।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७६ मंगलवार
वरूथिनी एकादशी-व्रत (सबका), 
श्रीवल्लभाचार्यजयन्ती
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



भगवान्‌ने यहाँ ज्ञानी, जिज्ञासु, आर्त, अर्थार्थी–ऐसा अथवा अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी–ऐसा क्रम न बतलाकर आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसा कहा है । यहाँ आर्त और अर्थार्थीके बीचमें जिज्ञासुको रखनेमें भगवान्‌का यह एक विलक्षण तात्पर्य मालूम देता है कि जिज्ञासुमें जन्म-मरणके दुःखसे दुःखी होना और अर्थोंके परम अर्थ परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी इच्छा–ये दोनों हैं । इस प्रकार आर्त और अर्थार्थी दोनोंके आंशिक धर्म उसमें आ जाते हैं । इसी तरह आर्त और अर्थार्थी भक्तोंमें आर्तिनाश और पदार्थ-कामनाके अतिरिक्त मुक्तिकी भी इच्छा रहती है, इसलिए भगवान्‌से जो कष्ट-निवृत्ति तथा सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिकी कामना की गयी, उस कामनारूप दोषको समझनेपर उनके हृदयमें ग्लानि और पश्चात्ताप भी होता है । अतः आर्त और अर्थार्थी–इन दोनोमेंसे कोई तो जिज्ञासु होकर भगवान्‌को तत्त्वसे जान लेते हैं और कोई भगवान्‌के प्रेमके पिपासु होकर भगवत्प्रेमको प्राप्त कर लेते हैं एवं अन्ततोगत्वा वे दोनों सर्वथा आप्तकाम होकर ज्ञानी भक्तकी श्रेणीमें चले जाते हैं । ज्ञानी सर्वथा निष्काम होता है, इस सर्वथा निष्कामभावका द्योतन करनेके लिए ही भगवान्‌ने ‘च’ शब्दका प्रयोग करके उसे सबसे विलक्षण बतलाया है । ऐसे ज्ञानी भक्तोंकी भगवद्भक्ति सर्वथा निष्काम–अहैतुकी होती है । श्रीमद्भागवतमें भी कहा है–

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
                                                   (१/७/१०)

‘ज्ञानके द्वारा जिनकी चिज्जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्‌की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान्‌ श्रीहरि ऐसे ही अद्भुत दिव्य गुणवाले हैं ।’

भगवान्‌ तो उपर्युक्त सभी भक्तोंको उदार मानते हैं–‘उदाराः सर्व एवैते’ (गीता ७/१८) । अर्थार्थी और आर्त भक्त उदार कैसे ? इसका उत्तर यह है कि अपनेसे माँगनेवालों और दुःखनिवारण चाहनेवालोंको भी उदार कहना तो वस्तुतः भगवान्‌की ही उदारता है, परन्तु भगवान्‌ इस दृष्टिसे भी उन्हें उदार कह सकते हैं कि वे मेरा पूरा विश्वास करके मुझे अपना अमूल्य समय देते हैं । दूसरी बात यह है कि वे फलप्राप्तिको मेरे भरोसे छोड़कर मेरा आश्रय पहले लेते हैं, तब पीछे मैं उन्हें भजता हूँ (गीता ४/११) । तीसरी बात यह है कि वे देवता आदिका पूजन करके अपना अभीष्ट फल शीघ्र प्राप्त कर सकते थे (गीता ४/१२) और मेरी भक्ति करनेपर तो मैं उनकी कामना पूर्ण करूँ या न भी करूँ, तब भी वे उन देवातओंकी अपेक्षा मुझपर विशेष विश्वास करके मेरा भजन करते हैं । इसलिए वे उदार हैं ।

इससे सिद्ध हुआ कि चाहे जैसे भी हीन जन्म, आचरण और भाववाला मनुष्य क्यों न हो, वह भी भगवद्भक्तिका अधिकारी हो सकता है ।


भगवान्‌के साथ अपनेपनको लेकर उनपर दृढ़ विश्वासका होना–यह भक्त-हृदयका प्रधान चिह्न है । भक्तोंका हृदय सम्पूर्ण जगतमें अव्यक्तरूपसे परिपूर्ण रहनेवाले परमात्माको आकर्षित करके साक्षात् मूर्तरूपमें प्रकट कर लेता है, जैसे भक्त ध्रुव और प्रह्लादके लिये भगवान्‌ साक्षात् प्रकट हो गये थे ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण दशमी, वि.सं. २०७६ सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



श्रीमद्भागवतमें बतलाया है कि कोई भी कामना न हो या सभी तरहकी कामना हो अथवा केवल मुक्तिकी ही कामना हो तो भी श्रेष्ठ बुद्धिवाला मनुष्य तीव्र भक्तियोगसे परम पुरुष भगवान्‌की ही पूजा करे–

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण  भक्तियोगेन   यजेत   पुरुषं  परम् ॥
                                                  (२/३/१०)

यहाँ ‘अकाम’ से ज्ञानी भक्त, ‘मोक्षकाम’ से जिज्ञासु तथा ‘सर्वकाम’ से अर्थार्थी और आर्त भक्त समझना चाहिये । ज्ञानीभक्त वह है जो भगवान्‌को तत्त्वतः जानकर स्वाभाविक ही उनका निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर भजन करता रहता है । जिज्ञासु भक्त उसका नाम है, जो भगवत्तत्त्वको जाननेकी इच्छासे उनका भजन करता है । अर्थार्थी भक्त वह होता है, जो भगवान्‌पर भरोसा करके उनसे ही संसारी भोग-पदार्थोंको चाहता है और आर्त भक्त वह है, जो संसारके कष्टोंसे उन्हींके द्वारा त्राण चाहता है ।

गीतामें इन्हीं भक्तोंके सकाम और निष्काम भावोंके तारतम्यसे चार प्रकार बतलाये हैं–

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी  च  भरतर्षभ ॥
                                                  (७/१६)

‘हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं ।’

इनमें सबसे निम्नश्रेणीका भक्त अर्थार्थी है, उससे ऊँचा आर्त, आर्तसे ऊँचा जिज्ञासु और जिज्ञासुसे ऊँचा ज्ञानी भक्त है । भोग और ऐश्वर्य आदि पदार्थोंकी इच्छाको लेकर जो भगवान्‌की भक्तिमें प्रवृत्त होता है, उसका लक्ष्य भगवद्भजनकी ओर गौण तथा पदार्थोंकी ओर मुख्य रहता है; क्योंकि वह पदार्थोंके लिये भगवान्‌का भजन करता है, न कि भगवान्‌के लिये । वह भगवान्‌को तो धनोपार्जनका एक साधन समझता है, फिर भी भगवान्‌पर भरोसा रखकर धनके लिए भजन करता है, इसलिए वह भक्त कहलाता है ।


जिसको भगवान्‌ स्वाभाविक ही अच्छे लगते हैं और जो भगवान्‌के भजनमें स्वाभाविक ही प्रवृत्त होता है, किन्तु सम्पत्ति-वैभव आदि जो उसके पास हैं, उनका जब नाश होने लगता है अथवा शारीरिक कष्ट आ पड़ता है; तब उन कष्टोंको दूर करनेके लिये भगवान्‌को पुकारता है, वह आर्त भक्त अर्थार्थीकी तरह वैभव और भोगोंका संग्रह तो नहीं करना चाहता, परन्तु प्राप्त वस्तुओंके नाश और शारीरिक कष्टको नहीं सह सकता, अतः इसमें उसकी अपेक्षा कामना कम है और जिज्ञासु भक्त तो न वैभव चाहता है न योगक्षेमकी ही परवाह  करता है; वह तो केवल एक भगवत्तत्त्वको ही जाननेके लिये भगवान्‌पर ही निर्भर होकर उनका भजन करता है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण नवमी, वि.सं. २०७६ रविवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



(२) इस जीवको संसारके किसी भी उच्‍च-से-उच्‍च पद या पदार्थकी प्राप्ति क्यों न हो जाय, इसकी भूख तबतक नहीं मिटती, जबतक यह अपने परम आत्मीय भगवान्‌को प्राप्त नहीं कर लेता; क्योंकि भगवान्‌ ही ऐसे हैं, जिनसे सब तरहकी पूर्ति हो सकती है । उनके सिवा सभी अपूर्ण हैं । पूर्ण केवल एक वे ही हैं और वे पूर्ण होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति बिना कारण ही प्रेम और कृपा करनेवाले परम सुहृद् हैं, साथ ही वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् भी हैं । कोई सर्वसुहृद् तो हो पर सब कुछ न जानता हो, वह हमारे दुःखको न जाननेके कारण उसे दूर नहीं कर सकता और यदि सब कुछ जानता हो पर सर्वसमर्थ न हो तो भी असमर्थताके कारण दुःख दूर नहीं कर सकता । एवं सब सब कुछ जानता भी हो और समर्थ भी हो, तब भी यदि सुहृद् न हो तो दुःख देखकर भी उसे दया नहीं आती, जिससे वह हमारा दुःख दूर नहीं कर सकता । इसी प्रकार सुहृद् भी हो अर्थात् दयालु भी हो और समर्थ भी हो, पर हमारे दुःखको न जानता हो, तो भी काम नहीं होता तथा सुहृद् और सर्वज्ञ हो, पर समर्थ न हो तो वह हमारे दुःखको जानकर भी दुःख दूर नहीं कर सकेगा; क्योंकि उसकी दुःखनिवारणकी सामर्थ्य ही नहीं । किन्तु भगवान्‌में उपर्युक्त तीनों बातें एक साथ हैं ।

उन सर्वसुहृद्, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌पर ही निर्भर होकर जो उनकी भक्ति करता है, वही भक्त है । भगवान्‌की भक्तिके अधिकारी सभी तरहके मनुष्य हो सकते हैं । भगवान्‌ने गीताके नवें अध्यायके ३० वें, ३२ वें  और ३३ वें श्लोकमें बतलाया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, पापयोनि और दुराचारी–ये सातों ही मेरी भक्तिके अधिकारी हैं ।

अपि चेत् सुदुराचारो    भजते   मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः     सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः  पुण्या   भक्ता  राजर्षयस्तथा ।

‘यदि कोई अतिशय भी दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है–अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’

‘हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि–चाण्डालादि जो कोई   भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं ।’

‘फिर इसमें तो कहना ही क्या है कि पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरे शरण होकर परम गतिको प्राप्त होते हैं ।’


यहाँ भगवान्‌ने जातिमें सबसे छोटे और आचरणोंमें भी सबसे गिरे हुए–दोनों तरहके मनुष्योंको ही भगवद्भक्तिका अधिकारी बतलाया । यद्यपि विधि-निषेधके अधिकारी मनुष्य ही होते हैं, तो भी ‘पापयोनि’ शब्द तो इतना व्यापक है कि इससे गौणीवृत्तिसे पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी लिये जा सकते हैं । अब रहे भावके अधिकारी ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं. २०७६ शनिवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



भक्ति  भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक ।
इनके  पद  बंदन किएँ  नासत  बिघ्न  अनेक ॥

(१) भक्तिका मार्ग बतानेवाले संत ‘गुरु’, (२) भजनीय ‘भगवान्‌’, (३) भजन करनेवाले ‘भक्त’ तथा (४) संतोंके उपदेशके अनुसार भक्तकी भगवदाकार वृत्ति ‘भक्ति’ है । नामसे चार हैं, किन्तु तत्त्वतः एक ही हैं ।

जो साधक दृढ़ता और तत्परताके साथ भगवान्‌के नामका जप और स्वरूपका ध्यानरूप भक्ति करते हुए तेजीसे चलता है, वही भगवान्‌को शीघ्र प्राप्त कर लेता है ।

जो जिव चाहे मुक्तिको तो सुमरीजे राम ।
हरिया  गैलै  चालताँ   जैसे  आवे  गाम ॥

(१) इस भगवद्भक्तिकी प्राप्तिके अनेक साधन बताये गये हैं । उन साधनोंमें मुख्य हैसंत-महात्माओंकी कृपा और उनका संग । रामचरितमानसमें कहा है–

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
×     ×     ×
भक्ति तात अनुपम सुख मूला ।
मिलइ जो संत होइ अनुकूला ॥

उन संतोंका मिलन भगवत्कृपासे ही होता है । श्रीगोस्वामीजी कहते हैं

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही । चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
.......................... । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥
.................................. । सतसंगति संसृति कर अंता ॥

असली भगवत्प्रेमका नाम ही भक्ति है । कहा भी है

पन्नगारि  सुनु  प्रेम  सम    भजन  न  दूसर  आन ।
असि बिचारि पुनि पुनि मुनि करत राम गुन गान ॥

इस प्रकारके प्रेमकी प्राप्ति संतोंके संगसे अनायास ही हो जाती है; क्योंकि संत-महात्माओंके यहाँ परम प्रभु परमेश्वरके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यकी कथाएँ होती रहती हैं । उनके यहाँ यही प्रसंग चलता रहता है । भगवान्‌की कथा जीवोंके अनेक जन्मोंसे किये हुए अनन्त पापोंकी राशिका नाश करनेवाली एवं हृदय और कानोंको अतीव आनन्द देनेवाली होती है । जीवको यज्ञ, दान, तप, व्रत, तीर्थ आदि बहुत परिश्रम-साध्य पुण्य-साधनोंके द्वारा भी वह लाभ नहीं होता, जो सत्संगसे अनायास ही हो जाता है; क्योंकि प्रेमी संत-महात्माओंके द्वारा कथित भगवत्कथाके श्रवणसे जीवोंके पापोंका नाश हो जाता है । इससे अन्तःकरण अत्यंत निर्मल होकर भगवान्‌के चरणकमलोंमें सहज ही श्रद्धा और प्रीति उत्पन्न हो जाती है । भक्तिका मार्ग बतानेवाले संत-महात्मा ही भक्तिमार्गके गुरु हैं । इनके लक्षणोंका वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवतमें कहा है–

कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः           सर्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा      समः    सर्वोपकारकः ॥
कामैरहतधीर्दान्तो        मृदुः      शुचिरकिञ्चन ।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥
         अप्रमत्तो    गभीरात्मा     धृतिमाञ्जितषड्गुणः ।
अमानी मानदः कल्पो  मैत्रः  कारुणिकः  कविः ॥
                                                               (११/११/२९-३१)

‘भगवान्‌का भक्त कृपालु, सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित, कष्टोंको प्रसन्नतापूर्वक सहन करनेवाला, सत्यजीवन, पापशून्य, समभाववाला, समस्त जीवोंका सुहृद्, कामनाओंसे कभी आक्रान्त न होनेवाली शुद्ध बुद्धिसे सम्पन्न, संयमी, कोमलस्वभाव, पवित्र, पदार्थोंमें आसक्ति और ममतासे रहित, व्यर्थ और निषिद्ध चेष्टाओंसे शून्य, हित-मित-मेध्य-भोजी, शान्त, स्थिर, भगवत्परायण, मननशील, प्रमादरहित, गंभीर स्वभाव, धैर्यवान्, काम-क्रोध-लोभ-मोह-मत्सररूप छः विकारोंको जीता हुआ, मानरहित, सबको मान देनेवाला, भगवान्‌के ज्ञान-विज्ञानमें निपुण, सबके साथ मैत्रीभाव रखनेवाला, करुणाशील और तत्त्वज्ञ होता है ।’


ऐसे भगवद्भक्त ही वास्तवमें भक्तिमार्गके प्रदर्शक हो सकते हैं ।

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