नहीं, बहुत बड़ा भारी लाभ होगा । केवल इतनी बात कि प्रकृतिका कार्य दृश्यमात्र नाशवान्‌ है । नाश होना प्रत्यक्षकी बात है, सबके अनुभवकी बात है । आज दिनतक हमारी उमर जितनी चली गयी, वह वापिस कभी आवेगी नहीं । इसी प्रकार संसार-मात्रकी चीज प्रतिक्षण नष्ट हो रही है । दर्शन अदर्शनमें जा रहा है । लोग समझते हैं कि मनुष्य एक दिन जन्मता है, परन्तु वास्तवमें जन्मके साथ ही मृत्यु प्रारम्भ हो जाती है । इसलिये प्रत्येक प्राणी मौतकी तरफ जा रहा है । जितने दिन जीते हुए बीत गये, उतने दिन तो मर गया कि नहीं ? मरना शब्द बुरा लगता है, पर बात यह सही है ।

प्रत्येक वस्तुका अभाव हो रहा है । जितना संसार भावरूपसे दीखता है, सब-का-सब अभावमें परिणत हो रहा है । इसलिये नाशवान्‌ पदार्थोंकी इच्छा करना अभावकी ही तो इच्छा करना हुआ । इसलिये अभावकी इच्छा करनेसे मिलेगा क्या ? जो चीज है ही नहीं, परिवर्तनशील है, जा रही है‒उसका मूलमें अभाव ही तो है । अगर इच्छा बिना काम चलता नहीं दीखता और इच्छा करनी ही है तो इस बातकी इच्छा करो कि सबको सुख कैसे हो ? जो धन, सम्पत्ति, वैभव हमारे पास है, जिनको कि हमने संग्रह किया है, जिनको अपना माना है, उनको लोगोंमें उदारतापूर्वक कैसे बाँटें ? किस तरहसे दूसरोंको सुख पहुँचावें ? अपने पास जो-जो वस्तुएँ दीखती हैं, उनके द्वारा उदारतापूर्वक दूसरोंकी न्याययुक्त इच्छापूर्ति करनेसे अपनेमें नाशवान्‌ पदार्थोंकी इच्छाओंके त्यागनेकी सामर्थ्य आती है । इसलिये उत्पत्ति और नाशवाले पदार्थोंकी इच्छाओंको मिटानेके लिये ऐसी इच्छाएँ करो कि सबको आराम कैसे हो, सबका भला कैसे हो, सबका कल्याण कैसे हो । रात-दिन इन विचारोंमें मग्न रहो ।


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।। श्रीहरिः ।।

                                         




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल त्रयोदशी वि.सं.२०७७, गुरुवा

सुख कैसे मिले ?



च्‍च कामसुखं लोके यच्‍च दिव्यं महत्सुखम् ।

तृष्णाक्षयसुखस्यैते    नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥

‘संसारमें जो भी कामोपभोगका सुख है तथा जो स्वर्गीय महान्‌ सुख है‒ये दोनों ही तृष्णानाशसे होनेवाले सुखके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हैं ।’

किसी कविने भी क्या ही सुन्दर कहा है‒

चाह गयी चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह ।

जिसको कछू न चाहिये सोई शाहंशाह ॥

अतः यह बात सिद्ध हो गयी कि पदार्थोंके अभावमें दुःख नहीं है, दुःख है पदार्थोंके अभावके अनुभवमें । मान लीजिये, एक आदमीने एकादशीको निराहार व्रत किया और एक-दूसरे आदमीको उस दिन कुछ भी उपार्जन न होनेसे निराहार रहना पड़ा । इन दोनोंको ही अन्नादि पदार्थोंके संयोगका अभाव है, किन्तु एक प्रसन्नतापूर्वक व्रत रखकर सुखी होता है और दूसरा पेटमें अन्न न पहुँचनेसे दुःखका अनुभव करता है, अतः अभावका अनुभव ही दुःख है । यदि अभावमें ही दुःख हो तो विरक्त साधु-संन्यासियोंको भी दुःख होना चाहिये, क्योंकि उनके पास न तो स्त्री है, न धन है, न मकान है, न कपड़े हैं, न सवारी है और न पहलेसे किया हुआ उदरपूर्तिके लिये कोई प्रबन्ध है । किन्तु इन सबके न रहते हुए भी वे बड़े सुखी हैं, क्योंकि उनके पास जाकर बड़े-बड़े महाराजा और धनी भी अपने अन्तःकरणकी जलन मिटाकर सुखी होते हैं । इसका कारण यह है कि वे पदार्थोंके अभावमें भी नित्य भावरूप सच्‍चिदान्दघन परमात्माकी अनुभूति करके आनन्दमग्न रहते हैं । वास्तवमें अभावका अनुभव होता है मूर्खतासे । इसलिये चाहे कितना ही अभाव क्यों न हो, मनुष्यको अभावका अनुभव न करके नित्य भावरूप परमात्माका चिन्तन करना चाहिये । जो पदार्थोंके न होनेसे या उनकी कमी होनेसे अभाव या कमीका अनुभव नहीं करेगा, वह भगवान्‌के मंगलविधानके अनुसार आये हुए दुःखमें दुःखी नहीं होगा, प्रत्युत उसमें अपने पूर्वकृत पापोंका नाश और भगवान्‌की कृपा समझकर सुखी ही होगा ।

जो धनको महत्त्व देकर रोटी, कपड़े आदि पदार्थोंसे सुख पाना चाहते हैं, वे भूल करते हैं । जड़को महत्त्व देनेसे उसके द्वारा अधर्म होगा और अधर्मका आचरण होनेसे सुख कभी न हुआ है और न होगा ही । इसके विपरीत, यदि सत्य, चेतन और अक्षयसुखके भण्डार भगवान्‌को महत्त्व देकर उनके द्वारा (भगवान्‌के भावोंके अनुभव और प्रचारद्वारा) सुख पाना चाहेंगे तो सदाके लिये सुखकी प्राप्ति हो जायगी ।

इसलिये हमें परमात्माकी प्राप्तिका ही लक्ष्य बनाना चाहिये । तथा सांसारिक पदार्थोंसे सदा ही विरक्त रहना और उनकी लालसाको मनमें आने ही नहीं देना चाहिये और उस चिन्तनमें सहायक सत्‌-शास्त्रोंका अध्ययन, सन्त-महात्माओंका संग, परमात्मासे स्तुति-प्रार्थना तथा निरन्तर नामका जप आदि साधन निष्कामभावसे करने चाहिये ।

कलियुगमें जो गुप्तरूपसे, निष्कामभावपूर्वक, निरन्तर ध्यानसहित, आनन्द और आदरसे केवल परमात्माके नामका जप करता है, उसे परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र और सहज ही हो जाती है‒

गुप्त अकाम निरंतर, ध्यानसहित सानंद ।

आदरजुत जपसे तुरत, पावत परमानंद ॥

नारायण !      नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

                                        




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७७, बुधवा

सुख कैसे मिले ?




तो फिर सुखका उपाय क्या है ? सुखका उपाय है‒चिन्मय परमात्माकी प्राप्तिका लक्ष्य और धर्म तथा न्यायका आचरण । अभिप्राय यह है कि जब हमारे आचरण धर्मयुक्त होंगे और जब हम न्यायसे प्राप्त अपने हकके अतिरिक्त और कुछ ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं करेंगे, तभी असली सुखकी उपलब्धि हो सकेगी । यह होगी त्याग और उदारता आनेसे । जिन वस्तुओंको हम सुख देनेवाली समझते हैं, उनको जब हम सभी त्याग और उदारताके भावसे एक-दूसरेको देना चाहेंगे और लेना नहीं चाहेंगे तब उन वस्तुओंकी स्वतः ही बहुतायत हो जायगी और लेनेवाले हो जायँगे कम । उस समय हमारी उदारताके फलस्वरूप दैवी शक्ति भी पूरा काम करेगी, जिससे वस्तुओंका उत्पादन और रक्षण भी अधिक होगा । इस प्रकार सर्वत्र सुखका ही साम्राज्य छा जायगा ।

त्याग और उदारताकी भावनासे हमारा मन ज्यों-ज्यों जड़ पदार्थोंकी ओरसे हटता जायगा, त्यों-ही-त्यों वह चेतन परमात्माकी ओर लगेगा । जड़की ओरसे दृष्टि हटनेपर वह चेतनकी ओर स्वतः प्रवृत्त होगी । तब उसकी जो यह मूल धारणा थी कि इन पदार्थोंमें सुख है, वह मिट जायगी । तथा वह चेतन परमात्मा बोधस्वरूप और आनन्द-स्वरूप है, यों समझकर उसकी ओर लक्ष्य दृढ़ हो जानेपर जीव स्वयं ही ज्ञानवान् और आनन्दस्वरूप हो जायगा । उस स्थितिमें ऐसे पुरुषके दर्शन, भाषण और स्पर्शसे दूसरे जीवोंको भी सुख पहुँचेगा; फिर वह स्वयं महान्‌ सुखी है, इसमें तो कहना ही क्या है ? जो अपने स्वार्थका त्याग करके जनताका हित चाहता है और बदलेमें किसी भी चीजको लेना नहीं चाहता, वही वास्तवमें सुखी है ।

कुछ भाइयोंकी धारणा है कि धनी आदमियोंके पास जो धन है, उसे छीनकर अभावग्रस्तोंको बाँट दिया जाय तो सब सुखी हो जायँ, किन्तु सोचना चाहिये कि धनी आदमियोंको जिस तरहका सुख प्राप्त है, वह तो दुःखवाला (दुःखपूर्ण) ही सुख है, जिससे वे स्वयं रात-दिन जलते रहते है, उन्हें कभी शान्ति नहीं मिलती । अतः उनसे जो सुख मिलेगा, वह तो उसी प्रकारका होगा, जो दुःखपूर्ण है; तथा जिससे धन छीना जायगा, उसे तो महान्‌ कष्ट होगा ही । उसे कष्ट देकर लेनेसे लेनेवालेको भी सुख कैसे होगा, जलन ही होगी तथा वह धन जिसे दिया जायगा, वहाँ भी दुःख, अशान्ति और जलन ही प्राप्त होगी ।

यह सिद्धान्त है कि देनेवाला दे ही दे और लेनेवाला सेवक, परिचारक लेना ही न चाहे, तो इससे देनेवालेमें तो उदारता पैदा होकर प्रसन्नता होगी और देनेवालेकी प्रसन्नतासे लेनेवालेको भी त्यागपूर्वक लेनेसे आनन्द आयेगा तथा वह अमृतमय पदार्थ जहाँ जायगा, वहाँ भी सुख-शान्ति और आनन्दका ही वातावरण पैदा हो जायगा । तभी सबको सुख मिलेगा और तभी सबके हृदयके भाव उदार होंगे; क्योंकि सुख वस्तुओंमें नहीं है, सुख है हमारे हृदयकी उदारतामें ।


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।। श्रीहरिः ।।

                                       




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७७, मंगलवा

सुख कैसे मिले ?




जो मन-इन्द्रियोंको अनुकूल जान पड़ता है, वह सुख और जो प्रतिकूल प्रतीत होता है, वह दुःख है । यह है सुख-दुःखकी साधारण जनताद्वारा की हुई परिभाषा ।

हम सोचते हैं कि हमें रोटी, कपड़ा, मकान, सवारी, जमीन, खेत, न्याय, विद्या और औषध आदि वस्तुएँ सस्ती तथा पुष्कलमात्रामें प्राप्त हो जायँ तो हम सुखी हो जायँगे । किन्तु विचारिये जिसके पास उक्त पदार्थ प्रचुरमात्रामें हैं, क्या वह वास्तवमें सुखी है ? कदापि नहीं, क्योंकि पदार्थोंके बढ़नेसे उनकी लालसा बढ़ती है और वस्तुओंकी लालसा ही सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है । गीतामें अर्जुनने भगवान्‌से जब दुःखोंके कारणरूप पापोंका हेतु पूछा, तब भगवान्‌ने काम (लालसा)-को ही पापाचारका हेतु बतलाया । दुःखका साक्षात् कारण भी लालसा ही है । कैदमें, नरकादिमें या जहाँ-कहीं भी कोई दुःखी देखनेमें आते हैं, उन सबके दुःखोंका कारण पहले कभी लालसासे किये हुए पाप या वर्तमानमें पदार्थोंकी लालसा ही है । लालसा (चाह) करनेसे पदार्थ मिलते भी नहीं । संसारी लोग भी चाहनेवालेको नहीं देते, बल्कि जो नहीं लेना चाहता, उसे आग्रह और प्रसन्नतापूर्वक देना चाहते हैं । किसी व्यक्तिको यदि सम्पूर्ण संसारकी उपर्युक्त सभी मनचाही वस्तुएँ मिल जायँ तब भी उनसे तृप्ति नहीं हो सकती, प्रत्युत उसकी लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।’ इस लालसाके अधिक बढ़नेका अर्थ यही है कि आपको अपनेमें कमीका अनुभव है और जबतक अपनेमें कमीका अनुभव होगा, तबतक सुख हो ही कैसे सकता है, प्रत्युत दुःख ही बढ़ेगा ।

गम्भीरतासे विचार कीजिये तो आपको मालूम हो जायगा कि पदार्थोंके मिलनेसे सुख नहीं होता, प्रत्युत पदार्थ मिलनेसे दुःखका कारणभूत इच्छा (चाह) और बढ़ती है । कहा भी है‒

 

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।

नालमेकस्य  तृप्त्यर्थमिति  मत्वा  शमं व्रजेत् ॥

न  जातु  कामः कामानामुपभोगेन  शाम्यति ।

हविषा   कृष्णवर्त्मेव     भूय   एवाभिवर्धते ॥

‘पृथ्वीमें जितने भी धान्य-चावल, जौ, गेहूँ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब मिलकर एक मनुष्यकी तृप्तिके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं, ऐसा मानकर तृष्णाका शमन करे; क्योंकि भोग-पदार्थोंके उपभोगसे कामना कभी शान्त नहीं होती, बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासना भी भोगोंके भोगनेसे प्रबल होती जाती है ।

सभी मनुष्य चाहते तो सुख ही हैं, परन्तु सुखकी सामग्री इन संसारकी वस्तुओंको ही समझते हैं, इसलिये इन्हींको प्राप्त करनेका प्रयत्न करते देखे जाते हैं । आज पृथ्वीपर ढाई अरब मनुष्य माने जाते हैं, उनमेंसे प्रत्येक व्यक्तिको संसारकी समस्त वस्तुएँ कैसे मिल सकती हैं ? क्योंकि वस्तुओंपर सभीका हक है, एवं वस्तुएँ सब मिलकर भी सीमित हैं और उनके चाहनेवाले हैं बहुत अधिक । जब एकको एक भी पूरी नहीं मिल सकती, तब प्रत्येकको सभी वस्तुएँ पूरी कैसे मिलें ? मान लीजिये, यदि सभीको मिल भी जायँ, तब भी इन वस्तुओंसे सुख होना सम्भव नहीं; क्योंकि चेतन जीवको केवल पूर्ण चिन्मयतासे ही शान्ति मिल सकती है, अपूर्ण और सीमित जड़ वस्तुओंसे नहीं । यदि इन नश्वर पदार्थोंके संयोगसे मूर्खतावश जो सुख प्रतीत होता है, उसे ही सुख मान लें , तो भी जड़ वस्तुएँ तो प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान्‌ हैं तथा जीव नित्य और अविनाशी है । अतः इन दोनोंका नित्य संयोग कैसे रह सकता है ?


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