।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्ध‒‘स्वधर्म कल्याणकारक और परधर्म भयावह है’‒ऐसा जानते हुए भी मनुष्य स्वधर्ममें प्रवृत्त क्यों नहीं होता ? इसपर अर्जुन प्रश्‍न करते है ।

प्रधान विषय‒३६४३ श्‍लोकतक‒पापोंके कारणभूत ‘काम’ को मारनेकी प्रेरणा ।

सूक्ष्म विषय‒पापोंमें प्रवृत्तिका हेतु जाननेके लिये अर्जुनका प्रश्‍न ।

अर्जुन उवाच

     अथ  केन  प्रयुक्तोऽयं  पापं   चरति   पूरुषः ।

अनिच्छन्‍नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३६ ॥

अर्थ‒अर्जुन बोले‒हे वार्ष्णेय ! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुएकी तरह किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ?

वार्ष्णेय = हे वार्ष्णेय !

नियोजितः = लगाये हुएकी

अथ = फिर

इव = तरह

अयम् = यह

केन = किससे

पूरुषः = मनुष्य

प्रयुक्तः = प्रेरित होकर

अनिच्छन् = न चाहता हुआ

पापम् = पापका

अपि = भी

चरति = आचरण करता है ?

बलात् = जबर्दस्ती

 

व्याख्याअथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्‍नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥’यदुकुलमेंवृष्णि’ नामका एक वंश था । उसी वृष्णिवंशमें अवतार लेनेसे भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम वार्ष्णेय’ है । पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने स्वधर्म-पालनकी प्रशंसा की है । धर्म वर्ण’ औरकुल’ का होता है; अतः अर्जुन भी कुल (वंश)-के नामसे भगवान्‌को सम्बोधित करके प्रश्‍न करते हैं ।

विचारवान् पुरुष पाप नहीं करना चाहता; क्योंकि पापका परिणाम दुःख होता है और दुःखको कोई भी प्राणी नहीं चाहता ।

यहाँ अनिच्छन्’ पदका तात्पर्य भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग नहीं, प्रत्युत पाप करनेकी इच्छाका त्याग है । कारण कि भोग और संग्रहकी इच्छा ही समस्त पापोंका मूल है, जिसके न रहनेपर पाप होते ही नहीं ।

विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता, पर भीतर सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा रहनेसे वह करनेयोग्य कर्तव्य-कर्म नहीं कर पाता और न करनेयोग्य पाप-कर्म कर बैठता है ।

अनिच्छन्’ पदकी प्रबलताको बतानेके लिये अर्जुन बलादिव नियोजितः’ पदोंको कहते हैं । तात्पर्य यह है कि पापवृत्तिके उत्पन्‍न होनेपर विचारशील पुरुष उस पापको जानता हुआ उससे सर्वथा दूर रहना चाहता है; फिर भी वह उस पापमें ऐसे लग जाता है, जैसे कोई उसको जबर्दस्ती पापमें लगा रहा हो । इससे ऐसा मालूम होता है कि पापमें लगानेवाला कोई बलवान् कारण है ।

पापोंमें प्रवृत्तिका मूल कारण है‒काम’ अर्थात् सांसारिक सुख-भोग और संग्रहकी कामना । परन्तु इस कारणकी ओर दृष्‍टि न रहनेसे मनुष्यको यह पता नहीं चलता कि पाप करानेवाला कौन है ? वह यह समझता है कि मैं तो पापको जानता हुआ उससे निवृत्त होना चाहता हूँ, पर मेरेको कोई बलपूर्वक पापमें प्रवृत्त करता है; जैसे दुर्योधनने कहा है‒

जानामि  धर्मं न  च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥

(गर्गसंहिता, अश्‍वमेध ५० । ३६)

मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती । मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मेरेसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ ।’

दुर्योधन द्वारा कहा गया यह देव’ वस्तुतः काम’ (भोग और संग्रहकी इच्छा) ही है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्मका पालन और अधर्मका त्याग नहीं कर पाता ।

केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति’ पदोंसे भी अनिच्छन्’ पदकी प्रबलता प्रतीत होती है । तात्पर्य यह है कि विचारवान् मनुष्य स्वयं पाप करना नहीं चाहता; कोई दूसरा ही उसे जबर्दस्ती पापमें प्रवृत्त करा देता है । वह दूसरा कौन है ?‒यह अर्जुनका प्रश्‍न है ।

भगवान्‌ने अभी-अभी चौंतीसवें श्‍लोकमें बताया है कि राग और द्वेष (जो काम और क्रोधके ही सूक्ष्म रूप हैं) साधकके महान् शत्रु हैं अर्थात् ये दोनों पापके कारण हैं । परन्तु वह बात सामान्य रीतिसे कहनेके कारण अर्जुन उसे पकड़ नहीं सके । अतः वे प्रश्‍न करते हैं कि मनुष्य विचारपूर्वक पाप करना न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ?

अर्जुनके प्रश्‍नका अभिप्राय यह है कि (इकतीसवेंसे लेकर पैंतीसवें श्‍लोकतक देखते हुए) अश्रद्धा, असूया, दुष्‍टचित्तता, मूढ़ता, प्रकृति (स्वभाव)-की परवशता, राग-द्वेष, स्वधर्ममें अरुचि और परधर्ममें रुचि‒इनमेंसे कौन-सा कारण है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक न चाहता हुआ भी पापमें प्रवृत्त होता है ? इसके अलावा ईश्‍वर, प्रारब्ध, युग, परिस्थिति, कर्म, कुसंग, समाज, रीतिरिवाज, सरकारी कानून आदिमेंसे भी किस कारणसे मनुष्य पापमें प्रवृत्त होता है ?

രരരരരരരരരര



।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



स्वधर्म और परधर्म-सम्बन्धी मार्मिक बात

परमात्मा और उनका अंश (जीवात्मा) स्वयं’ है तथा प्रकृति और उसका कार्य (शरीर और संसार) अन्य’ है । स्वयंका धर्मस्वधर्म’ और अन्यका धर्मपरधर्म’ कहलाता है । अतः सूक्ष्म दृष्‍टिसे देखा जाय तो निर्विकारता, निर्दोषता, अविनाशिता, नित्यता, निष्कामता, निर्ममता आदि जितने स्वयंके धर्म हैं, वे सबस्वधर्म’ हैं । उत्पन्‍न होना, उत्पन्‍न होकर रहना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना तथा नष्‍ट होना

.‘जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति .......’

(निरुक्त १ । १ । २) ।

एवं भोग और संग्रहकी इच्छा, मान-बड़ाईकी इच्छा आदि जितने शरीरके, संसारके धर्म हैं, वे सब परधर्म’ हैं‒संसारधर्मैरविमुह्यमानः’ (श्रीमद्भा ११ । २ । ४९) स्वयंमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसलिये उसका नाश नहीं होता; परन्तु शरीरमें निरन्तर परिवर्तन होता है, इसलिये उसका नाश होता है । इस दृष्‍टिसे स्वधर्म अविनाशी और परधर्म नाशवान् है ।

त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्ति-योग)‒ये तीनों ही स्वतःसिद्ध होनेसे स्वधर्म हैं । स्वधर्ममें अभ्यासकी जरूरत नहीं है; क्योंकि अभ्यास शरीरके सम्बन्धसे होता है और शरीरके सम्बन्धसे होनेवाला सब परधर्म है ।

योगी होना स्वधर्म है और भोगी होना परधर्म है । निर्लिप्‍त रहना स्वधर्म है और लिप्‍त होना परधर्म है । सेवा करना स्वधर्म है और कुछ भी चाहना परधर्म है । प्रेमी होना स्वधर्म है और रागी होना परधर्म है । निष्काम, निर्मम और अनासक्त होना स्वधर्म है एवं कामना, ममता और आसक्ति करना परधर्म है । तात्पर्य है कि प्रकृतिके सम्बन्धके बिना (स्वयंमें) होनेवाला सब कुछस्वधर्म’ है और प्रकृतिके सम्बन्धसे होनेवाला सब कुछपरधर्म’ है । स्वधर्म चिन्मय-धर्म और परधर्म जडधर्म है ।

परमात्माका अंश (शरीरी)स्व’ है और प्रकृतिका अंश (शरीर)पर’ है ।स्व’ के दो अर्थ होते हैं‒एक तोस्वयं’ और दूसरा स्वकीय’ अर्थात् परमात्मा । इस दृष्‍टिसे अपने स्वरूपबोधकी इच्छा तथा स्वकीय परमात्माकी इच्छा‒दोनों ही स्वधर्म’ हैं ।

पुरुष (चेतन)-का धर्म है‒स्वतःसिद्ध स्वाभाविक स्थिति और प्रकृति (जड)-का धर्म है‒स्वतःसिद्ध स्वाभाविक परिवर्तनशीलता । पुरुषका धर्मस्वधर्म’ और प्रकृतिका धर्मपरधर्म’ है ।

मनुष्यमें दो प्रकारकी इच्छाएँ रहती हैं‒सांसारिक’ अर्थात् भोग एवं संग्रहकी इच्छा औरपारमार्थिक’ अर्थात् अपने कल्याणकी इच्छा । इसमें भोग और संग्रहकी इच्छापरधर्म’ अर्थात् शरीरका धर्म है; क्योंकि असत् शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही भोग और संग्रहकी इच्छा होती है । अपने कल्याणकी इच्छास्वधर्म’ है; क्योंकि परमात्माका ही अंश होनेसे स्वयंकी इच्छा परमात्माकी ही है, संसारकी नहीं ।

स्वधर्मका पालन करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है; क्योंकि अपना कल्याण करनेमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत इनसे विमुख होनेकी आवश्यकता है । परंतु परधर्मका पालन करनेमें मनुष्य परतन्त्र है; क्योंकि इसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिकी आवश्यकता है । शरीरादिकी सहायताके बिना परधर्मका पालन हो ही नहीं सकता ।

स्वयं परमात्माका अंश है और शरीर संसारका अंश है । जब मनुष्य परमात्माको अपना मान लेता है तब यह उसके लियेस्वधर्म’ हो जाता है, और जब शरीर-संसारको अपना मान लेता है, तब यह उसके लियेपरधर्म’ हो जाता है, जो कि शरीर-धर्म है । जब मनुष्य शरीरसे अपना सम्बन्ध न मानकर परमात्मप्राप्‍तिके लिये साधन करता है, तब वह साधन उसका स्वधर्म’ होता है । नित्यप्राप्‍त परमात्माका अथवा अपने स्वरूपका अनुभव करानेवाले सब साधनस्वधर्म’ हैं और संसारकी ओर ले जानेवाले सब कर्मपरधर्म’ हैं । इस दृष्‍टिसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योगमार्ग मनुष्यमात्रकेस्वधर्म’ हैं । इसके विपरीत शरीरसे अपना सम्बन्ध मानकर भोग और संग्रहमें लगना मनुष्यमात्रका परधर्म’ है ।

स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंसे किये जानेवाले तीर्थ, व्रत, दान, तप, चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि समस्त शुभ-कर्म सकामभावसे अर्थात् अपने लिये करनेपर परधर्म’ हो जाते हैं और निष्कामभावसे अर्थात् दूसरोंके लिये करनेपर स्वधर्म’ हो जाते हैं । कारण कि स्वरूप निष्काम है और सकामभाव प्रकृतिके सम्बन्धसे आता है । इसलिये कामना होनेसे परधर्म होता है । स्वधर्म मुक्त करनेवाला और परधर्म बाँधनेवाला होता है ।

मनुष्यका खास काम है‒परधर्मसे विमुख होना और स्वधर्मके सम्मुख होना । ऐसा केवल मनुष्य ही कर सकता है । स्वधर्मकी सिद्धिके लिये ही मनुष्य-शरीर मिला है । परधर्म तो अन्य योनियोंमें तथा भोगप्रधान स्वर्गादि लोकोंमें भी है । स्वधर्ममें मनुष्यमात्र सबल, पात्र और स्वाधीन है तथा परधर्ममें मनुष्यमात्र निर्बल, अपात्र और पराधीन है । प्रकृतिजन्य वस्तुकी कामनासे अभावका दुःख होता है और वस्तुके मिलनेपर उस वस्तुकी पराधीनता होती है, जो कि परधर्म’ है । परन्तु प्रकृतिजन्य वस्तुओंकी कामनाओंका नाश होनेपर अभाव और पराधीनता सदाके लिये मिट जाती है, जो कि स्वधर्म’ है । इस स्वधर्ममें स्थित रहते हुए कितना ही कष्‍ट आ जाय, यहाँतक कि शरीर भी छूट जाय, तो भी वह कल्याण करनेवाला है । परन्तु परधर्मके सम्बन्धमें सुख-सुविधा होनेपर भी वह भयावह अर्थात् बारम्बार जन्म-मरणमें डालनेवाला है ।

संसारमें जितने भी दुःख, शोक, चिन्ता आदि हैं, वे सब परधर्मका आश्रय लेनेसे ही हैं । परधर्मका आश्रय छोड़कर स्वधर्मका आश्रय लेनेसे सदैव, सर्वथा, सर्वदा रहनेवाले आनन्दकी प्राप्‍ति हो जाती है, जो कि स्वतःसिद्ध है ।

परिशिष्‍ट भाव‒साधक जन्म और कर्मके अनुसारस्व’ को अर्थात् अपनेको जो मानता है, उसका धर्म (कर्तव्य) उसके लिये स्वधर्म’ है और जो उसके लिये निषिद्ध है, वह परधर्म’ है, जैसे, साधक अपनेको किसी वर्ण और आश्रमका मानता है तो उस वर्ण और आश्रमका धर्म उसके लिये स्वधर्म है । वह अपनेको विद्यार्थी या अध्यापक मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसके लिये स्वधर्म है । वह अपनेको सेवक, जिज्ञासु या भक्त मानता है तो सेवा, जिज्ञासा या भक्ति उसके लिये स्वधर्म है । जिसमें दूसरेके अहितका, अनिष्‍टका भाव होता है, वह चोरी, हिंसा आदि कर्म किसीके भी स्वधर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं

२.प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒ये तीनों होते हैं । दूसरेके अनिष्‍टका भाव, कूटनीति आदि धर्ममें कुधर्म’ है । यज्ञमें पशुबलि देना आदि धर्ममें अधर्म’ है । जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका धर्म धर्ममें परधर्म’ है । कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒इन तीनोंसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग एवं दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो ।

निष्कामभावसे दूसरेके हितके लिये कर्म करना (कर्मयोग) स्वधर्म है । स्वधर्मको ही गीतामें सहज कर्म, स्वकर्म और स्वभावज कर्म नामसे कहा गया है ।

कर्तव्यके विरुद्ध कर्म करना ही अकर्तव्य है और कर्तव्यका पालन न करना भी अकर्तव्य है (गीता‒दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ श्‍लोक) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार निष्कामभावसे अपने-अपने कर्तव्यका पालन करना मनुष्यका ‘स्वधर्म’ है और जो उसके लिये निषिद्ध है, वह ‘परधर्म’ है । जिनमें दूसरेके अहितका भाव होता है, वे चोरी, हिंसा आदि किसीके भी स्वधर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं ।

प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒ये तीनों रहते हैं; जैसे‒दूसरेके अनिष्‍टका भाव, कूटनीति आदि ‘धर्ममें कुधर्म’ है । यज्ञमें पशुबलि देना आदि ‘धर्ममें अधर्म’ है । जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका धर्म ‘धर्ममें परधर्म’ है । कुधर्म, अधर्म और परधर्मसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग और दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो ।

രരരരരരരരരര